तलाक

तलाक

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पुरानी कहावत है कि शादी एक ऐसा लड्‌डू है इसे जो खाता है वह भी पछताता है और जो नहीं खाता है वह भी पछताता है। शादी होने से पहले ही युवक और युवतियों के मन में तरह-तरह के नए-नए ख्‍याल आने लगते हैं। वे मन ही मन भाँति-भाँति के मंसूबे बाँधने लगते हैं। उनके दिल में एक से एक अरमान जागने लगते हैं। कहने का तात्‍पर्य यह कि वे एक अत्‍यंत स्‍वप्‍निल संसार में खो जाते हैं। उनके हृदय में एक-दूसरे से मिलन की चाह सातवें आसमान पर चढ़ जाती है।

ऐसा अक्‍सर हर युवक-युवती के साथ होता है। यही प्राकृतिक नियम है। इस संसार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो एक सुंदर, सभ्‍य और सुघड़ पत्‍नी मिल जाने पर जीवन भर भलीभाँति संतुष्‍ट रहते हैं ऐसे लोग शादी को मीठा लड्‌डू समझते हैं। उनका जीवन सुखमय गुजरता है। वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी है जो सुंदर, सभ्‍य और सुघड़ पत्‍नी न मिलने पर आजीवन दुःखी रहते हैं। ऐसे लोग शादी को एक कड़वा और बहुत ही तीखा लड्‌डू मान लेते हैं। ऐसे लोगों का दामपत्‍य जीवन हमेशा दुःखमय ही व्‍यतीत होता है।

गृहस्‍थी की गाड़ी सुचारु रुप से चलाने के लिए विवाह के बाद पति-पत्‍नी के विचारों में तालमेल होना नितांत जरूरी है वरना बसा-बसाया घर उजड़ते देर नहीं लगती है। पति-पत्‍नी अलग-अलग घर और परिवेश में पले-बढ़े होते हैं इसलिए उन्‍हे एक-दूसरे के विचारों को अच्‍छी तरह समझकर तालमेल रखना निहायत जरूरी है। इसके अलावा घर-परिवार में कुछ ऐसी बातें भी होती हैं जिसके लिए दोनों को ही आपस में समझौता करना आवश्‍यक है।

अगर पति-पत्‍नी दोनों की बुद्धिमान, संयमी, धैर्यवान और समझदार होते हैं तो उनमें वैचारिक टकराव की संभावना कम होती है लेकिन दोनों में से यदि एक भी कम बुद्धि का असंयमी, धैर्यविहीन और नासमझ होता है तो वहाँ गृह-क्‍लेश होता रहता है। पति-पत्‍नी आपस में हमेशा लड़ते-झगड़ते रहते हैं। ऐसा विवाह दोनों के लिए एक बड़ा बोझ बनकर रह जाता है। वे एक-दूसरे को अपना सहयोगी नहीं वरन दुश्मन समझने लगते हैं। उनमें आए दिन महाभारत मची रहती है और वह घर, घर नहीं बल्‍कि साक्षात घूरा बन जाता है।

इसका नतीजा यह होता हैं कुछ दिन आपस में खींचतान करते-करते उनके संबंधों की डोर कमजोर होकर टूट जाती है और अलग होने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसी स्‍थिति आने पर उन्‍हें एक-दूसरे से संबंध विच्‍छेद करके तलाक लेना पड़ता है। नाहक ही एक-दूसरे पर छींटाकसी करनी पड़ती है। आपस में नुक्‍ताचीनी और बुराई करने का अवसर मिल जाता है। परस्‍पर आरोप-प्रत्‍यारोप का दौर शुरु हो जाता है।

यह स्‍थिति समाज के लिए किसी भी तरह ठीक नहीं है। पति-पत्‍नी को हर हाल में इससे बचना चाहिए। इसी में उनका और समाज का हित है। एक तो किसी से स्‍वार्थवश किसी प्रकार का संबंध बनाना नहीं चाहिए और यदि किसी भी तरह से बना लिया तो उसे तोड़ना नहीं चाहिए। संबंध बनाकर तोड़ना सबसे बड़ा निकृष्‍ट कार्य है। मनुष्‍य को हर हाल में इससे बचना चाहिए।

मुट्‌ठीगंज, इलाहाबाद के जानेमाने व्‍यवसायी राम गोपाल के पास संतान के नाम पर मात्र एक पुत्र मुकेश और एक पुत्री अलका ही थी। उन्‍होने अपने दोनों बच्‍चों को शिक्षा-दीक्षा दिलाकर काबिल बनाया। पढ़ाई पूरी करने के बाद अध्‍यापन का प्रशिक्षण लेकर अलका एक स्‍कूल में अध्‍यापिका बन गई और उसका भाई मुकेश जो उम्र में उससे कुछ छोटा था वह डॉक्‍टर बनकर समाज की सेवा करने लगा। अपने बच्‍चों की कामयाबी से बाबू रामगोपाल पति-पत्‍नी बहुत प्रसन्‍न थे।

बाबू रामगोपाल ने अपनी अध्‍यापिका बेटी अलका की शादी नौ फरवरी को गंगोत्री नगर, नैनी के बाबू जयदेव के इकलौते पुत्र रविन्‍द्र के साथ बड़े धूमधाम से की। जयदेव बाबू का इकलौता बेटा सच में एक अलग किस्‍म का ही इंसान था। वह अन्‍य लोगों से बिल्‍कुल अलग किसी दूसरी दुनिया का युवक था उसकी बारात खूब सज-धजकर बाजे-गाजे के साथ राम गोपाल के दरवाज़े पर आई और अलका तथा रविन्‍द्र का विवाह हो गया। कन्‍या पक्ष ने वरपक्ष का खूब स्‍वागत किया। बारातियों ने जी भर खूब दावत उड़ाई। विवाह के अगले दिन दस फरवरी को बारात दुल्‍हन को लेकर गंगोत्री नगर रविन्‍द्र के घर वापस पहुँच गई। सजी-सँवरी नई नवेली दुल्‍हन अलका अपने अनेक अरमानों के साथ अपनी ससुराल पहुँची।

वहाँ मोहल्‍ले की स्‍त्रियों तथा घर की औरतों ने उसका बहुत सत्‍कार किया। अलका शिक्षित तो थी ही, वह बहुत सुंदर और गृहकार्य में कुशल भी थी। उसका गोरा बदन, सुराहीदार गर्दन और हिरनी जैसी बड़ी-बड़ी आँखें मन मोह लेती थीं। दुल्‍हन के रुप में सजी-सँवरी अलका सच में बहुत सुंदर लग रही थी। वह नख से शिख तक सजी हुई थी। उसकी मधुर आवाज़ का कोई जवाब ही न था। वह देखने में बिल्‍कुल अप्‍सरा सी लगती थी। उसकी सुंदरता देखकर आस-पड़ोस की औरतें हक्‍की-बक्‍की रह गईं।

अन्‍य युवतियों की तरह अलका के मन में भी बहुत से अरमान थे। वहाँ ससुराल जाने से पहले वह सोचती थी कि मेरे पतिदेव ऐसे होंगे, वैसे होंगे। मेरी ससुराल में मेरे ससुर जी ऐसे होंगे और मेरी सासु जी ऐसी होंगी। मेरे पति ऐसा करेंगे और वैसा करेंगे। जब वह पहली बार मेरे अंगों को स्‍पर्श करेंगे तो ऐसा होगा, वैसा होगा। उनके छूने पर मैं ऐसा करुँगी और वैसा करुँगी। मैं ऐसा कतई न करुँगी।

अंततः धीरे-धीरे दिन ढल गया और शाम हो गई। रात होने पर भोजनोपरांत दूल्‍हा-दुल्‍हन का मिलन हुआ। बातों ही बातों में सारी रात गुज़र गई। आहिस्‍ता-आहिस्‍ता सुबह भी हो गई किन्‍तु दुर्भाग्‍य यह कि पति-पत्‍नी एक-दूसरे के करीब न आ सके। फूलों से सजी सेज सजी की सजी ही रह गई। स्‍वभाव से स्‍त्री संकोची और शर्मीली होती ही है और यही उसका आभूषण भी है।

फिर अलका तो एक नई-नवेली दुल्‍हन थी। वह इतनी जल्‍दी लाज का घूँघट भला कैसे खोल सकती थी। जैसा कि अक्‍सर हर दुल्‍हन यही सोचती है कि मेरा पति ही मेरा घूँघट हटाए क्‍योंकि पतिदेव के घूँघट हटाने का आनंद ही कुछ और होता है इसलिए अलका ने भी सोचा कि रविन्‍द्र ही उसका घूँघट खोलेगा पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

रविन्‍द्र ने अलका का घूँघट नहीं खोला। वह उससे सारी रात इधर-उधर की बेमतलब की बातें करता रहा लेकिन आपस की एक भी बात न की। यहाँ तक कि उसने अलका के किसी अंग-प्रत्‍यंग का स्‍पर्श तक भी न किया। समाज ने उसे जो बड़ा ही महत्‍वपूर्ण अधिकार दिया था वह उसे बिल्‍कुल भूल गया। उसने उसका तनिक भी इस्‍तेमाल नहीं किया।

रविन्‍द्र उससे एकदम विमुख ही रहा। वह उसकी ओर बाल बराबर भी आकर्षित न हुआ। मानो उसका सारा जोश मर चुका था। उसने अपना दायित्‍व निभाना जायज़ न समझा। लगता है अलका से मिलकर उसे कोई प्रसन्‍नता न हुई। उसके दिल में कोई हलचल न हुई। वह लेशमात्र भी रोमांचित न हुआ। मानो वह कोई जीवित प्राणी नहीं बल्‍कि एक मुर्दा हो। वह एक निर्जीव लाश की तरह उसके पास पड़ा रहा और इधर-उधर की हाँकता रहा।

अलका एक पढ़ी-लिखी शिक्षित युवती थी। वह एक शिक्षिका थी। उस समय अलका ने बस यही सोचा-हो सकता है मेरे पतिदेव भी संकोची स्‍वभाव के हो, अतएव कोई बात नहीं। उन्‍होने आज मुझे स्‍पर्श नहीं किया तो क्‍या हुआ। आज अपने और मेरे बारे में कोई बात नहीं किए तो न सही। अभी न सही, मगर दो-चार रोज़ बाद उनका सारा संकोच खत्‍म तो हो ही जाएगा। तब हम दोनों बे झिझक एक-दूसरे के निकट आ जाएँगे। जो काम धीरे-धीरे और कुछ देर से होता है वह टिकाऊ होता है। जल्‍दी का काम शैतान का होता है। जब मैं इस घर में आ ही चुकी हूँ तो जल्‍दी करने की क्‍या जरूरत है। कोई कहीं जा थोड़े ही रहा है।

अलका ने यह भी सोचा-मेरा पति निहायत ही संकोची और धैर्यवान है। इस पर मुझे गर्व महसूस होना चाहिए। वह न तो जल्‍दबाज है और न ही जल्‍दबाजी करने वाला है यह सोचकर एक ओर अलका को गर्व महसूस हो रहा था तो दूसरी ओर अपने अत्‍यंत निकट होने भी उसे अपने से कोसों दूर देखकर असहनीय मर्मांतक पीड़ा भी हो रही थी। रविन्‍द्र ने अपनी नई-नवेली पत्‍नी के साथ ऐसा कुछ भी न किया जो एक पुरुष अपनी नवविवाहिता पत्‍नी के संग अक्‍सर करता है। अलका की उस वेदना का अंदाजा लगाना बहुत ही कठिन है।

तदंतर सबेरा होते ही बातों ही बातों में अलका की देवरानियों और जेठानियों को मज़ाक-मज़ाक में ही पता चल गया कि उसकी काली रात रंगीन होने के बजाए काली की काली ही रह गई। रविन्‍द्र तो किसी काम का नहीं है। मुझे स्‍पर्श करना तो दूर उसने मेरे बारे में कोई बात तक भी न की। अलका ने हास-परिहास के बीच ही उन्‍हे खुल्‍लम-खुल्‍ला बता दिया कि उसके मरदूद पति ने अभी तक उसे छूआ तक नहीं। इसके चलते अपने सभी अरमानों का गला घोंटकर वह सारी रात करवटें ही बदलती रही।

इस तरह दो-चार दिन और गुज़र गए। फिर पखवाड़ा और महीना भी गुजर गया। तब भी दो डाल के पंछी अलग-अलग डाल पर ही बैठे रहे और वे एक डाल पर न आ सके। एक ही पेड़ पर होते हुए भी वे एक-दूसरे से बिल्‍कुल अनजान पड़े थे। उनमें जान-पहचान न हो सकी। वे आपस में बिल्‍कुल अनभिज्ञ ही बने रहे। किसी ने भी दूसरे के करीब जाने की कोशिश न की। वे दूर के दूर ही रह गए। पति-पत्‍नी एक नदी के दो किनारे बनकर रह गए जिनके मिलने की दूर-दूर तक भी कोई किरण दिखाई नहीं दे रही थी।

कितना विचित्र है कि एक के पास दूसरे के निकट जाने की सामर्थ्‍य न थी और दूसरे के पास लाज का पर्दा था। उसे हटाने में उसकी मर्यादा का सवाल आड़े आ रहा था। इसी उहापोह में न उनके मन ही आपस में मिले सके और न तन ही मिलकर एक हो सके। यह देखकर अलका के मन में तरह-तरह के विचार पैदा होने लगे। उसकी उलझनें बढ़ने लगी। वह उधर जाऊँ या उधर जाऊँ की हालत में फँस कर रह गई। उसका माथा ठनकने लगा। वह समझ ही न पा रही थी कि अब मैं क्‍या करुँ? विवाह के एक महीने बाद अलका के भाई और पिता गंगोत्री नगर रविन्‍द्र के घर गए और दूसरे दिन अलका को विदा कराकर अपने घर वापस ले गए।

इस तरह अलका जब अपने मायके वापस गई तो वहाँ भी सहेलियों ने बातों ही बातों में उससे यह राज आखिर उगलवा ही लिया। अलका ने बड़े भारी मन से उन्‍हे सारी आप बीती सुना दिया। इस तरह अलका की सहेलियों को भी पता चल गया कि अलका का पति कितना पुरुषार्थी और ब्रह्‌मचारी है? वे आपस में कहने लगीं-जब वह अप्‍सरा जैसी अपनी बीवी का ही स्‍पर्श नहीं करता तो किसी दूसरी स्‍त्री के बारे में कहना ही क्‍या? अलका की बातें सुनकर उसकी सखियों ने उसका और रविन्‍द्र का खूब उपहास उड़ाया। उन्‍होने उससे यहाँ तक कह दिया कि काश सबको ऐसा ही पुरुष मिले।

अलका को अपने मायके में परिवार के साथ कुछ दिन बिताने के बाद रविन्‍द्र अपनी ससुराल गया और अलका को विदा कराकर फिर अपने घर ले आया। अलका के मन में एक बार पुनः नए-नए अरमान जाग उठे। उसके सपने पुनः साकार होते नजर आने लगे। अलका के निराश मन में एक बार फिर आशा की किरण दिखाई देने लगी। अलका सोचने लगी-मेरे मन की मुराद उस समय पूरी न हुई कोई बात नहीं। वह कुछ देर से ही सही, अब पूरी हो जाएगी। इस प्रकार अलका एक बार फिर हँसी-खुशी अपनी ससुराल गई। दरअसल उस बेचारी को यह बिल्‍कुल भी पता न था कि मेरा पति सचमुच इस दुनिया का नहीं बल्‍कि चाँद की दुनिया का रहने वाला है।

अलका ने सोचा-पतिदेव का जो दुलार और प्‍यार पहले नहीं मिला वह अब मुझे अवश्‍य मिलेगा। आख़िरकार मेरा पति भी तो एक मनुष्‍य ही है कोई देव नहीं। मानवीय कमजोरियाँ इसमें भी होंगी। यह भी इसी समाज का अंग है, किसी चाँद की दुनिया का नहीं। यह कोई पत्‍थर का थोड़े ही बना है। मेरे हिस्‍से का जो प्‍यार-स्‍नेह मुझे मिलना है उसे भला कोई कैसे रोक सकता है। वह एक न एक दिन मुझे ज़रूर मिलेगा। घबराकर अपना धैर्य खो देना नादानी है। साहसविहीन होना अक्‍लमंदी नहीं है।

समयचक्र तीव्रगति से चलता रहा। दिन निकलता-ढलता रहा और शाम होती रही। शाम होने के बाद रात्रि भी आती-जाती रही। आजकल का इंतजार करते-करते एक महीना फिर बीत गया। अलका प्रतिदिन श्रृंगार करके बनती-सँवरती रही। अगर कोई स्‍त्री चाहे तो वह किसी देवता को भी पलक झपकते ही उसके धर्म से डिगा सकती है लेकिन किसी मुर्दे में जान डालना किसी ललना के वश की बात नहीं है। अलका भी तरह-तरह से सज-धजकर रविन्‍द्र को रिझाने की जी तोड़ प्रयास करती मगर उसका पति रविन्‍द्र इतना घाघ था कि वह हरगिज पिघलने वाला न था। वह तनिक भी न बदला। मानो उसने अलका से एकदम दूर रहने की कसम खा ली थी। इस तरह न तो रविन्‍द्र ही अलका को कुछ समझ सका और न तो अलका ही उसे समझ पाई।

बल्‍कि यूँ भी समझ सकते हैं कि पति और पुरुष नाम पर वह एक बड़ा धब्‍बा था लेकिन उसे इस बात का तनिक भी ज्ञान न था। उसके अंदर लेशमात्र भी किसी प्रकार का जोश न था। वह बिल्‍कुल निरुत्‍साही और कमजोर व्‍यक्‍ति था। उसे एकदम उत्‍साहविहीन और विमुख देखकर अलका के धैर्य ने एकदम जवाब दे दिया। सहनशीलता की हद पार होते ही वह बिल्‍कुल अधीर हो उठी। धैर्यशील व्‍यक्‍ति का धैर्य समाप्‍त होने पर वह कुछ भी कर सकता हैं। इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है।

रविन्‍द्र की उदासीनता और निरुत्‍साह देखकर अलका समझ गई कि यह सचमुच किसी और दुनिया है। अब इस मरदूद के साथ मेरा गुजर-बसर होना बहुत ही मुश्‍किल है। यदि यह पुरुषत्‍वहीन है तो इसे विवाह करने की क्‍या जरूरत थी। किसी लड़की का जीवन बर्बाद करना भला कहाँ की इंसानियत है।

अंत में साहस खत्‍म होते ही अलका ने अपने ससुर और सासु से रवीन्‍द्र पर खुलेआम नामर्द होने का इल्‍जाम लगाते हुए उसके साथ रहने से साफ इंकार कर दिया। यह सुनते ही वे हक्‍का-बक्‍का रह गए। पलक झपकते ही वे आश्‍चर्य में पड़ गए क्‍योंकि अब तक उन्हें यही मालूम था कि बेटे और वधू के बीच सब कुछ बिल्‍कुल ठीक चल रहा है। दो महीने बाद जब उन्हें अचानक यह सुनने को मिला कि उनका बेटा एक पुरुष बनने के लायक नहीं है और उसमें पुरुष का कोई गुण नहीं है तो उन्‍हें अपार कष्‍ट हुआ। उन्‍हें अलका की बात पर तनिक भी यकीन न आ रहा थी कि वह सच बोल रही है।

यह सुनकर रवीन्‍द्र ने उल्‍टा चोर कोतवाल को डाँटे, उल्‍टे उस पर ही आरोप मढ़ दिया कि अलका किसी पुरुष की पत्‍नी बनने लायक ही नही है। ऐसे में यह भला हमारे साथ कैसे रह सकती है। झूठी बात सुनकर मन में कष्‍ट होता ही है साथ ही क्रोध भी आता है। झूठ सुनकर सहन करना एक सत्‍यवादी और ईमानदार व्‍यक्‍ति के लिए अत्‍यंत कठिन हो जाता है। सुनने वाला कभी-कभी मरने-मारने को उतारु हो जाता है। रविन्‍द्र का प्रत्‍यारोप सुनकर अलका आग बबूला हो उठी। उसके सब्र का सारा बाँध टूटकर बिखर गया।

फलस्‍वरुप यह बात उसके पीहर तक उसके मां-बाप के पास भी पहुँच गई। यह सुनकर उन्‍हें भी बड़ा दुःख हुआ। उनकी हालत ऐसी हो गई मानो उन पर पहाड़ टूट पड़ा। उनकी सारी ख़ुशियाँ फुर्र हो गईं। उनके मुँह से आह निकल गई। वे पछाड़ खाकर गिर पड़े। अलका के पिता राम गोपाल अपने कुछ मित्र और रिश्‍तेदारों को लेकर रविन्‍द्र के घर अलका के पास पहुँच गए।

वहाँ जाने पर दोनों पक्षों में बहुत वाद-विवाद हुआ। रविन्‍द्र और उसके मां-बाप सामाजिक हँसी के भय से अलका की बात को झुठलाने पर तुले हुए थे। वे बार-बार यही यकीन दिलाने का यत्‍न करते रहे कि अलका की बात में कोई दम नहीं है। वह जानबूझकर झूठ बोल रही है। ऐसा कुछ भी नहीं है जैसा अलका इल्‍जाम लगा रही है। शायद अलका रविन्‍द्र को पसंद नहीं करती है और इसके मन मंदिर में कोई और बसा हुआ है इसलिए यह बेसिर-पैर का इल्‍जाम लगा रही है। यह इसकी सोची-समझी मनगढ़ंत बात है। आपसी तर्क-वितर्क से विवाद इतना बढ़ गया कि यह मामला पूरे मोहल्‍ले में फैल गया। उनकी कहासुनी बढ़ती चली गई।

अंततः दो महीने बाद ही 12 अप्रैल को काफी लड़ाई-झगड़े के बाद अलका अपने रिश्‍तेदारों के साथ दोबारा अपने मायके चली गई। तब कुछ दिन बाद दोनों पक्षों में इस मामले को निपटाने के लिए आपस में पंचायत भी हुई। पंचायत में पंचों ने यह फैसला किया कि पति-पत्‍नी दोनों का मेडिकल परीक्षण कराया जाए। जब पति-पत्‍नी आपस में एक-दूसरे पर यह आरोप लगा रहे हों कि वह किसी का पति अथवा पत्‍नी बनने के लायक ही नहीं है और वह एकदम अक्षम है तो यह साफ हो जाना चाहिए कि पति-पत्‍नी में से किसमे क्‍या कमी है।

पंचों ने कहा कि सच्‍चाई का पता लगे बगैर यह फैसला लेना कतई जायज़ नहीं है कि पति-पत्‍नी दोनों एक-दूसरे से अलग हो जाएँ। तब शहर के अस्‍पताल में दोनों का मेडिकल चेक अप हुआ। डाक्‍टरी जाँच के बाद रविन्‍द्र की सारी कमी खुलकर सामने आ गई। वह सचमुच एक पुरुषार्थहीन आदमी था। उसके अंदर कोई पुरुषार्थ न था। वह अंदर से बिल्‍कुल खोखला ही साबित हुआ।

इससे उसकी बड़ी जग हँसाई हुई लेकिन अब कोई भी एक-दूसरे के साथ रहने को तैयार न था। अलका भी एक स्‍त्री ही थी कोई पशु नहीं कि उसे जिस खूँटे से बाँध दिया जाए वह जैसे-तैसे वहीं पड़ी रहे। एक ओर यदि सामाजिक बंधन था तो दूसरी ओर उसका पूरा जीवन था जिसे जानबूझकर बर्बाद करना उचित न था। रविन्‍द्र जैसे बेजान को त्‍यागकर उसने बहुत अच्‍छा किया वरना उसका सारा जीवन जीते जी सचमुच नरक बन जाता। समाज में जब किसी की पुत्री के साथ ससुराल पक्ष की ओर से कोई अन्‍याय होता है तो उसे बर्दाश्‍त करना मुश्‍किल हो जाता है। कन्‍यापक्ष बदले की भावना में जलने लगता है। उसके हृदय में प्रतिशोध की ज्‍वाला जलने लगती है। वह वरपक्ष से बदला लेने के लिए वह महिला उत्‍पीड़न और दहेज़ विरोधी कानून का सहारा लेकर उसे सबक सिखाने को व्‍याकुल हो जाता है। वह कानून को अपना सबसे बड़ा हथियार मान लेता है। हालांकि क्रोधावेश में विवेक से काम न लेकर वरपक्ष के खिलाफ ऐसा अनाप-शनाप कदम उठाना सरासर गलत है। हमेशा सच्‍चाई को सामने लाने का प्रयास करना चाहिए।

अलका का दुःख जब उसके माता-पिता से सहन न हुआ तो उन्‍होंने भी अदालत में जाकर फरियाद की कि दहेज़ में कार न देने पर मेरी बेटी अलका के ससुराल वालों ने उसे घर से निकाल दिया। रविन्‍द्र का परिवार विवाह के पहले से ही दहेज़ में कार की मांग कर रहा था जिसके न देने पर उन्‍होंने अलका को घर से बेघर कर दिया परंतु सुनवाई के दौरान अदालत में जब अलका का बयान हुआ तो तनिक देर में ही सारी सच्‍चाई खुलकर सामने आ गई। उसका कथन सुनते ही अदालत ने उनकी फरियाद को अदालत ने नहीं सुनी और बिल्‍कुल अनसुनी कर दी।

अंततोगत्‍वा दहेज का झूठा मुकदमा खारिज कर दिया गया। इससे रविन्‍द्र और उसका परिवार तो बच गया लेकिन अलका जैसी पुत्रवधू को खोकर उन्‍हें बड़ा पछतावा भी हुआ। अपने पुत्र रविन्‍द्र की कमजोरियों से उसके मां-बाप को असहनीय कष्‍ट हुआ। वे छटपटाकर रह गए। इसे ही कहते हैं अब पछताए होत क्‍या जब चिडि़याँ चुंग गई खेत।


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