Arun Singh

Drama

3  

Arun Singh

Drama

नीलकंठ

नीलकंठ

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- मैं उदास हूँ।

- पर तुम तो हँस रहे हो।

- पर मैं उदास हूँ।

- पर तुम हँस रहे हो।

-पर मैं...

मेरे बात के बीच में से ही वो कुर्सी पर से उठ चुकी थी। ये खेल हम दोनों बहुत देर से खेल रहे थे। उसे हमेशा सच वो लगता है - जो वो देखती है - जैसे कि मेरा हँसना। पर इसके पीछे की छिपी उदासी को वो सिरे से नकार देगी। जब शुरू शुरू में मैंने उसे बताया था कि मैं लेखक हूँ तो वो खूब हँसी थी। असमंजस और थोड़ी सी शर्म के साथ मैंने उससे हँसी का कारण पूछा तो बोली - तुम लेखक जैसे दिखते नहीं हो।

और मैं मुसकुराते हुए सोचने लगा था - शायद मैं हूँ भी नहीं।

आज फिर हमारी यही भीतर और बाहर की बहस शुरू हुई थी। हम टीवी देख रहे थे। एक ही बिस्तर पर। शुरू में मुझे बड़ी असहजता होती थी यूँ उसके साथ - और इस बात का पूरा मजा वो लेती थी। "तुम भीगी बिल्ली हो!" पहली बार अपनी उंगलियों से मेरी गर्दन की झुरझुरी को टटोलते हुए उसने कहा तो मैं कुछ कह ही नहीं पाया।

"ये कितने बोरिंग होते जा रहे हैं ना!" ये बात वो रोज कहती है। नियम से।

"हाँ।" मैं रोज यही जवाब देता हूँ। नियम से।

फिर हम बहुत देर तक एक दूसरे से बिना कुछ कहे टीवी देखते रहते हैं। बीच बीच मैं उसे देख लेटा हूँ तो वो तल्लीनता से टीवी पर सबके संवाद सुन रही होती है। ऐसे मौकों पर मुझे लगता है वो सच ढूँढ रही है - उन संवादों के भीतर। मैं संवाद में मौन के क्षण ढूँढता हूँ। मुझे वो सच लगते हैं। शब्द हमेशा हर बात को छिछला करके झूठ के घेरे मे ले आते हैं। मौन कुछ बहुत छोटे छोटे सच लेकर आता है जो कि सुंदर भी हो सकते हैं और कभी कभी बहुत भयावह।

एक दिन वो अपनी माँ के बारे में बात करते करते बीच में चुप होकर खिड़की के बाहर देखने लगी। और मुझे ये मौन उस बात में सटीक लगा। इस मौन को मैं छू सकता हूँ - अपनी उंगलियों पर। मैंने एक गहरी सांस लेकर सारा मौन अपने भीतर बटोरना चाहा तभी उसने मुझे पलटकर देख लिया। मैं खाँसने लगा। सच पकड़ लिया जाएगा के डर से मैं तुरंत पानी पीने का झूठ बोलकर किचन में चला गया, जबकि पानी सामने मेज पर भी था।

उसके बाद उसने आज तक अपनी माँ का जिक्र नहीं छेड़ा। शायद उसे पता है कि उसके माँ के जिक्र के साथ आए मौन को मैं अपने लिए बटोर लूँगा। मैं अक्सर यही करता हूँ - हर संबंध के मौन को थोड़ा थोड़ा करके बटोर लेटा हूँ। बहुत बार सामने वाले को इस बात का पता भी नहीं होता। बटोरना सफल होने पर मैं भीतर ही भीतर खुश होता हूँ जिसकी झलक दिन भर मेरे चहरे की मुस्कान में दिखती है। बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि नीलकंठ चिड़िया ये करती है। वो रोज चमकती चीजें बटोर लाती है। मेरे लिए संबंध इन्ही चमकती चीजों से बना है।

बीच बात में वो कुर्सी से उठकर खिड़की के मौन में चली गई। और मैं उसे देखता रहा। वो जरूर अपनी माँ के बारे में सोच रही है। ऐसा सोचकर मैंने संवाद शुरू किया -

"तुम्हारी माँ कहाँ हैं?"

"पापा ने दूसरी शादी कर ली थी।"

"माँ खुश हैं?"

"पता नहीं," उसने हाथ सामने बांध रखे थे। "पापा का एक लड़का है। मेरी उम्र का। पर तुम पापा के बारे में क्यूँ पूछ रहे हो?"

"वो कभी उदास होती हैं?"

"हाँ, पापा आते हैं। हर साल। सिर्फ एक बार।" और फिर हम दोनों चुप हो गए।

मैं उठकर उसके पास गया और उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर सहलाने लगा। इसकी माँ के हाथ ठीक इसके जैसे होंगे। और पापा के? हाँ उनके भी। फिर तो इसके भाई के हाथ भी इसके जैसे होंगे!! हाँ कुछ हद तक। मैं ललचाई नजरों से उसके हाथों पर पड़ी रेखाओं को देखने लगा। मन किया की सारी रेखाओं को चाटकर लील लूँ - इनमें चमकते टुकड़े हैं। उन्हें बटोर लूँ।

मैं जरूर मुस्कुरा रहा होऊँगा तभी उसने पूछा - "ऐसे क्या देख रहो हो?"


"तुम्हारा भाई, बहुत सुंदर होगा।" मैं कहना चाह रहा था कि तुम बहुत सुंदर हो।

"पता है, माँ भी कभी कभी उदास हो जाती है। और तब बहुत हँसती है।" इतना कह उसने मेरे हाथ को हल्के से दबा दिया।

"मैंने तुम्हें बटोर रखा है।" हम दोनों खिड़की के बाहर देख रहे थे। "समय समय पर मैं तुम्हें चख लेता हूँ। तुम्हारी जानकारी के बगैर। और तब मुझे लगता है कि मेरा तुम्हें बटोरना सफल हो गया। मुझे पता है कि ये धोखा है, पर ये धोखा मैं तुम्हें हर रोज देता हूँ।" कितना कुछ जीभ के तल्ले में अटक कर रह जाता है। और उसके बाद मुझे अपनी आवाज सुनाई देती है - "मैं उदास हूँ, सखी।"

"मुझे मालूम है।" सखी की बुदबुदाती सी आवाज़ मेरे कानों में पड़ती है। "जबसे तुमने नीलकंठ के बारे में बताया है मैं बहुत सोचती हूँ। और हर बार एक ही सवाल सामने आता है - वो उन टुकड़ों का क्या करती होगी?"

"बेहद अकेलेपन की ऊब में मैं संबंध के टुकड़ों को छूता हूँ, चखता हूँ और फिर तौलता हूँ कि मेरा जिया कितना है इस टुकड़े में। मैं हर बार हर टुकड़े में अपने जिए के सबूत ढूँढता हूँ।" ये सब सोचते हुए मैंने जवाब दिया - "सखी, मुझे कभी कभी लगता है, और इन दिनों खासकर कि - मैं जी नहीं रहा... मैं..."

सखी ने गर्दन मेरी तरफ मोड़ी और कहने लगी - "मेरी माँ की तस्वीर देखोगे?" उसकी उँगलियाँ हाथों की खाल को खरोंच रही थी। जैसे कि कुछ सवालों के जवाब वहीं भीतर छुपे हों। ये बात कहते ही उँगलियाँ शांत पड़ गई। शायद जवाब मिल गया था।

"हाँ।"

वो जाकर अपने बैग के भीतर झाँकने लगी। कितना जिया हुआ हम बटोर कर रखते हैं अपने आस पास की चीजों में! मैंने कमरे को एक निगाह भर के देखा - एक दोस्त का जन्मदिन पर दिया गया photoframe जिसमें कोई फोटो नहीं है। कुछ किताबें, मेज, माँ का दिया हुआ टिफिन, पापा की दी हुई शर्ट। बस, इतनी ही चीजों में जिए के निशान हैं। बाकी सब?

जिन टुकड़ों से जिए का स्वाद नहीं आता - उन्हें फेंक नहीं सकते क्या?

कुछ सोचकर आगे बढ़ा ही था कि सखी पलट गई। मेरे हाथ में फोटो देकर वो बाथरूम जा रही हूँ बोलकर चली गई।

फ़ोटो पीला पड़ गया था। मैंने पहले उसे सूंघा। बीते सालों का जिया हुआ उसके भीतर कहीं था। फिर उसे गौर से देखा। फोटो में तीन लोग समुद्र के किनारे खड़े थे। औरत हँस रही थी और उसकी आँखें - ओह!! आदमी का एक हाथ औरत के गले में था और दूसरा एक छोटी लड़की के कंधे पर। लड़की बहुत ध्यान से सामने देख रही थी जैसे कैमरा नहीं, जो फोटो देखेगा उसका कोई सच तलाश रही हो और वो सच जानकर एक महीन मुस्कान आ गई है उसके चहरे पर।

"इसी दिन शाम को माँ को पापा की दूसरी शादी के बारे में पता चला था।" वो शायद बहुत देर से मेरे पीछे खड़ी थी। मैं अभी भी उसकी माँ को देख रहा था। आने वाले भविष्य की उदासी - पीछे देखने पर आँखों के कोनों में दिखती है। फोटो वाली सखी - और ये सखी जो मेरे पास थी - मैं गौर से दोनों को देखने लगा। कुछ बदला है - बेहद बारीक - ध्यान से देखने पर वो सारा कुछ मुझे उसकी गर्दन की रेखाओं में दिखने लगा।

ये क्षण सच है। आश्चर्य से भरा हुआ। मौन है। मैंने देखा है - मौन अपने साथ आश्चर्यों की ढेरों संभावनाएँ लाता है। उनमें से एक आश्चर्य ठीक इस वक्त सखी की गर्दन की रेखा में घट रहा है। मेरा मन फिर इन रेखाओं को चाटकर लीलने को कहने लगा।

"सखी, तुम कभी किसी गुफा के भीतर गई हो?"

"विस्मय, तुम्हारी आँखें आजकल माँ जैसी दिखती हैं।"

"गुफा में घुसना कायरता भी और बहादुरी भी। कायरता ये कि पीछे का विशाल जीवन छोड़कर एक अंधेरी संकरी गुफा में बचने के लिए घुसे। बहादुरी ये कि गुफा के अंधेरे में ढेरों आश्चर्य कदम कदम पर बैठे हैं - सुंदर भी, भयानक भी। शर्त ये है कि गुफा में घुसने पर सारे आश्चर्यों का सामना करना पड़ेगा। फिर बहुत दिनों बाद उस गुफा से निकलने पर लगता है कि ये वाले हम नए हैं। हम जो घुसे थे वो तो पीछे अंधेरे के आश्चर्यों के बीच में ही छूट गए।"

"तुम कुछ कह रहे थे?" वो गौर से मुझे देख रही थी। हमारे हाथ एक दूसरे के हाथों को टटोल रहे थे। उसके हाथों की रेखाएँ रेंगती सी महसूस हो रही थी।

"हम गुफा में हैं, सखी।" मेरे मुंह से शब्द फूटे।

वो बहुत देर तक चुप रही फिर बोली - "बाहर टहलने चलें।"

बाहर नवंबर की हल्की धूप थी। सड़क पर हमें छोड़कर कोई नहीं था। मुझे पता था कि वो हमारे बीच की सारी बातें तोल रही है। कुछ बातों को वो आने वाले दिनों के लिए बचाकर रखेगी।

आने वाले दिन!! आश्चर्य - मैं हल्के से मुस्कुराने लगा। भविष्य में रखे सुख की आशा जितना सुख देती है उतना असली सुख नहीं दे पाता। इसलिए मैं अक्सर आने वाले सुख बटोरता चलता हूँ। जब भी बहुत जरूरत महसूस होती है - जेब में हाथ डालकर भविष्य का सुख सोचने लगता हूँ। मैंने धीमे से एक हाथ अपनी जेब में डाल लिया।

टटोलते हुए एक डर हाथ हाथ से टकरा गया। आने वाले दिनों में कितने आश्चर्य बाकी हैं? मैंने बटोर तो लिया है ना सारा कुछ? नहीं बटोर पाया और अगर सारे आश्चर्य खत्म हो गए तो?

"तो गुफा बदल लेंगे।" उसने जेब के भीतर मेरा हाथ पकड़कर कहा। "गुफा जीवन नहीं है। जीवन हमेशा बाहर है। गुफा के आश्चर्यों में खुद को छोड़ना ठीक है - पर नये को बाहर जीवन में जीना भी जरूरी है।" उसने ये सब एक सांस में बोला।

मैं उससे उसकी माँ के बारे में पूछना चाहता था। सिरा नहीं मिलने पर हम पार्क में आ गए।

"उनकी आँखें सच में मेरे जैसी दिखती हैं?" एक बेंच पर बैठते हुए मैंने बात फिर शुरू की।

"हाँ।"

"वो हँसती हैं?"

"बहुत।"

और फिर से सिरा छूट गया। कुछ बातों को सटीक कह पाने की जगह हम उसके आस पास लाठी मारते रहते हैं।

"पिछले महीने पापा आए थे।" एक गहरी सांस। गर्दन की रेखाओं में चमकता सा कुछ घटा। "पता, पापा के आने पर वो कभी उनसे नहीं मिलती। ऊपर ही अपने कमरे में उनके जाने तक बैठी रहती हैं। मैं ही पापा से सारी बात करती हूँ। वो हर बार अपने साथ बहुत सारा समान लाते हैं। कुछ देर बैठते हैं फिर चले जाते हैं। उनके जाने के बहुत देर बाद माँ नीचे आती हैं। और तब वो खूब हँसती हैं।"

शाम होने को थी तो पार्क में कहीं कहीं इक्का दुक्का लोग टहल रहे थे। हम बहुत देर तक सामने बैठे एक बूढ़े जोड़े को देखते रहे। दोनों धूप के आखिरी टुकड़ों में अलसाये से ऊंघ रहे थे।

"ऐसे मौकों पर मुझे उनका साथ देना पड़ता है। फिर हम दोनों अपने अपने कमरों में सोने चले जाते हैं। बिना इस बात का जिक्र किये कि घर में कोई आया था और उसका लाया सामान मेज पर पड़ा है। इस सबमें सबसे बड़े आश्चर्य की बात पता क्या है - सुबह मैं जागती हूँ तो मेज पर एक भी सामान नहीं होता। पहले साल जब मैंने माँ से पूछा था कि सामान कहाँ गया तो उन्होंने इस बात को सिरे से नकारते हुए पूछा कि कौन सा सामान? मैंने कहा कि वही जो पापा लाए - तो उन्होंने बड़ी सी आँखें करके फिर पूछा - पापा कब आए?" और वो हँसने लगी। "उस बार मैं बहुत रोई।"

मैंने उसके कंधे पर अपने हाथ रख दिए। उसने नजर भर मेरी तरफ देखा और मुस्कुराने लगी। मैं मौन रहा।

"रोते रोते मैं सो गई। जब जागी तो मुझे भी लगा कि शायद माँ सच कह रही हैं। पापा कभी नहीं आए। अगले साल पापा फिर आए। माँ फिर नीचे नहीं आईं। इस बार सोने से पहले मैंने सामान में से एक स्कार्फ निकाल लिया। वो स्कार्फ पापा माँ के लिए लाये थे। मुझे पसंद आया तो मैंने रख लिया। सुबह उठी तो फिरसे वही - सामान नदारद। पूछने पर माँ का फिर पापा के आने की बात को नकार देना। तब मुझे समझ आया कि ये खेल है। जिसके नियम माँ के हाथ में हैं। और मेरे पास इसे खेलने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। तबसे मैं हर साल पापा के सामान में से कोई एक चीज छिपा लेती हूँ। और हर बार मुझे वही चीज पसंद आती है जो पापा माँ के लिए लाये होते हैं। माँ को शायद इस बात की भनक है। शायद नहीं।"

"तुम इतने सालों का सारा समान कहाँ रखती हो?" मेरी उँगलियाँ उसके कंधे पर थिरक रही थी।

"है - मेरी अपनी गुफा।" उसकी आवाज़ में मुस्कुराहट सुनाई पड़ी। "मैंने भी कभी जानने की कोशिश नहीं की कि माँ उस सामान का क्या करती हैं? पापा के सामान पर उनका भी उतना हक है जितना मेरा। शायद ये उनका अपने तरीका है संबंध बटोरने का।" एक गहरी सांस लेते हुए उसने खुद को मुझसे सटा लिया।

मैंने देखा उसकी गर्दन की रेखाएँ हल्के से हिल रही हैं । मेरी उँगलियाँ उन रेखाओं को टटोलने लगी। मैं ये सारा मौन बटोर लेना चाहता था। या शायद बटोर रहा हूँ।

"इस बार माँ पापा से मिलने नीचे आईं। उन्होंने पापा को आगे आने से मना कर दिया। और सामान भी वापस ले जाने को बोल दिया। और ये भी कहा कि उन्होंने हर बार उनका सारा समान फेंक दिया है।"

मौन। मेरा संबंध को बटोरना। शाम। खेल।

"मैं पापा को स्टेशन तक छोड़ने आई तो रास्ते भर सोचती रही कि उन्हे बताऊँ कि पापा मैंने संभाल कर रखा है आपके दिए हुए सामान को। पर सिर्फ इतना कह पाई कि उन्हे माँ को और परेशान नहीं करना चाहिए। वो चुपचाप सुनते रहे और आखिर में चले गए।"

बहुत पहले का कोई आँसू रहा होगा जो भीतर ही भीतर अपने अस्तित्व के लिए लड़ा होगा और आज उसे एक दम से बाहर आने का मौका मिला। उसके गाल पर आए आँसू में शाम की धूप बहुत हल्के से चमकी। सामने बैठा बूढ़ा जोड़ा हाथ पकड़े पार्क से बाहर जा रहा था।

"विस्मय, इस बार मैं कुछ बटोर नहीं पाई।" बहुत दबी, थकी सी आवाज उसके गले से निकली और मेरे कानों के पास आकर दम तोड़ने लगी।

सारा कुछ बटोर कर भी हमारे हाथ खाली क्यूँ रहते हैं? हम जी लेते हैं एक संबंध को पूरा का पूरा - हर टुकड़ा बटोर लेते हैं पर अंत में कुछ हाथ नहीं आता। एक संबंध के खत्म होने पर इतना खालीपन भरा होता है हथेली की रेखाओं में कि वो मौन में भी कानों के अंदर गूँजता रहता है।

"मैं उदास हूँ विस्मय।" बहुत देर के बाद उसने कहा। और हम दोनों दो पल की चुप्पी के बाद हँसने लगे।

"पर तुम तो हँस रही हो!" मैंने हँसते हुए कहा।

"पर मैं उदास हूँ।"

"पर तुम..."

सामने एक नीलकंठ आकर बैठ चुकी थी। हम दोनों अपने संवाद को बीच में रोक कर उसे देखने लगे। उसकी चोंच में एक कांच का टुकड़ा था। जिस पर शाम की धूप का आखिरी टुकड़ा चमक रहा था।

"अरे नीलकंठ..." हम दोनों के मुँह से एक साथ निकला। और हम हँसने लगे।



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