सच्चा सुख...
सच्चा सुख...
जैसी परे सो सहि रहे..
कहि रहीमन ये देह..
धरती ही पर परत हैं..
सीत घाम औ मेह...।
अर्थ :- जैसी इस देह पर पड़तीं हैं वो सब सहन करना चाहिए.. ठीक उसी तरह जिस तरह ये धरती सहन करतीं हैं.. चाहे वो धूप हो.. ठंड हो.. या बारिश हो..।
एक औरत बहुत महंगे कपड़े पहनकर... शानदार गाड़ी में सवार होकर अपने मनोचिकित्सक के पास आई और कहा- "मुझे लगता है कि मेरा जीवन व्यर्थ है.. कोई खुशी ही नहीं है.. आप प्लीज खुशियाँ ढुंढ़ने में मेरी मदद किजिए..।"
चिकित्सक ने अपने यहाँ काम करने वाली एक बुढ़ी औरत को बुलाया जो वहाँ साफ़ सफाई का काम करतीं थीं..और उस औरत से कहा :- "ये अम्मा तुम्हें बताएगी की जीवन में खुशियाँ कैसे ढुंढ़ी जाए..।"
वो बुढ़ी औरत आई और अपना झाड़ू पास में रखकर कुर्सी पर बैठकर बोलीं :- "मेरे पति की मलेरिया की वजह से मृत्यु हो गई थीं.. उनकी मृत्यु के तीन माह बाद ही मेरे इकलौते बेटे की भी एक भयंकर एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई..। मैं बिल्कुल अकेली पर गई..। जिंदगी से हार गई थीं..। नींद नहीं आतीं थीं..। ना कुछ खाने का दिल करता था ना कुछ पीने का..। अपने आप को मारने के भी कई असफल प्रयास कर चुकी थीं..। मैं मुस्कुराना तक भूल चुकी थीं..। हर पल बस खुद की जिंदगी खत्म करने के बारे में सोचती रहती थीं..। एक दिन मैं किसी काम से घर वापस आ रहीं थीं..। सर्दियों का समय था..। अचानक एक छोटा बिल्ली का बच्चा मेरे पीछे पड़ गया..। वो बार बार मेरे पैरों के बीच में आ रहा था..। सर्दी बहुत थीं.. इसलिए ऐसे में उसे बाहर छोड़ देने को मेरा दिल नही माना.. मैं उसे अपने घर लेकर गई और उसे दूध पिलाया . . . वो बहुत भूखा था... उसने झट से पूरा दूध सफाचट कर दिया..। फिर वो मेरे पैरों के पास आकर उसे चाटने लगा..। मेरे साथ खेलने लगा... ना जाने कितने समय बाद मैं ऐसे फिर से उस वक्त मुस्कुराई थीं....।
तब मैने सोचा की अगर एक बिल्ली के बच्चे की मदद करने में मुझे इतनी खुशी मिल रहीं हैं तो क्यूँ ना ऐसे ही ओर लोगों की मदद भी की जाए...।
अगले दिन मैं हमारे पडौ़स में रहने वाले एक बिमार और अकेले रहने वाले व्यक्ति के लिए घर से कुछ बिस्किट लेकर उनके पास गई..। वो व्यक्ति बहुत खुश हुआ की किसी ने तो उसके बारे में सोचा..।
इसी तरह अब मैं हर रोज़ कुछ ना कुछ नया करने लगी.. जिससे लोगों को खुशी मिलें..। मेरे पास आजिविका का इतना साधन नहीं था.. इसलिए अपनी क्षमता अनुसार मैं लोगों को छोटी छोटी खुशियाँ देने लगी..। उनके साथ बातें करने लगी..। उनके साथ वक्त बिताने लगी..। ऐसे लोगों को खुश देख मुझे भी बहुत खुशी मिलतीं थीं..। बस ऐसे ही मैने मेरी खुशी के रास्ते ढुँढ लिये. ...।"
ये सब बातें सुन वो औरत बहुत रोने लगीं.. क्योंकि उसके पास सारे संसाधन थें.. जिससे वो लोगों में खुशियाँ बांट सकतीं थीं..। लेकिन वो सिर्फ अपने तक ही सिमित होकर रह गई...।
भावार्थ :- हमारा जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता की हम कितने खुश हैं.... बल्कि इस बात पर निर्भर करता हैं की हमारी वजह से कितने लोग खुश हैं..।
