सूर्य से प्राप्त शिक्षा -७
सूर्य से प्राप्त शिक्षा -७
अवधूत दत्तात्रेय जी ने कहा-सूर्य से मैंने सीखा है कि आत्मा एक और अभिन्न है ।हमें लगता है कि सभी प्राणियों की आत्मा अलग -अलग है ,पर जैसे एक ही सूर्य अनेक जल पात्रों में भिन्न भिन्न प्रतीत होता है ,वैसे ही एक ही आत्मा समस्त प्राणियों में भिन्न भिन्न प्रतीत होती है। फिर भी यह देखने में आता है कि सूर्य अपनी किरणों द्वारा ग्रीष्म काल में पृथ्वी के जल को वाष्प बनाकर खींच लेता है और पृथ्वी के समस्त प्राणियों के कल्याण हेतु वर्षा के रूप में लौटा देता है। उसमें वह किसी प्रकार आसक्त नहीं होता। मनुष्य भी इन्द्रियों द्वारा जो कुछ भी ग्रहण करें उसे दूसरों के उपकार में लगा दें।
“ गुणैर्गुणानुपादत्ते यथाकालं विमुंचति।
न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः ॥”
सूर्य की तरह सन्त- पुरुष अपनी भौतिक इन्द्रियों से सभी प्रकार की भौतिक वस्तुओं को स्वीकार करता है और जब सही व्यक्ति उन्हें लौटवाने के लिए उसके पास जाता है, तो उन भौतिक वस्तुओं को वह लौटा देता है। इस तरह वह इन्द्रिय विषयों को स्वीकारने तथा त्यागने दोनों में फँसता नहीं ।भक्त व्यक्ति कभी भी भगवान द्वारा सौंपे गये ऐश्वर्य के ऊपर अपना प्रभुत्व नहीं जताता। ऐश्वर्य को वह इस तरह बॉंट देता है कि वह असीम रूप में फैल जाये।
“ बुध्यते स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः।
लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोऽर्कवत् ॥”
विविध वस्तुओं से परावर्तित होने पर भी सूर्य न तो कभी विभक्त होता है, न अपने प्रतिबिम्ब में लीन होता है। सूर्य भेदरहित होने पर भी उपाधि द्वारा भिन्न भिन्न रूप रंग वाला प्रतीत होता है। वस्तुतः सूर्य एक ही है। सूर्य अनेक वस्तुओं यथा खिड़की ,दर्पण ,चमकदार धातु ,तेल ,जल आदि में प्रतिबिंबित होता है तो भी सूर्य एक तथा अविभाज्य रहता है। इसी तरह शरीर के भीतर नित्य आत्मा भौतिक शरीर के पर्दे से होकर प्रतिबिंबित होता रहता है ।इस तरह आत्मा वृद्ध या युवा ,मोटा या दुबला ,सुखी या दुखी प्रतीत होता है ।फिर भी आत्मा अपने सहज रूप में किसी भी भौतिक उपाधि से रहित होता है।
सूर्य के समान आत्मा एक ही है। उसमें कोई भेद नहीं है। जो भेद प्रतीक हो रहा है, वह केवल अज्ञानता है यह मैंने सूर्य से शिक्षा ग्रहण की। मनुष्य जीवन आत्म- साक्षात्कार के लिए मिला है , अतः इस अमूल्य अवसर का दुरुपयोग नहीं करना चाहिये।
