सोच की बेड़ियां
सोच की बेड़ियां
हे ज़िंदगी !
तू ही हैं कुदरत की अद्भुत देन। ऊंचे शिखर से आकाश की ओर जरा नजर तो घुमाओ।
देखो जरा ये हवाएं तुम्हारी दिशा आयी या नहीं, क्यों एक इंसान अमीर तो दूसरा गरीब, एक महल में तो दूसरा झोपड़ी, एक सफल तो एक असफल। परमात्मा एक है हम सब उससे ही जुड़ें है अर्थात हम सब मनुष्य एक है फिर इस प्रकार की विभिन्नता क्यों ?
कभी सोचा है? मुफ्लीसी पैसों से नहीं बल्कि सोच से आती है। आपकी सोच एक कारण है और परिस्थिति परिणाम ।कभी ऊंचे नील गगन में परिंदों को उड़ते हुए देखा हैं ? किस तरह पंख फैलाकर,अपने डर से जीत कर ये सुहाने सफर में पहुंचती है। परिंदे आकाश में उड़ने के लिए ही बने हैं वो किसी बेड़ियों या पिंजरे के लिए नहीं।इसी प्रकार हमारा मन हमें उसकी बेड़ियों में बांधने का प्रयास करता है। हमारी सोच से ही हम निर्मित है।
आज हर मनुष्य को चाहिए कि वे ये सोच की जंजीरें तोड़ कर फारिग हो जाएं ।हमें असफलता की जंजीरें तोड़ कर सफलता के शिखर को चुनना हैं।
उद्देश्य:- हे मनुष्य! कब तक जखडेगी तुझेये बेड़ियां ,इस मिट्टी की सौगंध तुझे शिखर को हर हाल में चुनना हैं ।
यह कैसी दशा तेरी ?
होकर बुलंद तोड़ दे जंजीरें तू, आकाश ढूंढ रहा है तुझे, हो जा फारिग तू, हो जा फारिग तू।