समंदर
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अमृतसर से आने वाली शरणार्थी ट्रेन दिल्ली स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर 2 पर आकर खड़ी हुई और यात्रियों ने उतरना शुरू कर दिया। मनोहर तेजी से चलते हुए उतरने वाली हर प्रौढ़ महिला में अपनी माँ और उनके साथ आए बच्चों में अपने भाई को ढूंढने में लग गया। छह डिब्बों को झांकने के बाद उसने एक बार फिर से ट्रेन के आखिरी छोर पर नज़र मारी। बस दो डिब्बे और, क्या माँ आज भी नहीं आई? ये सोचते हुए उसने अपने कदमो को तेज कियाऔर शीघ्र ही उसने लास्ट कंपार्टमेंट भी कवर कर लिया। शायद मैंने उन्हें मिस कर दिया यह सोचते हुए वह तेजी से दौड़ कर निकासी पर आकर हर निकलने वाले यात्री में माँ और भाई को गौर से तलाशने लगा । जल्दी ही प्लेटफॉर्म खाली हो गया और सारे लोग शरणार्थी कैम्प की ओर निकल गए। माँ और भाई आज भी नहीं आ पाए, सोचते हुए वह उदास व निराश हो गया।
भारत को स्वत्रंता मिले आज लगभग डेढ़ महीना हो चला था। पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थी हर दिन दिल्ली पहुंच रहे थे। मनोहर विभाजन से पांच साल पहले यानी 1942 में पाकिस्तान के "मियाँवाली" तहसील के "सऊवाला" गांव को छोड़कर अपने मामा के साथ "शिकोहाबाद" आ गया था। दो साल पढ़ाई के बाद मामा ने उसकी नौकरी हिन्द लैंप कंपनी में बतौर हेल्पर लगवा दी थी। जल्दी ही उसने कंपनी में छोटे बल्ब बनाने वाले मिनिएचर प्लांट के महीन काम को समझ लिया था और अब उसका सुपर वाईजर उसकी नौकरी को स्थायी करने की शिफारिश मैनेजर से करने की सोच रहा था। इसी आशा में कि परमानेंट हो जाऊं फिर गांव जाकर माँ और भाई को ले आऊंगा, वह शिकोहाबाद आने के बाद कभी वापिस गांव नहीं गया था। भारत की स्वतंत्रता, विभाजन और शरणार्थियों के लिए किए गए इंतजामो की खबर सुनने के कुछ दिनों के बाद ही वह शिकोहाबाद से दिल्ली आ गया था और पिछले15 दिनों से रोज इसी तरह से अमृतसर से आने वाली शरणार्थी ट्रेन व स्टेशन के बाहर बनी शरणार्थी केम्प की खाक छांक रहा था। कुछ दिन तक तो मामा साथ में थे लेकिन पिछले एक हफ्ते से वह अकेला ही इस काम में लगा हुआ था और आज फिर से उसे निराशा ही हासिल हुई थी।
स्टेशन के बाहर आकर वह चाचा की दुकान की तरफ मुड़ गया। सोचा पहले चाय पी लूँ फिर कैम्प की तरफ निकलूंगा। राम बिहारी दिल्ली स्टेशन से कुछ दूर एक चाय की छोटी दुकान चलाता था और चूंकि सभी उसे चाचा कह कर बुलाते थे, उसने अपनी दुकान का नाम भी चाचा की दुकान रख लिया था। मनोहर को अपनी तरफ आते हुए देख राम बिहारी ने पूछा,"क्या मनोहर माताजी आज भी नहीं आईं?" मनोहर ने ना में सिर हिलाते हुए कहा "चाचा एक कप चाय पिला दो उसके बाद कैम्प में जाकर देखूंगा"। राम बिहारी से मनोहर की पिछले15 दिनों में काफी बात होती रही थी इसलिए उसे मनोहर के बारे में पता था। चाय के साथ टोस्ट खा कर वह शीघ्र ही कैम्प की तरफ निकल गया।
भारत सरकार ने दिल्ली स्टेशन के बाहर पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों के लिए कैम्प में रहने की व्यवस्था की थी। कैम्प में आने वाले हर शरणार्थी के लेखे जोखे का इंतज़ाम तो था लेकिन काम सुचारू रूप से नहीं चलता था। मनोहर और उसके मामा ने शरणार्थी ऑफिस में रिकार्ड्स को दो बार देखा लेकिन काफ़ी कोशिश के बाद भी मनोहर को अपनी माँ और भाई के बारे में कुछ पता नहीं चल सका। मनोहर ज्यादा पढ़ा लिखा ना होने की वजह से ऑफिस में जाकर बार बार इंक्वायरी करने से भी झेंप रहा था । चूंकि कैम्प काफी बड़ा हो चला था और ऑफिस में हमेशा भीड़ रहती थी अतः मनोहर ने कैंप में बसे और ट्रेन सेआने वाले यात्रियों में भी मां और भाई को ढूंढना ठीक समझा। वह हर दिन की तरह से आज भी कैम्प जाकर वहां की गलियों और छोटी छोटी दुकानों में आने जाने वाले लोगों मे अपनों को ढूढंने में लग गया।
मनोहर के पिता का 1942 में एक बीमारी के बाद निधन हो गया था। अपने पिता के देहांत के बाद ही वह मामा के साथ शिकोहाबाद आया था। तब से उसकी माँ भगवती और छोटा भाई किशन, किसी तरह से खेती बाड़ी करते हुए अपना गुजर बसर कर रहे थे और फिर देश का विभाजन हो गया। शीघ्र ही पाकिस्तान की तरफ बसे हिंदुओं के उत्पीड़न और उनके अपने घर बाहर छोड़ भारत पलायन की खब
रें गांव तक पहुंचने लगीं।
गांव के हिंदुओं में भय का माहौल था कि उनके साथ न जाने क्या होगा। गांव के कुछ मुसलमान हिन्दुओ को जल्द से जल्द गांव खाली कर जाने के लिए आवाजें उठाने लगे थे। कुछ लोग तो उन्हें इस्लाम कबूल करने की सलाह भी देते थे। लेकिन गांव का प्रधान अयूब खान काफी समझदार और सुलझा हुआ व्यक्ति था, वह स्थिति को संभाले हुये सभी को आश्वस्त करता रहता था कि सभी हिन्दू भाई बहिन बच्चे गांव में सुरक्षित रहेंगे। फिर एक दिन पाकिस्तान आर्मी और पुलिस ने आकर घोषणा की कि गांव में बसे हिन्दू लोग, जो इंडिया जाना चाहते हैं, वे 15 मिनट में गांव खाली कर गांव के बाहर बने कैम्प में चले जाएं। गांव में अफरा-तफरी मच गई और जल्दी से लोगों ने जो कुछ बन सका उसे समेट कर कैम्प में डेरा डाल दिया।
अयूब ने लोगों को रोकने की कोशिश की लेकिन गांव के बाकी बाशिंदों की वजह से असमर्थ रहा।
तीन-चार दिन कैम्प में रहने के बाद हर घर के कुछ सदस्यों को गांव जाकर जरूरती सामान उठाने की इजाजत दी गई लेकिन तब तक तो काफी घर लूट चुके थे। लोगों को जल्दी ही मियांवाली तहसील के बड़े कैम्प शिफ्ट कर दिया और फिर वहां से मुज्जफराबाद स्टेशन। पाकिस्तान के हिन्दू जत्थे हर शहर से लाहौर पहुंच रहे थे और फिर वहां से अमृतसर और आगे दिल्ली। दोनों देशों के पंजाब व अन्य प्रांतों में हिन्दू और मुसलमानों के बीच सम्प्रदायिक झगड़े व हिंसा की खबरें रोज मर्रा हो चली थीं। ऐसे माहौल में भगवती और किशन ने डरे सहमे और इश्वर का स्मरण व भरोसा करते हुए बाकी हिन्दू यात्रियों के साथ पहले लाहौर और उसके बाद अमृतसर और बाद में दिल्ली की यात्रायें की। इस तरह उन्होंने आज से पांच दिन पहले ही शरणार्थी कैम्प में शरण ले ली थी। उन्हें मनोहर या उसके मामा की कोई उम्मीद न थी। भगवती के आंसू बह बह कर सूख गए थे। उसने सब कुछ इश्वर भरोसे छोड़ दिया था।
जब से भगवती और किशन गांव से निकले थे उन्हें नहाने धोने के मौके कम ही मिले थे लेकिन कैम्प में स्नानघर की व्यवस्था थी इसलिए भगवती किशन को पिछले दो दिन से नहाने की लिए कह रही थी। आज सुबह से आसमान साफ था और धूप भी निकल आई थी। भगवती ने किशन को डांटते हुए कहा "किशन जे तूं अज्ज वी नहीं न्हायआ ते मैं तेनु खांड वास्ते कुज वी न दयँगी"। भगवती ने एक अठन्नी किशन के हाथ में पकड़ाते हुए कहा, "जा! पहलां जाके अपड़ें बाल कटवा, फिर आके नह्यां लेयीं"। किशन बेमन कैम्प से निकल कर नाई की दुकान पर आ गया और चूंकि दो लोग पहले से अंदर थे, वह दुकान की मुंडेर पर बैठ कर अपने नम्बर का इंतज़ार करने लगा।
1942 में जब मनोहर ने गांव छोड़ा, तब उसका छोटा भाई केवल 9 वर्ष का था। पिछले पाँच सालों से उसका माँ व भाई से किसी तरह का सम्पर्क नहीं हुआ था। कैम्प की गलियों और दुकानों में झांकते हुए वह मां व भाई की शक्ल को याद करने की कोशिश करता रहता था। बहुत से ख्याल उसके जहन में घूमते रहते थे। क्या मां जिंदा है या मर गई? यदि जिंदा है तो किस हाल में और कहां? क्या मैं अब कभी उन्हें मिल पाऊंगा ?
मेरा भाई कैसा लगता होगा? क्या मैं उसे पहचान पाऊंगा ? इसी उधेड़ बुन में तलाशती निगाहों से लोगों पर आधी अधूरी नज़र मारते हुए वह नाई की दुकान के सामने से निकला।
कुछ कदम आगे जाने के बाद उसे लगा शायद किसी पहचान वाले को अभी देखा। वह वापिस मुड़कर नाई की दुकान के बाहर बैठे लड़के को गौर से देखने लगा। पहचानना मुश्किल हो रहा था। इस बीच किशन ने भी उसकी तरफ देखा लेकिन वह तो नाउम्मीदी कि वजह से बिल्कुल अनभिज्ञ था और उसने निगाह दूसरी तरफ कर ली। मनोहर हिचकते हुए उस लड़के के पास आकर खड़ा हो गया और अपनी उंगली उसकी तरफ करते हुए बोला "किशन?" यह कौन अनजान मेरा नाम जानता है इस शकी सोच के साथ, बिना किसी प्रक्रिया के किशन ने अपने सामने खड़े वयस्क को पहचानने की कोशिश की। उह ये तो मनोहर भैया लगते है, उसने खड़े होते ही कहा "मनोहर भैया ?" यह सुनते ही मनोहर की आंखें गीली हो गईं। उसने किशन को जोर से गले लगा लिया और दोनो भाई मिलकर रोने लगे और फिर जब मनोहर माँ से मिला तो जैसे आँसुओं का समंदर बह चला।