वृद्धाश्रम
वृद्धाश्रम
कहानी उस समय की है जब मैं दौसा जा रहा था। कोरोना वायरस की वजह से सभी ट्रेनों में यात्रा से पूर्व आरक्षण करवाना अनिवार्य था। चूंकि मेरा आरक्षण हो चुका था तो मैं तय समय से पहले ही रेवाड़ी रेल्वे स्टेशन पर आ गया था। ट्रेन पहले ही स्टेशन पर आ चुकी थी। मैंने अपना सामान ट्रैन में रखा। चूंकि ट्रेन चलने में अभी समय था तो मैं ट्रेन से उतरकर इधर उधर टहलने लगा।
चूंकि जनवरी का महीना था तो ठंड पड़ना स्वाभाविक थी। मैंने देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति उस कंपकंपाती ठंड में मात्र एक फट्टे हुए कुर्ते पजामे में थे। वे रेलवे पुल के नीचे छिपे हुए थे। शायद उन्हें ठंड लग रही थी या इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि वे लोगों को अपनी दयनीय स्थिति को दिखाना नहीं चाहते थे।
कुछ समय पश्चात वे उठे और अचानक से दौड़ने लगे। मैंने भी उन पर ज्यादा गौर नहीं किया और मैं दुबारा से टहलने लगा।
कुछ ही देर में ट्रेन चलने वाली थी तो मैं अपनी सीट पर जाने लगा। अकस्मात ही मैंने देखा कि वही बुजुर्ग मेरे सामने वाली सीट पर बैठे हुए थे। वे ठंड में एकदम ठिठुर रहे थे।
वे बुजुर्ग लगभग 60वर्ष के थे। उन्होंने सफेद कुर्ता पजामा पहना हुआ था जो एकदम मैला तथा जगह जगह से फटा हुआ था। उनकी आंखों में भूख एवं नींद को स्पष्ट देखा जा सकता था।
मैं कुछ देर तक उन्हें ऐसे ही देखता रहा। मेरा मन उनसे बात करने को कर रहा था परन्तु, एक अजनबी से अचानक बात करना थोड़ा कठिन होता है।
ट्रेन चल रही थी और खिड़की से ठंडी हवा आ रही थी। आखिरकार मैंने उनसे पूछ ही लिया कि "क्या आपको ठंड नहीं लग रही?'
उन्होंने अपनी दृष्टि मेरी ओर दौड़ाई शायद वो मेरे इस प्रकार के सवाल से अनभिज्ञ थे। उन्होंने मेरे सवाल का जवाब देने के लिए अपनी गर्दन को इस प्रकार हिलाया जिसमें ना तो हां की स्वीकृति थी और ना ही नहीं कि।
खैर, मुझे उन पर दया आयी तो मैंने अपने बैग से एक चादर जो मेरे पास फालतू थी, उनको देने के लिए निकाली। मैंने जैसे ही चादर देने के लिए अपना हाथ बढ़ाया तो वे आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगे और फिर झट से वो चादर लेकर उसे ओढ़ ली और मुझे धन्यवाद कहा।
उनको बहुत जोर से भूख लगी हुई थी ये स्पष्ट दिख रहा था तो मैं अपनी रोटी जो मैं घर से लाया था उनको देने लगा। उन्होंने शुरुआत में तो मुझे मना किया परन्तु मेरे जोर देने से उन्होंने उसे ले ली तथा खाने लगे।
मुझे उनकी मदद करके बहुत ही अच्छा महसूस हुआ।
खाना खाने के बाद उन्होंने मुझसे पूछा "बेटा कहाँ जाओगे?"
मैंने प्रत्युत्तर में कहा "दौसा, और आप ?"
उन्होंने कुछ भी नहीं बोला।
मैंने दुबारा वही सवाल किया।
"पता नहीं" उन्होंने मेरे सवाल का जवाब देते हुए कहा।
मैं उनके इस प्रकार के उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ।
कुछ देर ट्रेन की आवाज के अलावा हमारे लफ्जों में सन्नाटा रहा।
फिर मैंने उनसे पूछा "आप वहां छिपे क्यों थे।"
उन्होंने अपनी चुप्पी साध ली। हालांकि मुझे लग रहा था कि वो मेरे सवाल का जवाब जरूर देंगे
मेरा विश्वास सही साबित हुआ और कुछ समय बाद उन्होंने कहा "बहुत लंबी कहानी है बेटा अगर सुनाने लगा तो समय कम पड़ जायेगा" उन्होंने लंबी आह भरी।
मैंने उनसे उनकी कहानी को छोटे रूप में सुनाने का आग्रह किया।
उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया और अपनी आपबीती मुझे सुनाने लगे।
"मेरे एक ही बेटा था उसको हमने खूब पढ़ाया लिखाया हालांकि मैं एक गरीब परिवार से हूँ परन्तु फिर भी मैंने मेरे बेटे को हर आवश्यक सुविधाएं प्रदान की। मैंने कर्ज ले के मेरे बेटे की उच्च शिक्षा को पूरी करवाया। आज वह दिल्ली के एक दफ्तर में कर्मचारी है। तनख्वाह भी अच्छी खासी मिल जाती है ।शुरुआत में जब वो नौकरी लगा तो वह महीने में कम से कम 2 बार घर आता था और हमारी खूब देखभाल करता था परन्तु पिछले दो सालों से ना तो वह घर आया और ना ही उसने कोई संदेश भेजे।
जब हमने उसके बारे में पता लगाया तो पता चला कि उसने शादी कर ली तथा दिल्ली में ही मकान ले के रहने लग गया।
पुत्र की राह देखते देखते उसकी माँ भी 2 माह पहले ही चल बसी।"
इतना कहकर उनकी आँखों से आँसू जलधारा की तरह बहने लगे जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
कुछ समय बाद जब वे सामान्य हुए तो मैंने पूछा कि "अब आप कहाँ जा रहे हो?"
वे अपने रूक्ष स्वर से बताने लगे "बेटे की पढ़ाई के लिए मैंने गाँव के जमींदार से कर्ज लिया था। मैंने उसे आश्वासन दिया कि बेटे की नौकरी लगने के बाद धीरे धीरे आपके रुपये ब्याज सहित वापस चुका दूँगा। परन्तु जब 2 साल से वह घर नहीं लौटा तो जमींदार ने मेरे घर को अपने कब्जे में ले लिया तथा मैं बेघर हो गया।"
इतना कहकर वो दुबारा से रोने लगे। मैंने उन्हें सांत्वना दी।
बातचीत ऐसे ही चलती रही तो मैंने उनसे फिर से सवाल किया कि "आप कहाँ जा रहे हो?"
इस बार उन्होंने मेरे सवाल का जवाब दिया और बताया कि "मैं बांदीकुई(दौसा) जा रहा हूँ ।"
"क्यों" मैंने उनसे पूछा।
"घर से बेघर हो गया हूं अब मेरा आश्रय सिर्फ वृदाश्रम में ही है" उन्होंने कुछ निश्चिंत होते हुए कहा।
कुछ समय पश्चात बांदीकुई आने वाला था। उन्होंने वह चादर जो मैंने उन्हें दी थी उसे वापस देने के लिए अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने उन्हें मना किया और वो चादर उनको ही दे दी। उनके चेहरे पे कुछ प्रसन्नता सी हुई शायद वो भी यही चाहते थे। उन्होंने मुझे धन्यवाद कहा और ट्रेन से उतरकर जाने लगे।
धीरे धीरे ट्रेन रवाना हुई और वे वृद्ध व्यक्ति भी धीरे धीरे मेरी आंखों से ओझल होने लगे, परन्तु उनकी कहानी मेरी आँखों के सामने बार बार घूमने लगी। वे ट्रेन से तो उतर गए थे परंतु उनकी आपबीती अब भी मेरे साथ थी।
आज के इस समाज की यही स्थिति है, लोग अपनी संतान के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपना सर्वस्व लूटा देते है। उनको पढ़ा लिखा के काबिल तो बना देते है परंतु जब वे काबिल हो जाते है तब वे उनको कुछ भी नहीं समझते जिनकी वजह से वो काबिल हुए।
जिंदगी की भागदौड़ में हमें उन्हें कभी नहीं भुलाना चाहिए जिनकी वजह से हम बुलन्दियों पर पहुँचते है। इस धरती पर माता पिता ही वो जीव है जो बिना किसी स्वार्थ के हमारे जीवन और खुशी के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर देते है। इसलिए हमें उनकी खुशियों को उतना ही महत्व देना चाहिए जितना उन्होंने हमारे लिए अपनी खुशियों का बलिदान किया था।
