Mihir

Romance

5.0  

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साल 1996 का वैलेंटाइन!

साल 1996 का वैलेंटाइन!

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उसे गलतफहमी पहले हुई या इश्क! ये बता पाना उतना ही मुश्किल था जितना 'मुर्गी पहले या अंडा'।

बहरहाल, अकेला चना भले भाड़ फोड़ ले, अकेली मुर्गी कभी अंडा नही दे सकती। उसके लिए एक अदद मुर्गा तो चाहिए ही। मगर इधर तो मामला एकतरफा था। तिसपर कच्ची उम्र का दिवालियापन!


बारहवीं के प्रैक्टिकल चल रहे थे और हर मुर्गा, मेरा मतलब लड़का, अपने प्रैक्टिकल को धांसू बनाने के लिए मॉडल बना या बनवा रहा था। मगर बंदा इश्क मिजाजी और दुनियादारी के बीच त्रिशंकु बना था। पर जैसे ही इलेक्ट्रॉनिक की दुकान में मॉडल का ऑर्डर देकर बाहर को मुड़ा ही था कि मुझसे टकराते-टकराते बचा। मिजाजपुर्सी मौसमपुर्सी का तो वो महीना ही न था। सीधे काम की बातों पर आ गए। 


"आज इधर कैसे?" मैंने पूछा तो लहरा कर बड़े शायराना अंदाज़ में बोला,"और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा।"


मतलब, उसे भी प्रैक्टिकल की याद आ ही गयी थी। इश्क के रोगी को बीच-बीच में दुनियादारी के दौरे भी पड़ते ही रहते हैं।


अभी बाहर को झांका ही था कि मुर्गी, मेरा मतलब लड़की सामने से जाते दिख गयी। इस उम्र की मोहब्बत जो न करवाये सो कम। पता नही, उन शामों की हवाएं इतनी मस्तीभरी क्यों होती थीं!


तो बन्दे के मन मे अंडे, मेरा मतलब कि लड्डू फूटने लगे। पर पट्ठा कोई आजकल का सड़कछाप आशिक तो था नही जो उसका पीछा करता, इज्जतदार आदमी था सो सीधे उसके घर ही पहुंच गया। पर अगले गेट की बजाय पीछे के चोर रस्ते। बस उसकी चौहद्दी वहीं तक थी। दो-चार बार तांक-झांक कर चलता बना।


लेकिन दिल इतने भर से कहाँ मानने वाला था! अगली रोज़ बेलन-टाई वाला डे जो था। उसकी फरमाइश पर उसके लिए एक प्रेमगीत लिखना पड़ा, जो कभी अपने लिए भी नही लिख सका था। सारा मगज उधेड़कर रख दिया तब कहीं पूरा हो सका। ये और बात है कि गीत लिखते हुए भी लड़की के बेढब दांत सारी कल्पनाओं का कचूमर किये दे रहे थे।


बहरहाल, बड़ी देर तक एक-एक पंक्ति पर वाह-वाह करने के बाद आखिर उसने चलते-चलते मुझसे उस गीत का मतलब भी पूछ ही लिया। इसपर भी मुझे इत्मिनान ही था कि उसने फिर भी जल्दी ही पूछ लिया। कहीं अगर लड़की के सामने ये स्थिति आ जाती तो फिर बचना मुश्किल था। 


पर मुश्किल ये थी कि प्रेमगीत वाला प्रेमपत्र लड़की तक पहुंचाएं कैसे! प्रेमियों के बीच मे सदा से दुनिया खड़ी हुई है, यहां तो पूरा बाज़ार खड़ा था। उसका घर बाजार के दूसरे छोर पर था। अभी उतने सुनहरे दिन न आये थे कि लड़का-लड़की हाथों में हाथ डाले बेपरवाह घूम सकते हों। ये नब्बे का दशक था, जब सुनहले पर्दे का बाज़ीगर भी चौदह बार अटककर "कि.कि.कि.कि.कि.....किरन" बोल पाता था फिर हम जैसे शरीफों की तो बात ही क्या! और हां, किरन सचमुच उसी का नाम था।


शराफत में भले कभी कमी न आने दी हो पर शरारतों में मैने कभी कसर नहीं छोड़ी थी। ऐसी-ऐसी शरारतें अपनी मासूम शक्ल के पीछे छिपा लेता था कि अगर हिंदी वाली चंदा मैम को आज भी पता चल जाये कि उनकी सबसे बढ़िया मिमक्री कौन किया करता था तो उन्हें पक्षाघात हो जाये। खैर, ऊपरवाला उन्हें तंदुरस्त रक्खे। मेरा मतलब सिर्फ इतना था कि अपनी सारी रचनात्मक क्रियाशीलता मैं सिर्फ कलमकारी में ही ज़ाया नही करता था बल्कि कभी-कभी बड़े धांसू विचार भी अवतरित होते रहते थे।


ऐसा ही एक नेक विचार सुबह-सुबह नींद में अचानक प्रकट हुआ। अगले आधे घण्टे के भीतर मैं तैयार होकर साइकिल पर बकायदा अशोक के घर के सामने खड़ा था। अशोक की आंखें फटीं की फटी रह गयी, जब मैंने उसे ये आईडिया दिया।


"आइडिया तो बढ़िया है, पर उसके घर जाकर उसकी खिड़की से अंदर फेंकेगा कौन?"


"वही, जिसको तलब होगी। तू तो अपने घर जा। तेरे बस का नही।" मैने मज़ाक किया। पर वो भन्ना गया।


"ऐसे घटिया जोक मत सुनाया कर। मैं बिल्कुल तैयार हूँ। पर उसके घर तक मेरे साथ जाएगा कौन?"


"वही नालायक, जिसने तुझे ये आईडिया दिया है। और कौन इतना पागल है।"


"तेरा जवाब नहीं नील, मेरे दोस्त।" कहकर उसने पूरी अदा से इमोशनल ब्लैकमेल करते हुए जादू की झप्पी दी।


यहां तो खिचड़ी पका के भी देनी थी और खिलानी भी अपने ही हाथ से थी। 


बन्दा अब फंस चुका था। 


XXX


तो अगली शाम को जब बाकी के लोग अपने प्रैक्टिकल को अंतिम रूप दे रहे थे, आपका ये अदना मित्र अपने लँगोटिया यार की साइकिल में पंचर टांक रहा था। कमबख्त! ऐन उसी जगह जाकर पंचर हुई जहां नहीं होना था। दिन ढलने में देर थी और उजाले में सबके आगे से गुजरकर किरन की गली में जा नही सकते थे। तो पूरे दो घण्टे तक इश्क में पड़े अपने दोस्त की बकवास सुनी। एक बार तो जी में आया कि कह दूं, 'तेरी किरन ऐसी भी कोई हूर नही है, आगे की पंक्ति का एक भी दांत सीधा नहीं।' फिर दोस्ती का ख्याल कर चुप ही रहा।


सात बजे के लगभग मैं उसकी साइकिल को चढ़ाई पर खींचता पसीना-पसीना हो रहा था, और वो बन्दा तब भी साइकिल के पीछे लदा हुआ उसी इत्मीनान के साथ अपनी हवा-हवाई बातें छोड़ रहा था। खैर, जैसे-तैसे घर के पिछवाड़े तक पहुंच तो गए पर असमय एक विचार ने घेर लिया।


" चिट्ठी अगर किसी और के हाथ लग गयी तो?" उसके इस मासूम सवाल पर मैने परिणामस्वरूप उसके पिलपिले चेहरे की कल्पना तक कर डाली थी।


समाधान भी फौरन हाज़िर था। हम चिट्ठी को बिना किसी की नज़रों में आये ऐन किरन के ही आगे फेंकेंगे, फिर छुपकर उसके चेहरे की प्रतिक्रिया देखेंगे। पर इसके लिए दीवार को फांदकर अंदर जाना ज़रूरी था। फिर भी दुविधा ये थी कि चिट्ठी पढ़कर किरन कहीं खुद ही शिकायत न कर बैठे। अब इश्क में इतना रिस्क तो बनता है न?


दीवार भी कोई सात फुट से अधिक ही ऊंची थी। सारा ज़ोर आजमाकर भी आशिक उस दीवार तक नही पहुंच सकता था। तो इस नाचीज़ ने अपना कंधा हाज़िर कर दिया। नीचे नाले की सड़ांध पागल किये दे रही थी। और ऊपर आशिक अपनी आशिकी का पहला इम्तिहान भी पार नही कर पा रहा था। दो-चार कोशिशों में भी वो उस फिसलन और काई भरी दीवार पर चढ़ने में नाकाम रहा। अंत मे मैने ही कंधे को थोड़ा उचकाने का सुझाव दिया। किसी तरह डाली हाथ आ जाये तो बस दीवार पर चढ़ा जाए। इधर नाले की सड़ांध मेरी नाक में बस चुकी थी।


"एक...दो...तीन" और मैने कंधे को उचका दिया। पर आशिक मेरी उम्मीदों से भी हल्का निकला या मैने ही ज़ोर ज़्यादा लगा दिया था। नतीजा विध्वंसकारी तो नही पर धमाकेदार ज़रूर निकला। जब तक मैने सिर ऊपर उठाकर उसकी तरफ देखा तो वह साष्टांग दीवार को पार कर चुका था। हवा में केवल उसकी चप्पलें दिखाई दीं। एक तो दीवार के इसपार आ गयी थी पर दूसरी ने आखिरी समय तक वफादारी निभाई। कोई दो या तीन सेकंड बाद दीवार के उस पार ज़मीन पर गिरने की आवाज़ आई। जहां सॉफ्ट लैंडिंग होनी थी, वहां विमान सीधे क्रैश हो गया।


घबराहट में मैने आव देखा न ताव, सीधे दौड़ लगा दी। कुत्तों के भूँकने की आवाज़ें आई। तभी मुझे याद आया कि शेर से भी न डरने वाला आशिक शेरू से बहुत डरता था। पर अब हो भी क्या सकता था? मैं बस यही कर सकता था कि उसकी चप्पल उठाकर उसकी तरफ उछाल दूं, कम से कम भागने के काम तो आएगी। जैसे ही मैने चप्पल अंदर फेंकी, भौंकना बंद हो गया। कुत्ता चप्पल लेकर अंदर भागा और अशोक बाहर।


दीवार पर जैसे ही उसका अक्स उभरा ही था कि मैने भी पूरे ज़ोर से उसे बाहर को खींचा। एक बार फिर उसकी सॉफ्ट लैंडिंग ज़रा जोर से हुई। फिर कीचड़ और काई में सने उसके शरीर को लगभग खींचता हुआ सा बाहर सड़क तक लाया। साइकिल पूरी तेज़ी से चलाते हुए मैने पूछा,"क्या हुआ था अंदर?"


अशोक ने अपना मुंह लगभग ढाई इंच तक खोला, और पूरे ढाई मिनट तक बिना रुके हलक सूखने तक जो गालियां दीं कि मैं बस चुपचाप उसके कंठ सूखने का इंतज़ार ही करता रहा।


अपनी बेतरह हंसी को काबू कर जैसे ही मैने सवाल दोहराया तो नए सिरे से पुरानी गलियों का पिटारा फिर खुल गया। बड़ी देर बाद उसने जवाब दिया कि चिट्ठी वहीं गिर गई थी, पर अंतिम क्षण में उसने खिड़की के पास किरन को मंडराते देखकर चिट्ठी वहीं अंदर फेंक दी थी।


मैंने चैन की सांस ली कि चलो काम तो बना। अब प्रतिक्रिया अगले दिन देख लेंगे। मगर अभी थोड़ी ही दूर गए होंगे कि अगले मोड़ पर किरन अपनी दो सहेलियों के साथ सामने से आती दिखी। मैने झट चेहरा घुमा लिया, अशोक तो वैसे ही कीचड़ में सना था। किरन ने मुझे देख कुछ कहना चाहा पर मैं अनजान बनकर आगे निकल गया।


"अगर किरन यहां रास्ते से घर को लौट रही है, तो वो अंदर खिड़की पर कौन थी?" मेरे इस सवाल के जवाब में मेरी पीठ पर इतनी ज़ोर का मुक्का पड़ा कि दो पल के लिए सांस ही नही आई।


"मैं बर्बाद हो गया।" अशोक चिल्लाया,"किसी को मुंह दिखाने लायक नही रहा। वो ज़रूर उसकी मम्मी रही होंगी। अब वो मेरे बारे मैं क्या सोचेंगी।"


मुझे हंसी भी आ रही थी और क्रोध भी। अशोक की हालत ऐसी हो गयी थी जैसे पराए मुहल्ले से बुरी तरह पिट कर आये कुत्ते की होती है। सिर दुबकाये, ढीली चाल। बस पूंछ और होती तो चित्र पूरा हो जाता। अगली रोज़ वो स्कूल नही गया। मुझे तो जाना ही था। अपना और उसका मॉडल जमाकर जैसे ही बाहर निकला था कि लड़कियों के एक झुंड ने मुझे घेर लिया, जिसका नेतृत्व किरन कर रही थी।


"कल तुम हमारे मुहल्ले में आये थे क्या?"

"नहीं तो।" बड़ी मासूम शक्ल बनाकर मैनें कहा।

"सच सच बोलो। वो तुम नहीं थे जो रास्ते मे हमें मिले?"

"कौन सा रास्ता? कैसी मुलाकात? तुम्हारी तबियत तो ठीक है न?" मैने उसी मासूमियत से कहा। ये अदा असर कर गयी। एकबार फिर अपनी मासूम सूरत के चलते बच गया।

किरन लगभग झेंपती हुई सी बोली,"बिल्कुल तुम्हारे ही जैसी शक्ल का एक लड़का कल मुझे रास्ते मे मिला। एक बार तो मैं भी धोखा खा गई थी। मैने उसे पुकारा भी। पर वो ऐसे मुड़ गया जैसे जानता ही न हो।"


मैने चैन की सांस ली। फिर यकायक ही अशोक का ख्याल आया।

"और भी कोई था क्या उसके साथ?"

"हाँ, था तो सही कोई पीछे साइकिल पर बैठा। शायद कबाड़ी था।"


मैने बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी को काबू कर पूछा,"पर तुम्हें मुझपर ही क्यों शक हुआ?"


"वो बस ऐसे ही शक्ल से धोखा हो गया था।"


"अच्छा, इसका मतलब कल को कोई तुम्हारे घर पर प्रेमगीत लिखकर फेंक आये तो तब भी तुम मुझे ही दोष दोगी, क्योंकि गीत मैं ही लिखता हूँ। है न?"


वह चौंकी। "नही, ऐसा भी नही। पर हाँ, कितना गज़ब इत्तेफाक है न, कल ही ऐसा हुआ भी।"

"अच्छा?"

"हाँ, हमारे बगीचे में कोई आम चोरी करने आया था। शेरू उसकी एक चप्पल उठा लाया। पर वो भाग गया।"

"अच्छा, अब तुम भी सिंड्रेला की तरह अपने घर वैलेंटाइन की पार्टी रखो। उसमें सबको बुलाओ। जिसके पैर में वो चप्पल फिट आ जाये उसे....."

"उसे क्या अपना बॉयफ्रेंड बना लूं?"

"नहीं। उसे उसी चप्पल से मारो। दूसरी चप्पल भी तो फेंक सकता था। अकेली चप्पल तुम्हारे किस काम की?" सभी लड़कियां हंस हंसकर दोहरी हो गईं। अब सबको यकीन हो गया कि कल अंधेरे में जिसे देखा था वो मैं नही था।

"हो सकता है तुम्हारा कोई आशिक ही हो जो आम नही दिल चुराने आया हो।" फिर ठहाका। किरन ने चौंकते हुए कहा,"हाँ, मुझे भी ऐसा ही लगा।"

"कोई चिट्ठी-विट्ठी तो नही दी उसने?" मैने मज़ाक के पीछे मंशा छिपाकर पूछा।

"हाँ, मेरी बड़ी दीदी बोल रही थी कि उसे कोई कागज़ का टुकड़ा मिला खिड़की के पास।"

"फिर क्या हुआ? क्या लिखा था उसमें?" मेरा दिल धक्क सा रह गया।

"कहाँ पढ़ पाए! शेरू ने चप्पल छोड़कर उसी कागज़ को पकड़ा और टुकड़े-टुकड़े कर दिए। एक टुकड़े पर कुछ नाम था। 'अशोक' जैसा कुछ।"

"अरे आशिक लिखा होगा। तुम ज़बरदस्ती अशोक पढ़ रही हो।"

"हाँ। बिल्कुल। मुझे भी यही लगता है।"


बहरहाल, दोस्तो! आपके इस नाचीज़ ने अपने दोस्त की लाज भी बचा ली थी और अपनी मासूमियत से खुद को भी पाक-साफ कर लिया था। तो ऐसा था अपना 25 साल पुराना वैलेंटाइन। आपको भी खूब मुबारक हो। अपनी चप्पलें सम्हालकर रखियेगा।


                                 


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