स्कूल का वह एक दिन
स्कूल का वह एक दिन
विद्यालय में मध्यान्ह भोजन की घोषणा करती हुई घंटी बजी ही थी कि मैंने झट से बस्ता खोला। उसमें से अपना प्रिय खिलौना या कह सकते है कि मेरे एकाकी जीवन का एक निर्जीव साथी था निकाल लिया।
"अरे यह क्या है?" ज्योति पूछ रही थी।
"यह यो-यो है। किट-कैट के साथ मिलता है ना वही वाला।" मैं भी गर्व से बता रही थी।
"अच्छा यार एक बार चला कर दिखा दे।" ज्योति के साथ अब अन्य बच्चों की भीड़ जमा हो गई थी।
पहले तो मुझे डर लग रहा था कि अगर किसी अध्यापक ने देख लिया तो कही कुछ मुसीबत ना हो जाये लेकिन हीरो (हिरोइन क्योंकि मैं एक लड़की हूँ) बनने के चक्कर में मैंने उसे चलाना शुरू किया। जैसे जैसे वो नीचे जाकर वापस रस्सी पर लिपट कर ऊपर आता था वैसे वैसे हम सभी बच्चों की खुशी और आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी।
जब उस खेल से हमारा मन भर गया तो मैंने अपनी एक विशेषता का बखान करना शुरू कर दिया। मैंने अपनी उंगलियों को पीछे की ओर मोड़ना शुरू किया क्योंकि मुझे यह एक वरदान तुल्य प्रतीत होता था। मुझे यह एक ऐसी शक्ति लगती थी जो भगवान ने केवल मुझे ही दी हो, इस बात से अनजान कि यह एक तरह का विकार है जो भविष्य में धीरे धीरे मुझे पूरी तरह से अपनी चपेट में लेने के लिए तत्पर था।
"अरे यार तू यह कैसे कर रही है? तुझे दर्द नहीं हो रहा?" ज्योति का मुंह खुला का खुला रह गया।"
तभी मध्यान्ह भोजन की समाप्ति की घोषणा करती हुई घंटी ने मेरे उत्साह पर अंतराल लगा दिया। सभी बच्चे अपनी अपनी जगह पर जा कर बैठ गए।
उस समय मेरे मन की प्रसन्नता अवर्णनीय थी लेकिन इस दुख के साथ कि यह समय इतनी जल्दी खत्म क्यों हो गया था?
स्कूल में गुजरा हुआ वह एक दिन ना जाने कितने दिनों तक मेरे मन पर छाया रहा था, यह बताना तो मुश्किल है लेकिन इतना जरूर है कि वह मेरे लिए किसी रोमांचक यात्रा से कम नहीं था।
