Zahiruddin Sahil

Inspirational

4.3  

Zahiruddin Sahil

Inspirational

टिंकू- एक मुड़ा हुआ पन्ना

टिंकू- एक मुड़ा हुआ पन्ना

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उसका नाम टिंकू था...छोटा सा ये लड़का मुहल्ले के बच्चों और निवासियों में अक्सर अपनी मासूमियत को लेकर चर्चा में रहता था ...मेरा उसकी गली से अक्सर गुज़र होता था ...वो हाथ जोड़कर नमस्ते कहता था..आपको बता दूं -- टिंकू एक ऐसी बीमारी में ग्रस्त था जिसमें शारीरिक विकास रुक जाता है। वो भी 12 साल की उम्र में आकर जैसे थम सा गया था ..मानो वो कोई इंचीटेप था जो पांच फुट के बाद ख़तम हो जाता है।

इस अजीब ओ गरीब बीमारी से लापरवाह वो कंचे लट्टू के खेल में मस्त रहता था। टीशर्ट निक्कर के बाद वो अब हमेशा कुर्ता पजामा पहने रहता था...उसकी उम्र बढ़ रही थी मगर कद वहीं रुक चुका था..मैंने उस वक़्त एक बात नोट की थी कि ..उसके चेहरे की मुस्कान अब पीली पढ़ चुकी थी ...पर वो मुझसे हंसकर पूछता था -" क्या हाल हैं भइया ? आज काम पर लेट जा रहे हो ??"

" हां आज लेट हो गया ! और तुम कैसे हो ? तुम्हारी तबियत ? दवा ली !"

" हां भय्या ! दिल्ली से इलाज चल रहा है।.."

मै कभी कभी उसके साथ कंचे खेल लेता था..। कुछ दिन वो मुझे नहीं दिखा तो मैने घर के बाहर खड़ी उसकी मां से पूछा __" आंटी जी कहां हैं आंटी जी टिंकू आजकल दिख नहीं रहा ?"

" बेटा वो दिल्ली में एडमिट है ! "

" ओह ! क्या हुआ है उसे आंटी जी ?"

" बेटा अब वो बिस्तर पे ही बाथरूम कर देता है। अब जाकर पता चला उसकी दोनों किडनियां खराब हो चुकी हैं !"

" ओह !..ये अच्छी खबर नहीं। कोन से अस्पताल में है टिंकू ?"

आंटी से अस्पताल का एड्रेस ले लिया और उससे मिलने का मन बना लिया। इतवार की छुट्टी का फायदा उठा मै उससे मिलने दिल्ली चला गया साथ में कुछ कॉमिक्स लेता गया ..लोग फल वगैरह ले जाते हैं मै पता नहीं क्यूं उसके लिए कॉमिक्स ले जा रहा था। उन दिनों कॉमिक्स किराए पे मिला करती थी। मैने भी किराए पे कॉमिक्स ली और पहुंच गया अस्पताल।

टिंकू के वार्ड में पहुंचा तो वो बहुत खुश हो गया उसने चिर परिचित मुस्कान से मेरा स्वागत किया और नमस्ते के बाद उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया..मैने उससे हाथ मिलाया तो पाया..उसके हाथ में ज़िन्दगी की हरारत नहीं थी..उसके हाथ पे पीलापन साफ नजर आ रहा। पूछना मुझे था उल्टा वो ही मुझसे तपाक से पूछ बैठा -" केसे हो भइया ?"

" अबे मैं तो ठीक हूं .. तू कैसे बीमार पड़ गया ?"

" पता नहीं भइया !... पर डॉक्टर कह रहे हैं मै जल्दी अच्छा हो जाऊंगा ..! एक हफ्ते में !"

" बहुत बढ़िया !! तुम जल्दी अच्छे हो जाओ फिर मै तुम्हें फिल्म दिखा कर लाऊंगा !"

" ओके भइया !" उसने बेहद खुश होते हुए कहा।

टिंकू को मारधाड़ की फिल्में बहुत पसंद थी और मिथुन दा का वो बहुत बड़ा फैन था।

मैने उसे कॉमिक्स दी जिन्हें उसने किसी खज़ाने की तरह लपका .." इन्हें पढ़ लो। फिर इन्हें वापिस करके नई कॉमिक्स ले आऊंगा !"

" ठीक है भइया ! "

मै उससे हाथ मिलाकर चल दिया सारे रास्ते मुझे अपने हाथों में उसका हाथ मेहसूस होता रहा। जिस हाथ में ज़िन्दगी की कोई गर्मी नहीं थी। ..

डॉक्टर अपना वादा नहीं निभा पाए ...एक हफ्ते ही जगह अब 2हफ्ते हो गए थे इसी तरह एक महीना गुजर गया। मै कॉमिक्स लेकर जाता और ओर पढ़ी हुई कॉमिक्स वापस ले आता।

इस बार मैं टिंकू के लिए चंदामामा पत्रिका ले गया। उसे दी तो उसे बड़ी खुशी हुई। चलते वक़्त उसने जो बोला उसे सुनकर मेरी पलकें भीग गई।

उसने चलते वक़्त मुझसे कहा --" भइया ! अगर कभी आपको एम्बुलेंस की ज़रूरत पड़े तो बता देना। यहां सब डॉक्टर मेरे दोस्त बन गए हैं !!"

मुझे उसकी बात पर हंसी भी आई और रोना भी। खेर मै उसे चंदामामा पकड़ा कर चला आया।

कुछ दिन बाद उसकी अस्पताल से छुट्टी हो गई।मगर अब वो व्हील चेयर पर आ चुका था और उसने मुझे अपनी व्हील चेयर भी बड़े च हक के दिखाई .." देखो भइया मेरी नई गाड़ी !"

उसे कुछ खो जाने का ग़म कम था उस कुछ पा लेने की खुशी ज़्यादा थी।

उस दिन मैने उसे नई चन्दा मामा लाकर दी और एक महीने बाद आने का कहकर उससे विदा ली। मुझे बाहर जाना था काम से। उसने कहा था _" इतना मैटीरियल काफी है भइया !"

एक महीने बाद मैं वापस लौटा ..उसका दरवाजा खटखटाया ..आंटी जी ने दरवाज़ा खोला और मैने कहा "आंटी जी क्या अभी तक सो रहा है टिंकू ? ये कॉमिक्स उसे देनी थी और पुरानी वापस लेनी थी !"

" अच्छा !.. आओ बेटा अंदर आ जाओ। ..वो तुम्हें ही याद करता रहा। "

मुझे उनकी बात कुछ अजीब लगी। अंदर पहुंचा तो टिंकू के कमरे में उसकी बड़ी सी तस्वीर लगी थी जिस पर माला चढ़ी हुई थी।... उफ्फ !!!.. सारा मामला समझ आ चुका था मुझे .. आंटी ने टेबल पर से चंदामामा उठा के दी ... मैने पत्रिका लेकर खोली तो उसमें एक पन्ना मुड़ा हुआ था ...शायद वो ये पत्रिका पूरी नहीं पढ़ पाया था इसलिए उसने निशानी के तौर पर पन्ना मोड़ कर रखा हुआ था। अचानक से मुझे पत्रिका के अंदर फंसी हुई पेंसिल से लिखी एक स्लिप मिली जिस पर टिंकू ने पेंसिल से लिखा था .." चंदामामा के लिए थैंक्यू भइया !... पर अब मुझसे ये पढ़ी नहीं जा रही। साफ नहीं दिख रहा मुझे अब। और सॉरी ! शायद आपके साथ फिल्म देखने नहीं जा स्कुंगा ! बाय भइया !"

मैं गुमसुम बैठा रह गया। आंटी जी मेरे सामने ही रो पड़ी __" बहुत याद करता था तुझे टिंकू ! कह रहा था भइया तो किताब देकर भूल ही गए। किताब का किराया बढ़ रहा होगा।"

मैने आंटी जी को चुप करवाया। उनसे विदा ली ..मेरी नज़र कमरे में रखी टिंकू की व्हिल चेयर पर पड़ी ...टिंकू को अब उसकी ज़रूरत नहीं थी ..वो इसके बगैर ही जा चुका था ...एक नई डगर ...एक नई राह को ...!


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