उदारचित्त
उदारचित्त
एक महात्मा थे, बड़े उदार चित्त थे। एक चेला भी साथ रहता था। दिन भर में जितने भी पैसे आ गए तो शाम को सब खर्च कर देते थे ,सबको बांट देते थे ।चेला सोचता कि बाबा बड़े विकट हैं ।सुबह-सुबह कौन आता है -चाय है, नाश्ता है ,कम से कम दस- पाँच रुपये तो बचा कर रख लेना चाहिए लेकिन यह त्याग के पीछे पड़े रहते हैं। इन्हें ना जाने क्या हो गया है ?मानते ही नहीं। दस-पाँच रुपये पास पड़ें रहें तो क्या हर्ज होता है ?तो वह चुपचाप दो चार रुपये डाल लेता था ।
एक दफा बाबा कहीं बाहर जाने को तैयार हुए। चेले से पूछा तू भी चलेगा? 'अवश्य महाराज ' शिष्य ने कहा ।सबेरे-सबेरे का समय था जब दोनों चलने लगे तो शिष्य ने चुपके से दो रुपये जेब में डाल लिए कि रास्ते में कोई कहीं आवश्यकता पड़ जाए तो कहां मांगते फिरेंगे ।नदी रास्ते में थी ,नाव लगती थी ।नाव वाला तैयार ही बैठा था कि मुसाफिर आवें और पार उतारुँ। इत्तफाक से बाबा ही सबसे पहले पहुंचे। बाबा ने कहा कि
भाई हमें पार जाना है। बैठिए, अगर दो दो आने होंगे, सबेरे का समय है। बाबा बोले पैसे तो हमारे पास नहीं है। नाव वाला बोला- बोहनी का समय है ।बगैर पैसे तो मैं नहीं उतारूंगा। चेला कहने लगा कि इन्हें ऐसे ही उतार दें ,यह महात्मा हैं । तुझे बहुत मिलेगा।बोला, मिले या ना मिले पहली नाव में तो मैं ले जाऊंगा नहीं ।चेले को ताव आ गया। झट से एक रुपए निकाला और दे दिया। नाव वाला खुश हो गया और नाव चलाने लगा ।
अब चेला सोच रहा कि आज महात्मा जी से कहूंगा कि ऐसे त्याग से क्या लाभ है? यदि मेरे पास यह एक रुपया पड़ा न होता हम पड़े रहते उस पार ।नाव पार लगी ,उतरकर दोनों चल दिए तो चेले से न रहा गया, मौका पाकर बोला महाराज एक बात पूछता हूं कि आप कहा करते हैं कि कुछ मत रखो, यदि मेरे पास आज है रुपया ना होता तो हम पड़े रहते ना उस पार। महात्मा बोले कि बेवकूफ खर्च किए तभी तो पार आया। बाहर निकाले तभी तो पार हुआ। यदि जेब में रखे रहता तो कैसे पार होता?