Nand Lal Mani Tripathi pitamber

Crime Fantasy

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Nand Lal Mani Tripathi pitamber

Crime Fantasy

वो सांवली सी लड़की

वो सांवली सी लड़की

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जेठ की तपती दोपहरी गली मोहल्ले की सड़कें सुनसान। वातानुकूलित कमरे देश दुनिया की पल पल खबरों घटनाओं का दीदार।

स्वयं घर सामने या मोहल्ले का पता नहीं देश दुनिया को जानते खुद को ही अनजान। घर के सामने क्या घटित हुआ या हो रहा पता नहीं मोहल्ले की तो क्या बात ? विश्व के हर गली नुक्कड़ चौराहे से वाकिफ हाथ में मोबाइल गुरु गूगल ध्यान धर्म जान प्राण गुरु ज्ञान ईमान। हाईवे मुख्य सड़कें वीरान जैसे कर्फ्यू बिना शासन प्रशासन के आदेश जेठ की दोपहरी का फरमान। एक्का दुकका कभी कभार आते जाते दिख जाता कोई वह तपती धूप गर्मी लू से परेशान।

मैं भी अकेले जेठ की भरी दोपहरी में हैरान परेशान अपनी धुन में चला जा रहा था ना कोई फिक्र ना कोई फरमान बस मन कि चाह राह।


एकाएक एक साँवली लड़की उम्र चौदह पंद्रह साल बेहाल भागती दौड़ती सुन सान सड़कों पर नक्कारखाने की तूती जैसे करती पुकार।

कोई भगवान आ जाओ मेरी जान बचाओ मैं भी किसी माँ की बेटी हूँ और हूँ इंसान।

मैंने देखा साँवली सी वह लड़की जैसे अजंता की तराशी नीले काले संगमरमर सी कली खिलती नील कमल सी ।

मैंने पूछा क्यो हो परेशान क्या है तुम्हारा नाम बोली रम्भा पास की झुग्गी झोंपड़ी में रहता मेरा परिवार खानदान।

मजदूरी करते मेरे मां बाप मैं भी बाई का करती काम साँवली उस लड़की रम्भा से हो रही थी वार्तालाप।

अत्याधुनिक सुख सुविधाओं के कुछ रईस नौजवान उस साँवली सी लड़की के आये पास उन्हें देखती चिल्लाने के अंदाज़ में बोली 

यही है वह इंसान के रूप भेड़िया शैतान जिनके भय से की मुझे जिंदा ही खा जाएंगे ये नर पिशाच ।

जेठ की इस दोपहरी में भाग रही हूँ बचाने को अपनी जान मैं इन्हीं के घरों में बाई का करती काम।

आज इनकी नियत चाहती मेरा नीलाम सरेआम बाबूजी मैं भी इन्हीं की तरह हूँ इंसान क्यों ये मुझे जिंदा जबाने को है परेशान।

इनकी मां बहने भी मेरे ही जैसी मगर इनको कहाँ है माँ बहन की पहचान मैं तो पेट की आग बुझाने को जेठ की दोपहरी में भी जब घर भी एक तरह से रहते वीरान, जाती पेट की आग बुझाने को दो रोटी का करती श्रम बाबूजी मुझे बचा लीजिये मेरे पास कुछ नहीं है सिवा मेरी गरीबी के फटे कपड़ों में ढंके इज़्ज़त के। गर यह भी लूट जाएगी अमीरों की हवस के नाम तो हो जाऊंगी बदनाम अंधी गलियों में सिसक कर दम तोड़ती ना जाने कितनी ही कच्ची कलियों में शुमार ।

मैंने उन चारों अमीरज़ादों को संस्कार संस्कृति के प्रहारों से हृदय पर किया घात चारों लज़्ज़ित क्षमा के साथ लौट गए। मैं सोचता रह गया कब तक वह साँवली सी लड़की रम्भा बच पाएगी जहां कदम कदम पर मौजूद है नर पिशाच ।



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