Sudha Adesh

Drama

0.2  

Sudha Adesh

Drama

स्वप्न विला

स्वप्न विला

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बहुत दिनों से चाहत थी अपने अदद घर की, पर घर बनवाना इतना आसान नहीं था जितना विशाखा ने सोचा था। विजय से मन की बात कही तो उसने कहा…


        ‘घर... अभी नहीं... अभी कुछ दिन पूर्व गाड़ी खरीदी है, बच्चों की पढ़ाई का खर्चा है। अब अगर घर बनवाने के लिये लोन लेंगे तो घर का सारा बजट ही गड़बड़ा जायेगा। तुम्हारा और बच्चों का क्या जब तब अपनी परेशानियों का रोना रोने लगोगे तब मैं अदना सा आदमी क्या कर पाऊँगा?’


        ‘जब तक मकान नहीं बन जाता तब तक ही परेशानी होगी पर अपने घर में शिफ्ट होते ही किराये का पैसा बचेगा उससे हम लोन चुकाते जायेंगे...।’ विशाखा ने विजय को विश्वास दिलवाते हुये कहा था।


        ‘तुम सोचती हो किराये के पैसे से लोन चुक जायेगा...?’


        ‘लोन चुकाने का समय ज्यादा ले लेना, तब किश्तें अवश्य बढ़ जायेंगी पर किश्तें चुकाने की रकम कम हो जायेगी।’


        ‘वह तो ठीक है पर टाइम फ्रेम बढ़ने से ब्याज ज्यादा देना पड़ेगा...।’


        ‘कुछ ज्यादा खर्च करके एक और मंजिल बना लेंगे। किराये का पैसा आयेगा उससे मैनेज कर लेंगे। फिर समय के साथ तुम्हारा वेतन भी तो बढ़ेगा...।’


        ‘तुम्हारे पास तो हर समस्या का समाधान है पर इतना याद रखना सिद्धान्त और व्यवहार में जमीन आसमान का अंतर होता है, बाद में अगर परेशानी हो तो मुझसे मत कहना।’ विजय ने झुंझलाते हुए कहा।


        ‘पापा मान जाइये ना, हम अपने अनावश्यक खर्चो में कमी कर देगें।’ शिल्पा और विराम ने विजय पर दबाव डालते हुए कहा।


    अब कोई उपाय ही नहीं था, विजय ने आखिर लोन के लिये आवेदन दे दिया। प्लाट वह पहले ही ले चुके थे। नक्शा भी पास हो चुका था। महीने भर में ही लोन पास हो गया। इस बीच कई आर्किटेक्ट से बातें की पर उनके रेट देखकर लगा कि कांट्रैक्ट देने में तो बहुत पैसा लग जायेगा। अपने कई इष्ट मित्रों से मिलने के पश्चात् आखिर विशाखा अपनी मित्र सीमा के पास गयी जिसने कुछ दिन पहले ही घर बनवाया था। उसने बताया कि उसने बिना किसी आर्कीटेक्ट के घर बनवाया है। अपनी सहायता के लिये बस एक सुपरवाइजर किशोर रखा था जो सब सामान के प्रबंध के साथ, काम की गुणवत्ता पर भी पर भी ध्यान रखता था। यहाँ तक कि वह मजदूरों का प्रबंध करने के साथ उन पर नियंत्रण भी रखता था।


        ‘अगर वह मेरे घर की जिम्मेदारी भी संभाल ले तो अच्छा होगा।’


        ‘ठीक है बात करके देखती हूँ...।’


    सीमा ने उसी समय किशोर का नम्बर मिलाया, बात करने पर किशोर ने कहा, ‘अभी तो मैं व्यस्त हूँ पर एक महीने पश्चात् मेरा यह प्रोजेक्ट पूरा हो जायेगा तब मैं यह जिम्मेदारी संभाल सकता हूँ।’


        ‘नो प्राब्लम... अगर आदमी अच्छा और ईमानदार है तो इतना तो रूक ही सकते हैं।’ सीमा की बात सुनकर विशाखा ने उत्तर दिया।


    आखिर सीमा की मध्यस्तता में किशोर से सारी बातें तय कर ली गई तथा नियत तिथि पर काम भी प्रारंभ हो गया। ईट, गारे, सीमेंट के अतिरिक्त मजदूरों को लाने का प्रबंध वही करता था। विजय के आफिस और बच्चों के स्कूल जाने के पश्चात् वह साइट पर चली जाती लगभग पाँच, छह घंटे अपनी निगरानी में काम करवाने के पश्चात् घर लौटती तो थकान के बावजूद भी उसका तन-मन खुशियों से ओत-प्रोत रहता। शायद अपने स्वप्न को आकार लेते देखकर उसकी सारी थकान दूर हो जाती थी।


    उसे यह देखकर आश्चर्य होता कि दिहाड़ी पर काम करने के बावजूद सभी मजदूर सदा खुश रहते तथा एक-दूसरे की मदद करने को सदा तत्पर दिखते। एक बार एक मजदूर रामू के सात वर्षीय बच्चे को वाइरल फीवर हो गया था, उसकी पत्नी नहीं थी वही बच्चे को पिता के साथ माँ की जिम्मेदारी भी निभा रहा था। उस समय जितने दिन वह नहीं आया उसके बच्चे की दवा का पूरा खर्चा उन सभी मजदूरों ने आपस में मिलकर उठाया, क्योंकि उनका मानना था कि उसके काम पर न आ पाने से उसकी आय रूक गई है। सीमित बचत में उसे डाक्टर की फीस के अतिरिक्त घर खर्च भी चलाना है। आज की स्वार्थी दुनिया में उनका आपसी भाईचारा तथा प्रेमभाव उसके लिये अनूठा था।


    सबसे अधिक आश्चर्य तो विशाखा को सात महीने की पेट से औरत बसंती को देखकर हुआ जो इस अवस्था में भी सिर पर नौ ईटें रखकर उतनी ही कुशलता से काम कर रही थी जितने कि अन्य मजदूर...। उसके एक पाँच वर्ष का बच्चा भी था जो एक पेड़ के नीचे बैठा बालू, मिट्टी से खेलता रहता या चुपचाप बैठा अपनी माँ को काम करते देखता रहता था। उसे कभी जिद करते या किसी बात पर मचलते नहीं देखा था। जबकि उनके उससे भी बड़े बच्चे जब तब अपनी बात मनवाने के लिये जिद पर ऐसे अड़ जाते है कि जब तक उनकी बात न मान लें। यहाँ तक कि खाना-पीना भी नहीं खाने की धमकी देकर उन्हें ब्लेकमेल करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। शायद उनकी अतिशय देखभाल उन्हें जिद्दी एवं आत्मकेंद्रित बनाती जाती है जिसके कारण उन्हें अपने अतिरिक्त अन्य किसी की परवाह नहीं होती।


    बसंती को ऐसी अवस्था में काम पर लगे देख विशाखा ने उसे मना किया तो उसने कहा, ‘मेमसाहब, हम गरीब मजदूर, काम नहीं करेंगे तो क्या स्वयं खायेंगे क्या इस बच्चे को खिलायेंगे? हमें कुछ नहीं होगा बाद में तो एक महीने की छुट्टी लेनी ही है। आज का कमाया पैसा उस समय काम आयेगा... अकेले एक के कमाने से घर नहीं चलता।’ 


    बसंती का पति कमल भी राजगीर के रूप में काम कर रहा था। सच इनकी जिजीविषा देखने लायक थी। ये सब नींव के ऐसे पत्थर है जिनके श्रमबिंदुओं से न जाने कितनी ही इमारतों का निर्माण हुआ किंतु फिर भी ये स्वयं टूटी-फूटी झोंपड़ी में रहने को विवश है।


    एक दिन उनके कार्य का निरीक्षण कर रही थी कि एक मजदूर ने उसे चाय का गिलास पकड़ाया उसके मना करने पर किशोर बोला, ‘ले लीजिए मेमसाहब, हम सब पैसे इकट्ठा करके इस समय पास के ढाबे से चाय मँगवाते है।’


        ‘कितने की एक चाय है?’


        ‘दस रूपये की...।’ पास खड़े मिस्त्री श्याम ने उत्तर दिया।


        ‘कल से चाय मेरी तरफ से... जितने की चाय आये, उतना पैसा मुझसे ले लिया करना...।’ विशाखा ने किशोर की ओर देखते हुए कहा।


    विशाखा की बात सुनकर वे सभी खुश हो गये। उसे लगा आज तक उसने कोई पुण्य कार्य नहीं किया, कम से कम इन गरीब मजदूरों को चाय पिलाकर ही कुछ पुण्य कमा ले। वैसे भी मालिक का काम नौकर से सिर्फ काम लेना ही नहीं है वरन् उसके मन को भी संतुष्ट रखना है, जिससे वह मालिक के साथ तारतम्य स्थापित कर पाये।


    नौकरानी लीला को चाय देते देखकर एक बार उसकी सासूमाँ ने उससे कहा था कि नौकरों से थोड़ी दूरी बनाकर रखनी चाहिये। जहाँ तक चाय का प्रश्न है उन्हें चाय पिलाकर उसका आदि नहीं बनाना चाहिये। पर उसका मानना था कि एक छोटी सी चाय की प्याली से हम इनके दिल में जगह बना लेते है...। यही कारण था कि लीला उसके घर बहुत सा ऐसा काम भी कर देती थी जो वह दूसरों के घर नहीं करती थी।  


    जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था विशाखा को ऐसा महसूस होने लगा था कि घर बनाना इतना आसान नहीं है जितना उसने सोचा था...। दीवारें खड़ी करना आसान है पर पानी और बिजली की लाइनें खींचने के अतिरिक्त कारपेंटर और टाइल्स लगवाने का काम बेहद ही कठिन है। दीवारें खिंचने के साथ ही बिजली और पानी के पाइप डालने थे अतः इलेक्ट्रिशियन और प्लम्बर को फिक्स किया गया। कारपेंटर को भी बुलाया गया क्योंकि दीवारों के साथ खिड़की और दरवाजों की चौखट लगानी थी। मिस्त्री के काम के साथ यह सब काम भी प्रारंभ हुये। कुछ दिन तो सब ठीक चलता रहा पर फिर कभी कारपेंटर गायब हो जाता तो कभी इलेक्ट्रिशियन, कभी मिस्त्री तो कभी मजदूर ही नहीं आते...। वह फोन करती तो कभी स्विच आफ रहता तो कभी अनरीचेबिल, कभी घंटी जाती तो कभी उठता कभी नहीं। कभी उठता भी तो कभी वे बीमारी का बहाना बनाते तो कभी कहते बस अभी आ रहे है। कई-कई दिन बीत जाते, कोई आने का नाम ही नहीं लेता था। उनकी मनमर्जी के कारण काम तो रूक ही रहा था साथ में परेशानी भी हो रही थी। पैसा भी पानी की तरह बह रहा था...।


    विजय को अपनी परेशानी बताई तो उन्होंने सीधी सपाट आवाज में कहा, ‘तुम्हें ही बंगले की चाह थी । इतने रूपयों में एक अदद फ्लैट भी आ जाता और मजदूरों से इस तरह जूझना भी नहीं पड़ता। तुमने काम प्रारंभ करवाया है तो तुम ही भुगतो। मुझे तो भई इन सब पचड़ों से दूर ही रखो। अगले हफ्ते विदेशी डेलिगेशन के सम्मुख प्रेजेन्टेशन देना है।’


    कहकर उन्होंने निर्लिप्त भाव से अपने लैपटोप पर नजरें गढ़ा दीं। विजय प्रारंभ से ही ऐसे थे। उन्हें अपने काम के अतिरिक्त अन्य किसी बातों से कोई सरोकार नहीं था। बच्चों का स्कूल सर्च करना हो, उनका एडमीशन कराना हो या बच्चों के लिये शापिंग ही क्यों न करनी हो, और तो और उन्हें अपने स्वयं के कपड़ों की भी चिंता नहीं रहती थी, उसे ही सब सहेजना और करना पड़ता था पर इसमें विजय का भी दोष नहीं था... विवाह होने के पश्चात् उसने स्वयं ही विजय की सारी जिम्मेदारी ले ली थी। अब जब जिम्मेदारियों का बोझ बढ़ गया है तब स्वयं अपनी इच्छा से ओढ़ी हुई जिम्मेदारियाँ बोझ लगने लगी है... हाँ इतना अवश्य है कि उन्होंने खर्चो का कभी कोई हिसाब नहीं लिया था।


        ‘ममा, भूख लगी है जल्दी खाना दो...।’ विराम ने किचन में आते हुए कहा।


        ‘हाँ बेटा, बस पाँच मिनट...।’ विराम की आवाज सुनकर विचारों के भंवर से बाहर निकलते हुए विशाखा ने उत्तर दिया।


        ‘ममा, आपने दोसा बनाया...।’


        ‘नहीं बेटा, भूल गई, कल याद से बना दूँगी...।’


        ‘ममा, रोज कल-कल करती रहती हो, आज मैं रोटी-सब्जी नहीं खाऊँगा... नहीं खाऊँगा...।’ रूठते हुए विराम ने कहा।


        ‘प्लीज बेटा, खा लो... कल अवश्य बना दूँगी।’


        ‘खा भी लो विराम, देखा नहीं ममा कितनी थक गई है।’ शिल्पा ने उसे मनाते हुए कहा।


        ‘तुम कहती हो तो ठीक है पर रोटी-सब्जी नहीं, ब्रेड सैंडविच खाऊँगा पर कल दोसा ही खाऊँगा।’ विराम ने अपनी बात पर कायम रहते हुए कहा।


        ‘आज जो बना है वही खा लो, ममा कह तो रही है कल बना देंगी।’ शिल्पा ने मनुहार करते हुए कहा।

    

     ‘नहीं मैं ब्रेड सैंडविच ही खाऊँगा।’


        ‘तुमने इसे बहुत जिद्दी बना दिया है... अब तो न घर में चैन है और न आफिस में...।’ विजय ने बहस पर विराम न लगते देखकर झुँझलाकर कहा तथा अधूरा खाना खाये उठकर चले गये।


    विजय की डाँट सुनकर विराम रोने लगा अंततः विशाखा ने उसे ब्रेड सैंडविच बनाकर दिया तब उसने खाया। घर बाहर दोनों की जिम्मेदारियों से अकेली जूझते हुए समझ नहीं पा रही थी कि विराम तो विराम, विजय भी उसकी समस्या को समझ नहीं पा रहे है जबकि विराम से चार वर्ष बड़ी चौदह वर्षीया बेटी शिल्पा न केवल उसकी समस्या को समझ पा रही है वरन् सहयोग भी दे रही है। उसने शिल्पा को घर की डुप्लीकेट चाबी दे रखी थी जिससे उसे आने में कभी देर सबेर हो जाये तो वह घर आकर स्वयं खाना खा सके तथा विराम को भी खिला सके। वह विराम को न केवल खाना खिलाती वरन् उसके होमवर्क में भी उसकी सहायता करने के साथ-साथ मेड से भी काम करवा लेती। तब उसे लगता कि न जाने क्यों लोग पुत्री के होने पर मातम मनाते है। यहाँ तक कि स्वयं स्त्रियाँ भी पुत्री होने पर मायूस हो जाती है जबकि पुत्री न केवल माँ के नजदीक होती है वरन् जब-तब अपनी पढ़ाई के साथ-साथ माँ की भी आंशिक जिम्मेदारी वहन करने में पीछे नहीं हटतीं...।


    काम निबटाकर वह कमरे में गई तो पाया विजय सो गये है। कहीं कोई आफिस की परेशानी तो नहीं है वरना वह ऐसे कभी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते...। इतने दिनों से उन दोनों में ठीक से बात भी नहीं हुई थी। उस रात उसे भी ठीक से नींद नहीं आई। 


    दूसरे दिन विशाखा साइट पर पहुँची बिजली वाला तो हफ्ते भर गायब रहने के पश्चात् आ गया था, पर नल वाला नहीं आया था उसको फोन कर रही थी पर स्विच आफ बता रहा था। तभी पड़ोसन रमा आ गई। वह बड़ी भली थी वक्त जरूरत चाय-पानी के लिये भी पूछ लिया करती थी। उसकी परेशानी का कारण जानकर उसने सहज स्वर में कहा…


        ‘विशाखा, तुम व्यर्थ परेशान हो रही हो, यह सब तो सामान्य समस्यायें है। अरे, घर बनवाना अंगारों पर चलने के समान है। जैसे गर्भस्थ शिशु को आकार लेने मे नौ महीने लगते है उसी प्रकार एक घर को आकार लेने में कम से कम नौ महीने लग ही जाते है। तुम एक नहीं दो-दो घर बना रही हो, अभी तो सिर्फ चार महीने हुए है और तुम हिम्मत हारने लगी..!!’


    रमा की बात गलत नहीं थी दरअसल वह दो मंजिला घर बनवा रही थी। एक अपने लिये तथा एक किराये पर उठाने के लिये। उसका विचार था किराये पर उठाना सुरक्षा की दृष्टि से उचित होने के साथ अतिरिक्त आय भी देगा जिससे किश्तें चुकाने में आसानी होगी और फिर वक्त के साथ अगर विराम को इसी शहर में काम मिल गया तो उसे ऊपर वाला भाग दे देंगे और स्वयं नीचे रहेंगे। माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को पूर्णरूपेण आत्मनिर्भर बनायें एवं उनके विवाह होने के पश्चात् स्वयं ही बच्चे को अलग रहने के लिये प्रेरित करें जिससे वह अपनी जिम्मेदारी समझ सके। वैसे भी एक उम्र के पश्चात् कोई भी अपनी जिंदगी में किसी की दखलंदाजी पसंद नहीं करता चाहे वह अपना ही खून क्यों न हो?


        ‘नहीं रमा, ऐसी बात नहीं है ये नल वाले, बिजली वाले आधा-अधूरा काम करके हफ्ते गायब हो जाते है, बस यही बात परेशान करती है।’ मन में आते विचारों को रोककर विशाखा ने कहा।


        ‘तुम्हारी बात ठीक है विशाखा पर ये लोग भी क्या करें? सिर्फ एक जगह काम करने से तो उनका गुजारा हो नहीं हो सकता अतः यह लोग चार-पाँच जगह काम पकड़ लेते हैं तथा सबको संतुष्ट करने का प्रयास करते रहते है...।’


        ‘तुम्हारा मतलब है, एक हफ्ते यहाँ, एक हफ्ते वहाँ...।’


        ‘हाँ...।’


        ‘ओह! नो... इनसे जल्दी काम कराने का उपाय क्या है...? क्या पैसे बढ़ा देने से वे कार्य जल्दी कर देंगे...?’


        ‘यह तो मैं नहीं कह सकती पर इतना अवश्य कह सकती हूं कि अगर मेरा काम जल्दी कर दिया तो मैं बोनस के रूप में कुछ अतिरिक्त रूपये दे दूँगी... चाहो तो राशि भी बता सकती हो।’


    आखिर रमा की राय काम आई, अब वे जल्दी काम करने लगे... उसे भी लगा बीस तीस हजार अतिरिक्त खर्च करके अगर काम शीघ्रता से हो जाये तो क्या बुराई है...?


        ‘मेमसाहब, मिठाई खाइये... कमल और बसंती को बेटी हुई है। कमल ने मिठाई भिजवाई है... बेटे के बाद उसे एक बेटी की चाह थी, अपनी चाह के पूरा होने पर वह बेहद खुश है।’ एक दिन साइट पर आते ही किशोर ने मिठाई का डिब्बा उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।


    किशोर कि बात सुनकर अच्छा लगा अब इन निम्नवर्गीय लोगों को भी ‘हम दो हमारे दो’ की धारणा पर विश्वास होने लगा है... हो भी क्यों न... आखिर अब सभी अपने बच्चों को उचित संस्कार के साथ उचित शिक्षा भी देना चाहते है।


    ग्यारहवें दिन नामकरण संस्कार पर कमल ने सबको बुलाया था। सभी मजदूरों ने रूपये एकत्रित करके कपड़े, टॉवल तथा मच्छरदानी दी।


    विशाखा के मन में शंका थी कि जाऊँ या न जाऊँ। आखिर मन ने कहा जब कमल ने बुलाया है तो उसे जाना चाहिये। उसने बच्ची के लिये चाँदी की पायल खरीदी और किशोर के साथ गई। कमल उसे देखकर अत्यंत ही प्रसन्न हुआ। शायद उसे उसके आने की आशा नहीं थी वह उसे बसंती के पास ले गया तथा एक कुर्सी डालकर उसे बैठने के लिये कहा। बसंती भी उसे देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई।


        ‘मेमसाहब, आप आयेंगी, हमें तो विश्वास ही नहीं हो रहा है।’ कहते हुये बसंती का चेहरा खिल उठा।


        ‘यह तो बिल्कुल तुम्हारे ऊपर गई है।’ विशाखा ने उसके प्रश्न का कोई उत्तर न देते हुए बगल में लेटी पुत्री को देखकर कहा तथा पर्स से पैकेट निकालकर उसे पकड़ा दिया।


    इतनी देर में कमल की बहन एक प्लेट में मिठाई लेकर आ गई। मिठाई का पीस उठाया तथा कमरे पर नजर दौड़ाई तो व्यवस्थित कमरे को बसंती की सुघड़ता की कहानी बयां करते पाया। सच एक कमरे के घर को भी इंसान अपनी सुघड़ता से रहने योग्य बना सकता है।


    जब वहाँ से चली तो मन में बेहद सकून था... सहज, सरल एवं कम संसाधनों के साथ संतुष्टि से भरा जीवन जीना एवं प्यार और आदर देना कोई इनसे सीखे। हम तथाकथित बड़े लोग इनको छोटा समझ कर इनके सुख-दुख में काम आना अपनी शानोशौकत पर धब्बा समझते है पर यह भूल जाते है कि ये नींव के ऐसे पत्थर है जिनके बल पर हमारी शानोशौकत के महल खड़े है... अगर एक भी पत्थर हिल जाये तो हमारे महल भरभरा कर गिर जायेंगे...।   

 

    बिजली की फिटिंग के साथ नल तथा टाइल्स इत्यादि पसंद करने थे। गनीमत यह थी कि इस काम में सहयोग देने के लिये विजय तैयार हो गये। माडुलर किचन के डिजाइन के साथ अन्य कमरों के फरनीचर भी उन्होंने अपनी पसंद की मुहर लगाकर उसे चिंतामुक्त कर दिया था।


    ले देकर चौदह महीनों में घर बन गया...। गृहप्रवेश का छोटा सा आयोजन कर आखिर विशाखा एन्ड कंपनी ने अपने सपनों के घर ‘स्वप्न विला’ में प्रवेश किया। विजय जहाँ विशाखा की मेहनत सफल बताते हुए फूले नहीं समा रहे थे वहीं विराम और शिल्पा अपने अलग-अलग कमरे पाकर प्रफुल्लित थे। अपना सामान कहाँ कैसे रखना है, की योजना के अनुसार अपना कमरा सेट करने में लगे हुये थे। इसी बीच उसने ऊपर की मंजिल पर ‘टू लेट’ की तख्ती लगा दी साथ ही मकान डाट काम, ओयेलेक्स तथा क्यूकर डाट काम में घर की फोटो सहित इनरोल करा दिया।


    अनेकों फोन आने लगे। विशाखा फोन पर ही घर में रहने को इच्छुक व्यक्तियों से सारी जानकारी लेती तथा छोटी फैमिली वालों को घर देखने को बुलाती क्योंकि उसे लगता था जितनी बड़ी फैमिली होगी उतनी ही मुश्किलें बढेंगीं। अभी तक वह घर बनवाने में लगी हुई थी अब किरायेदार के चयन में लग गई। किसी के आने का समाचार सुनकर वह घर की सफाई करवाती क्योंकि उसका मानना था कि साफ-सुथरा घर सबको अच्छा लगता है। लोगों के आने का सिलसिला प्रारंभ हुआ... एक ने घर देखा तो कहा, ‘घर तो बहुत अच्छा है पर इसमें अलमारियाँ नहीं है... सामान रखने में परेशानी होगी।’


    दूसरे ने कहा, ‘किराया बहुत अधिक है थोड़ा कम कीजिये।’


    तीसरे ने कहा, ‘आपने टाइल्स इतने लाइट कलर के लगाये है, बच्चों के घर में पूरे दिन पोंछा ही लगाते रह जायेंगे।’


    आखिर चौथा मन चाहे रेट पर घर लेने को तैयार हो गया तब चैन की सांस ली वरना मन से बनाये घर में यूँ कमी निकालते देख मन कसमसा उठा था। मन कहता न लेना हो तो न लो पर कमी तो न निकालो। स्थिति यह आ गई थी कि कभी उसे लोगों को रिजेक्ट करते देख तथा कभी लोगों को घर को रिजेक्ट करते देख वह घर भर की निगाहों में हँसी का पात्र बनने लगी थी...।


        ‘ममा, आप घर को लड़की की तरह सजा-सँवार कर पेश करती हो तथा रिजेक्ट होने पर उसी की तरह निराश हो जाती हो...।’ ऐसे ही किसी के घर को रिजेक्ट करके जाने के पश्चात् एक दिन विराम ने कहा था।


        ‘घर लड़की नहीं लड़का है... लड़के का भी तो ठोक बजाकर सौदा किया जाता है, अगर लड़की वालों को पसंद आता है तो ठीक वरना दूसरा ढूँढते है।’ शिल्पा भी कहाँ चुप बैठने वाली थी।


        ‘अरे, तुम लोग भी क्या टॉपिक लेकर बैठ गये...? यह घर लड़का या लड़की नहीं हमारा अपना घर है। तुम्हारी ममा के अथक परिश्रम का परिणाम... तुम्हारी ममा के सपनों का महल... स्वप्न विला।’ विजय ने विशाखा की ओर प्यार से निहारते हुए कहा था।


    विजय की बात सुनकर जहाँ शिल्पा और विराम चुप हो गये थे वहीं विशाखा को इस बात की प्रसन्नता थी कि पहली बार विजय ने उसके परिश्रम को सराहा है, पर विराम और शिल्पा के शब्दों ने उसके मनमस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर दिया था... यह सच है कि हर मकान मालिक अपनी पसंद के अनुसार घर बनवाता है तथा उसकी अच्छाइयों के साथ किरायेदार को दिखाता है और किरायेदार घर को अपनी पसंद नापंसद के अनुसार पसंद या नापसंद करता है पर विराम और शिल्पा द्वारा कही लड़के-लड़की वाली बात उसे भी बार-बार सोचने को मजबूर कर रही थी कि घर लड़के का प्रतीक है या लड़की का...। बार-बार सोचने के पश्चात् उसके मन से यही आवाज निकल रही थी कि घर लड़का या लड़की नहीं, घर है सिर्फ एक अदद घर। लड़की विदा होकर ससुराल चली जाती है और लड़का विवाह होते ही अलग घर बसा लेता है पर घर तो ताउम्र अपने मालिक के साथ रहता है उसके मानसिक सहारे के साथ आर्थिक सहारा भी बनता है...।



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