कोरोना काल(एक व्यथा)
कोरोना काल(एक व्यथा)
कोरोना महामारी ना केवल देश व्यापी बीमारी थी,अपितु एक विश्व व्यापी महामारी थी।जिससे मेरा भारत भी अछूता नहीं रहा।
इस विपद,आपद की विषम परिस्थितियों में जहां सभी प्रतिष्ठान बंद कर दिये गये, वहाँ भला शिक्षण संस्थानों को कैसे खोला जा सकता था,जहां देश की भावी पीढ़ी ,कर्णधारों का जीवन संकटमय हो सकता था।
अर्थात शिक्षा तंत्र पूर्ण रूप से निष्क्रिय हो गया था।ऐसे समय में हम शिक्षक समुदाय का केवल और केवल एक ही उद्देश्य था कि कैसे शिक्षण व्यवस्था को सुचारू रूप से गति प्रदान की जाये।
मैंने(प्रमोद कुमार) इस कोरोना काल में समाज व शिक्षा के क्षेत्र में इतना अधिक तो कुछ नहीं किया कि मैं अपने आपको एक श्रेष्ठ श्रेणी में रख सकूं।
लेकिन मैनें परम पिता परमेश्वर की विशेष अनुकंम्पा से प्रेरित अपनी यथासंभव सामर्थ्य के अनुरूप अपने विद्यालय के छात्रों को शिक्षा के क्षेत्र में पीछे ना रहें इसके लिए अथक प्रयास किया।
सरकार द्वारा निर्धारित कोविड-19 के दिशा-निर्देशों का पालन करते हुये, छात्रों को किताबें व शिक्षण सामग्री, सहायक सामग्री,मास्क, सैनीटाइजर की व्यवस्था करना।
स्मार्ट फोन सबके पास न होने के कारण ,शिक्षा
मित्र बनाना।
ऑनलाइन शिक्षण कार्य कराना।
फीडबैक लेना
समय-समय पर व्यक्तिगत रूप से संपर्क करना।
महामारी से बचाव के उपाय बताना।आदि
जिसका परिणाम आज जुलाई/अगस्त-सैट-1 परीक्षा में सामने आया कि ,छात्रों ने परीक्षा में 70-80% अंक प्राप्त किये हैं।यह सब छात्रों की लग्न व मेहनत का परिणाम है,मेरा कार्य तो श्लेष मात्र था।इस उपलब्धि का श्रेय मेरे बच्चों को जाता है,जिन्होंने शिक्षण के प्रति अपनी निष्ठा का परिचय दिया।
सामाजिक क्षेत्र में मैंने अपने गाँव में फोग स्प्रे, मास्क,सैनीटाइजर वितरण कराया।लोगों को महामारी से बचने के उपायों से अवगत कराया।
बीमार लोगों को यथासंभव मदद प्रदान की गई,चाहे डॉक्टर परामर्श हो,चेकअप हो या फिर हॉस्पिटल में भर्ती कराना हो।
मैंने अपने तन,मन, धन से इस महामारी से लड़ने में अपने -आपको समर्थ बनाने की अथक कोशिश की लेकिन अफसोस कि मैं अपने भारत के लालों को ,जो इस महामारी में शहीद हो गये, उन्हें बचाने में असफल रहा।इसका मुझें मरते दम तक अफसोस रहेगा।
भगवान उन दिवंगत आत्माओं को शांति और अपने चरणों में स्थान दे।इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देता हूं।