तेरा शहर
तेरा शहर


रात का अंधेरा था, ट्रेन का सफर था स्लीपर क्लास थी, शांति का मंजर था मुझे बहुत लंबा सफर तय करना था। सच कहूँ तो मुझे मुम्बई जाना था। इस लंबे सफर में मैं अकेला ही था। मेरे मन मे कुछ भी विचार आ रहे थे। अंधेरा बढ़ता जा रहा था और साथ में मेरे दिल की घबराहट भी बढ़ रही थी क्योंकि उनका शहर नज़दीक आ रहा था जो कि इस सफर में रास्ते में ही था कहीं। मैं इस दिशा में पहली बार सफर कर रहा था। अब मेरे मन में लाखों विचार उमड़ रहे थे। शायद कहीं वो पागल नजर आ जाये मुझ को। शायद मैं उनसे इस बार मिल पाऊँ। क्या मैं यहां उतर कर उनका शहर घूम लूँ ? क्या मैं उनसे मिलने उनके घर चला जाऊँ ? और भी बहुत से सवाल थे मन में मेरे। और फिर यूँ ही सोचते सोचते उनका शहर आ गया।
अब सोचने का मेरे पास वक़्त नहीं था। ट्रेन स्टेशन पर रुक चुकी थी। सिर्फ चंद मिनट के लिए ही रुकनी थी ट्रेन यहां पर। मैं भी बाकी यात्रियों के साथ ट्रेन से बाहर उतर गया। एक अंगड़ाई ली और फिर नजर इधर उधर घुमाने लगा। मुझे पता था कि वो इतनी रात को नहीं दिखेगी। मगर दिल को फिर भी एक उम्मीद थी, एक आस थी कि शायद वो दिख जाए, जरा सी कोशिश तो कर। मैंने इन चंद मिनटों में हर तरफ निगाह मारी। पूरा प्लेटफार्म भी देखा। टिकट खिड़की की ओर भी निहारा। एक मन था कि मैं यहीं बैठ जाऊँ किसी कुर्सी पर। इतने में ही ट्रेन ने हॉर्न बजा दिया। मैं थोड़ा हड़बड़ा सा गया। मैं जल्दी से अपने डिब्बे की ओर दौड़ा और फिर अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। मैंने राहत की सांस ली और खिड़की से ही उनके शहर को अलविदा कह दिया। अब फिर से मन मे सवालों का सिलसिला उमड़ उठा था। काश मैं ऐसा कर लेता। काश मैं वैसा कर लेता। काश मैं उधर देख लेता। काश मैं वहीं पर रुक जाता या फिर काश मैं उन्हें फोन मिला लेता। सब कुछ काश में ही तो रह गया था अब। अब उनका शहर जा चुका था और मेरे पास काश के सिवाय कुछ न था। और इस तरह मेरी उनसे एक आखिरी बार मिलने की, उन्हें देखने की ख़्वाहिश अधूरी रह गयी।