सिस्टम... ओह सिस्टम !
सिस्टम... ओह सिस्टम !
यूं तो कामकाज ठीक ही चल रहा था लेकिन जब से ये नये डी.एम.साहब आए हैं सारे शहर के मातहतों की नाक में दम किये हुए हैं। लेखपालों से लेकर ए.डी.एम. तक के लोग अपनी पेशी से घबड़ाते हैं। और उधर बाबूराम आर.टी.ओ. साहब तो बुरी तरह फंस गये महसूस करते हैं। सारी कमाई-धमाई गई तेल लेने।
बगहा तहसीलदार राजन बाबू अपने दफ्तर में इस बतकही में मशरुफ थे कि उनके फोन की घंटी घनघना ही उठी।
"जी सर! ठीक है सर। मैं पहुंच जाऊंगा साहब।"
राजन बाबू बोलते हुए फोन का रिसीवर रख दिये। चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गई। फोन पर उधर एस.डी.एम. साहब थे और इनको तुरंत डी.एम. साहब के बंगले पर पहुंचने की हिदायत दे रहे थे।
सरकारी गाड़ियों की खस्ताहालत देखते हुए तहसीलदार साहब एक लेखपाल की कार पकड़ कर शहर मुख्यालय पहुंचने में भलाई समझे।वहां ढेर सारे लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था।पता चला सूबे के मुख्यमंत्री जी का दौरा होना है और सभी को जिम्मेदारियां बांटी जा रही हैं। राजन बाबू जिस चीज़ से बचते थे वहीं ज़िम्मेदारी इनके सिर आ पड़ी थी।इनको लंच आदि की पक्की व्यवस्था करनी थी।
आजादी के बाद से उस देश में कुछ यूं गलत और सही परम्पराओं ने अपना विकास कर लिया था कि वे अब शासकीय दिनचर्या का अंग बन चुकी थीं ।मसलन सम्पत्ति आदि की रजिस्ट्री से जितनी ऊपरी आय होती उसको ए.डी.एम. फाइनेंस के मार्फत ऊपर तक पहुंचना ही पहुंचना होता। ज़रा सी असावधानी हुई कि आप बदल दिये गये। शहर के थानों का चिन्हांकन बख़ूबी हो जाया करता था जिससे ऐसे ख़ास मौक़े पर धनपशुओं का दोहन हो सके।
सरकारी फ़रमान जारी हुआ नहीं कि काम हो जाना चाहिए। रिसोर्सेज की नहीं परफारमेंस की चिंता से सभी हलकान हुए जाते थे। बजट वजट एलाट होता रहता, सैंक्शन वगैरह भी बाद में लेते रहना अभी तो बस सी.एम. साहब का फंक्शन बढ़िया से निपटा देना है।
राजन बाबू भी तहसील लौटते ही चांप चढ़ा ही दिए कुछ तेज तर्रार लेखपालों पर। बहरहाल फंक्शन बढ़िया हो गया। सभी अपनी अपनी दिनचर्या में संलग्न हो चले। ऊधर बाबू राम आर.टी.ओ. साहब भी तो उतने ही तन्मय होकर अपनी सेवाएं देते रहे। उनकी ड्यूटी गाड़ियों के काफ़िले तैयार करने की थी।
आर.टी.ओ. दफ्तर का क़िस्सा भी बड़ा अजीबोग़रीब हुआ करता था।सरकार ट्रांसपेरेंसी के नाम पर दो क़दम चले तो गठजोड़ में हुनरमंद दलाल अपना उल्लू सीधा करने के लिए चार कदम चल दे रहे थे। बात वहीं की वहीं रहती तो फिर भी ग़नीमत। उपभोक्ताओं पर चपत दुगुनी हो जाया करती। यहां भी परफेक्ट परफारमेंस की वेल्यू हुआ करती थी। काम करवा दो जितना चाहो लूट लो। बहुत चिल्लाने पर सिस्टम का रोना। आंख दिखाने पर सर्वर का रोना। पैसा दिखाने पर न सिस्टम न सर्वर... सब कुछ फर्स्ट क्लास।
बाबू राम बबुआ ही बनकर ख़ूब कमाई किये जा रहे थे। लखनऊ से तबादला होकर इस शहर में जब आए तभी उन्हें एहसास हो गया था कि यहां लक्ष्मी जी जल्दी प्रसन्न हो जाती हैं। सो, जुट गये थे अपनी मूल्य केन्द्रित समर्पित सेवा में।
बाबूराम के पड़ोसी अमरनाथ जी बेहद सीधे-सादे पेशे से अध्यापक थे। उनके लड़के राहुल को एक दिन ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने की ज़रुरत पड़ी तो बड़े ताव से आर.टी.ओ. दफ्तर पहुंच कर सुबह शाम हेलो हाय करनेवाले अंकल जी के कमरे में सीधे घुस गया। चपरासी दौड़कर रोकता कि वह अंदर घुस ही गया।
"अंकल जी नमस्ते!” राहुल ने बड़े प्रेम से नमस्कार किया।
सामने बड़ी टेबुल पर सिर झुकाए कुछ फाइलें निपटाते बाबू राम ने सिर उठाकर राहुल को देखा और गंभीर स्वर में उखड़े हुए से पूछ बैठे-"बोलो क्या है?"
"अंकल, मुझको अपना डी.एल. बनवाना है। मैं..." राहुल अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि बाबूराम ने घंटी बजाकर चपरासी के हवाले राहुल को कर दिया। चपरासी ने बाहर निकल कर आर.टी.ओ. दफ्तर के सिस्टम का आइटम दर आइटम उसको बयान कर दिया।
राहुल एकबारगी को चकरा गया।उसको अपने अंकल से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे आर.टी.ओ. दफ्तर के क्रूर सिस्टम के हवाले उसे कर देंगे।
वैसे राहुल अपनी मूंछें उगने के पहले से स्कूटर जैसा दो पहिया और मूंछें उगने के बाद चार पहिया पर कुशलता से हाथ साफ करने में माहिर हो चला था।लेकिन इधर शासन की कड़ाई से उसने सोचा लगे हाथ डी.एल. भी बनवा लें।
लेकिन सिस्टम की आड़ में अंकल ने उसे निराश कर दिया था। वह क्लांत मन से घर आया और घरवालों को अपनी रामकहानी सुनाई तो वे भी चौंके।
उसी दिन देर रात में पड़ोसी अंकल बाबूराम जी को हार्ट अटैक पड़ा। घर में सिर्फ़ उनकी अशिक्षित पत्नी और आठ-नौ साल की बेटी। उनकी पत्नी घबड़ाकर पड़ोसी मास्टर साहब का दरवाज़ा लगीं पीटने। हड़बड़ाकर सभी उठे। राहुल को तुरंत गाड़ी निकालने के लिए कहा गया। राहुल भन्नाते हुए गाड़ी निकालने लगा।आनन-फानन में बाबूराम अस्पताल पहुंचा दिये गये। भगवान की कृपा वे बच गये।
हफ्तों तक आराम करने के बाद बाबूराम आज दफ्तर गये। जाते ही राहुल की डी.एल. की दबी फाइल ढुंढ़वाकर तुरंत डी.एल. बनवाकर खुद उसे राहुल को ले जाकर सौंप दिये। राहुल के मुॅं से निकला-
"सिस्टम... ओह सिस्टम ! "
