सर्दी
सर्दी
सर्दी थोड़ी कम थी तो मैंने टीशर्ट के ऊपर जैकेट पहनी बस उसकी चैन बंद नहीं की और चल पड़ा। अपने में मस्त। पापा का फ़ोन आया था कि पैसे डाल दिए हैं, जाओ निकाल लो और जन्मदिन के लिए नए कपड़े खरीद लो। मैं उतावलेपन से चला जा रहा था। वो चमकती सी दुकानें, वो गाड़ियाँ, सब और चमकदार लग रही थी।
एक क्रासिंग पर आगे दो गाड़ियों के कारण जाम लगा था। मुझे रुकना पड़ा। तभी मेरी नजर सामने फूटपाथ पर पड़े पुराने स्वेटरों के ढेर पर गयी। उस ढेर के पीछे एक औरत बैठी थी और एक कम्बल था जिसमे से दो मासूम चेहरे झाँक रहे थे। उन आँखों में एक उम्मीद थी हर उस आदमी से जो वहां से गुज़र रहा था। उन दोनों बच्चों की आँखें हर गुज़रते हुए शख्स का पीछा करती इस उम्मीद से कि वो आकर स्वेटर खरीदेगा पर हर बार निराशा ही हाथ लगती।
वो औरत, उनकी माँ बस एकटक स्वेटर के ढेर को देख रही थी। जैसे उसमें से कोई जवाब ढूँढ रही हो। बेबस से लग रहे थे वो लोग।
मुझे उनकी बेबसी से अपनी खुशकिस्मती का अहसास होने लगा और ये ख्याल आते ही खुद के लिए अजीब सी घृणा।
तभी पीछे से हॉर्न की आवाज़ आई और मुझे आगे बढ़ना पड़ा चलते चलते मेरे हाथ जैकेट को चैन को बंद कर रहे थे। मुझे तब अहसास हुआ कि पिछले पाँच मिनट में सर्दी बढ़ गयी थी।