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Sushma Tiwari

Drama

3  

Sushma Tiwari

Drama

उजाले की ओर

उजाले की ओर

2 mins
450

वो खेत की मेढ़ियों पर तेजी से चला जा रहा था। अंधेरी रात जहाँ हाथ को हाथ ना सूझता, हाथ में बचे हुए तेल में भकभकाती हुई लालटेन लिए गांव की हद्द तक जल्द पहुंचने की बेचैनी थी। बरसों का सपना अब पूरा होगा। बाउजी थे तब तक समझे ही नहीं वो और ना ही समझे बड़े भईया। जिंदगी में हमने कुछ ठानी है बाहर जाकर दो पैसे और नाम बनाने की तो इनको पुश्तैनी जमीन की पड़ी, इज्जत की पड़ी.. मेरे सपनों का कुछ नहीं। कल बहस में कह रहे थे "हमारे जीते जी तुम जमीन को हाथ तो लगाओ, निकम्मे कहीं के" अब बड़े भईया रोक ना पाएंगे। अंततः मंजिल सामने खड़ी थी, काले कंबल में लिपटा एक आदमी। 

"ये लो पांच सौ और लाओ दो झपोला हमें।"

"पांच सौ ? कतई नहीं बाबू ! दो हजार से कम ना लेंगे। मौत का सौदागर यूँ ही ना बने है, ये कालिया नाग जान पर खेल पकड़े है।" बड़बड़ाता हुआ जाने लगा।

"अरे रुको! पैसे कम है.. मजबूर है, काम होते दे देंगे।" 

" बाबू मजबूर हम भी है.. भईया को हमारे कैंसर जान पड़ा है बस शहर ले जाना है इलाज को, रहम करो"।

बिजली की कौंध सी जली दिमाग में.. पैसे उसके हाथ रखा और उल्टे पैर मेढ़ो पर दौड़ पड़ा।

" अरे बाबू! जाते कहाँ हो, गिर जाओगे . नाग लेते जाओ"

" और कितना गिरुंगा"

अपने अंदर के ज़हर को तीव्रता से फैलने से रोकने के लिए भाग पड़ा वो। बुझती हुई लालटेन की रोशनी उसे काफी उजाला दिखा चुकी थी। 


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