साहित्यिक मिलन
साहित्यिक मिलन
मैं पद्य लिखने में गहरी रूचि रखती हूँ। लेकिन मुझे लगता है कि एक लेखक को हर क्षेत्र में पारंगत होना चाहिए। तो बस इसी भावना के साथ एक कोशिश कहानी लिखने की...
'व्योम' यही नाम था उसका। ऊंची कद-काठी, गेहुंआ रंग और हां नाम के ही जैसे आँखों में बसा अनंत आकाश।बस ये सब काफी होता है उसका रूप साकार करने में।
करीब दो साल पहले मैं उसे एक परिचित के शादी समारोह में मिली। मैं अपनी खाने की प्लेट लेकर जैसे ही मुड़ी, मैं बस अवाक् रह गई। उसकी सफेद उजली शर्ट पर दाग लग गया। जैसे चांद पर दाग के बावजूद भी वो सुंदरता का पर्याय होता है ठीक वैसे ही। पर वो गुस्सा नहीं था वो मुस्कुरा रहा था। मुझे उस स्थिति में देख या शायद वह हमेशा ही वैसे स्वभाव का था।तब उसके मुँह से कुछ शब्द झरे- "कोई बात नहीं। ऐसी बड़ी-बड़ी शादियों में छोटी-मोटी बातें हो जाती है।"
वह फिल्मी नहीं था पर मुझे सहज करने के लिए ही उसने ये रूप धरा। मैंने उसे टिश्यू पेपर दिया पर दाग पूरी तरह नहीं गया। जिस तरह उसकी छाप मेरे मानस पटल पर छ्प गई पर 'गहरी'। मैंने उसे अपना परिचय दिया- "वसुधा"। और उसने भी -"व्योम"।
मेरे नाम पर एक साहित्यिक टिप्पणी की उसने -" वसुधा ने बांध दिया जगत को, सार नहीं पर पार नहीं, आकाश के जैसा अनंत है बदलियां छाई है पर कोई अंत की धार नहीं"। बस तब से ही साहित्य में जैसे रूचि अपार हिलोर लेने लगी। वो कुछ पल का साथ बन गया मृत्यु तक की याद। उस बात को कुछ दिन बीत गये।
कुछ दिन बाद फिर से एक पारिवारिक समारोह में मिलना हुआ पर इस बार हाथ में प्लेट की जगह पानी का गिलास था। फिर वही घटित हुआ। पर इस बार न मैं अवाक् रही और न वो फिल्मी। बस था तो एक अट्ठाहास हमारे बीच। पर हां इस बार कुछ अलग भी था। इस बार मैंने अपनी साहित्यिक टिप्पणी की -"माना वसुधा का पार नहीं ,न है कोई इसका अंत ,पर क्या मिलता है छोर भी उसका, जो आकाश,नभ है अनंत।" वह कुछ कहे इससे पहले मैंने अपनी एक और साहित्यिक रचना प्रस्तुत की-
"उस अनंत व्योम से मिलन को
तरसती बेकल ये वसुंधरा
निर्निमेष तकती आकाश को
विरह अनल में जलती वसुधा।
विस्तृत होता है नभ भी
हर छोर पर करता प्रयास
चहुँओर है विस्तारित नीलगगन
धरा के मिलन की करता आस।
वाष्पित होकर अपार नीर
बिछोह सहता महासागर से
बूँदों में परिवर्तित होकर वह
पुनः मिलता अपनी गागर से।"
बस फिर क्या था मेरे प्रेम को सहमति मिल गई।

