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Aditya chandra 'Subhash'

Inspirational Others

4.0  

Aditya chandra 'Subhash'

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रक्तापूर्ति

रक्तापूर्ति

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पूस की ठंडी रात में चार वृद्ध जलते अलाव के सामने अपनी जिंदगी के ताने-बाने एक दूसरे को सुना रहें थे। उनके आस-पास तमाम झूड़ और झाड़िया खड़ी थी। जिनसे लगातार झिंगुरों की ध्वनि चारों तरफ के सन्नाटे को चीर रही थी। जैसे ही अलाव में आग धीमी होती, वैसे ही छिददा उस में पास से ही सुखा कचरा बटोर कर रख देता, उसके ऐसा करते ही आग इतनी तेज हो जातीं की उनके चहरे की हताशा और झुर्रियाँ उभर आती थी। उसके ऐसा करते ही आग की तीव्रता इतनी तेज होती की मांझी कह उठता " अबे क्या जलागा क्या! बेर-बेर इसमें कूड़ा डाल द हैं अबे सरकार ने क्या कम मार रक्खा है बाकि रही सही कसर तू पुरी कर दे,इस धुएं से मार कर "

लंबरदार से ये बात हजम नहीं हुई और कह उठा "आजी लो और सुनो ऐसे-ऐसे लोग धुएं से मरने की बात कर रहे जो तीन-तीन चिलम एक साथ बिना रुके पी सकें हैं।

इस सब के बीच एक मोटी आवाज़ गूँजी "अबे छिददा! अबे चिलम भी तो लाया था तू कहाँ गई वो, निकाल यार दो-दो दम लगवा ज़रा"

ये आवाज थी बहीद की जो इन सब में थोड़ा बहुत पढ़ा हुआ था। इतना कि हिज्जे मिला कर अखबार पढ़ सकता था।

छिददा ने उसकी बड़ी सिद्दत से मान ली और चिलम भर कर ले आया और बहीद को थमा दी। बहीद एक लंबा दम लेकर छोड़ते हुए बोला " हाँ भई छिददा वो तेरी गाय ने भी तो दूध छोड़ दिया मैंने सुना है। क्या करना है अब उसका"

"करना क्या हैं यारों! सुबह मास्टर अखबार पढ़ रहा था। तो सुना हाँ मैंने कि हुक्मरानों ने नये कानून लागू किये हैं। अब देश के सभी ढोर-डंगरों की गिनती हो रही हैं।"

"हाँ सुना तो मैंने भी हैं" लंबरदार ने कस छोड़ हुए कहां

"अब भईया क्या कर सकें है हमने तो सरकार कू वोट दिया के थोड़ी बहुत नरेगा तो मिलती ही रहेगी। अब तो लगें हैं कि उसके पैसे भी सरपंच ही डकार गया।" मांझी ने सरकार की आलोचना के साथ-साथ स्थानीय स्वशासन को भी लताड़तें हुए कहा।

बहीद ने फिर हुंकार भरते हुए कहां " अरे भईया यहां क्या किसी की किस को ख़बर, किसी की शिकायत भी करें तो धेले में रूपय-पैसा कौड़ी कुछ तो चाहिए।और यहां तो एक वक्त की रोटी के फाँके हैं। गाम के जितने भी रूपय-पैसे वाले मानस हैं। सब पहले ही सरपंच से साट-गाँठ कर ल हैं। यहां तो परमात्मा ही हमारा उद्धारक हैं।"

जब तक अलाव की आग भी नरमाई पकड़ चुकी थी। और रात का अंधकार और कुहासा गहरा हो चुका था। धिददा ने अपनी फटी हुई मिरजई ओढ़ी और चलने के लिए उठा उसका घर थोड़ी दूर था। तीनों ने उसे रोकना चाहा पर उसकी चिंता उसे घर की तरफ खींच रहीं थी और चिंता का कारण था, उसकी गऊ

वो बार बार सोच रहा था , क्या हुआ जो उसने दूध छोड़ दिया अब वो किसी काम की नहीं रहीं। मैं उसे ऐसे ही तो नहीं छोड़ सकता आखिर अब तक तो उसका दूध पिया हैं। क्या हुआ जो मैं मुस्लमान हूँ मेरे अंदर भी तो हृदय हैं। उसके कदम लगातार घर की ओर तेजी से बड़ रहें थे। पता नहीं किसी ने गऊ को चारा दिया होगा भी या नहीं मुझे सारा दिन खेत पर ही हो गया आज।

घर के नजदीक पहुँचते ही उसे गाय के रंभाने की आवाज़ आ रहीं थी। आवाज़ के सुनते ही छिददा के कदम और तेज हो गये।

घर जाकर उसने देखा तो अब तक गाय को कुछ भी खाने के लिए नहीं दिया गया था। उसने थोड़ी सानी-पानी गाय को दिया। इतने ही उसके लड़ाका ने कहां " हाँ ओर दो इसे चारा खाने को, घर में हमारे लिए अन्न नहीं है और ये चले हैं रहनुमा बनने , अरे बेच क्यों नहीं देते इसे कसाई को, हमारा पीछा तो कटे।"

"दे देता मगर सरकार का हुक्म हुआ है कि कोई भी पशु अब बिना कागजी रिपोरट के नहीं काटा जा सकता। इसे बेच कर कोरट-कचहरी के चक्कर कौन करें भाई" छिददा ने लाचारी के स्वर में कहां

वो गाय को खुला छोड़ने से ज्यादा कसाई को देना सही समझता था। इसमें उसका नैतिक भाव निहित था। कि उस पशु को जन्नत नसीब होती हैं जिसे काटते हुए कलमा पढ़ा जाता हैं। सिवाय इसके के उससे खुला छोड़ दिया जाए। खुला छोड़ने पर वो किसी के खेत में जायेंगी। तो कोई डंडा भी जरूर मारेगा। खुला छोड़ कर तो वेकदरी ही करनी है। यहीं सब सोच कर उसके ज़मीर ने उसे खुला छोड़ने की हामी नही भरीं। 

उसके बेटा और घर वालों का हृदय उस की भांति दयालु स्वभाव का नहीं था। ये एक किसान का हृदय हो सकता हैं जो आपने खेत की मिट्टी तक को माथे से लगाता हैं। और चाहें फसल का हो या ना हो फिर भी ना तो खेत को लानत देता है। और ना ही मिट्टी को दोष बस लगा रहता है कोल्हू के बैल की भांति इस उम्मीद में के एक दिन कोपल फूटेगी।

रात काफी हो गयी थी। पर छिददा को गाय के साथ साथ घर की जिम्मेदारियों की चिंता हो रहीं थी। कभी इस करवट तो कभी उस करवट और सोच रहा था ।

"क्यों ना गऊ को गौशाला को भेज दे। पर बिरादरी हसेगीं के मुस्लमान हो कर हिंदूओं वाला काम कर रहा है। और फिर पैसे भी कहाँ हैं जो गौशाला तक का खर्च उठाया जाये।"

ये सब सोचते-सोचते भोर हो चला था ' छिददा खेत पर जाने के लिए तैयार हो गया था। इतनी परेशानी के बाद भी उसके झुर्रियों भरे चहरे

पर हंसी की लकीरें भी चमक जाती थी। उसने अपनी पत्नी से कहां ' अरी रोटी बांध दे और थोड़ छाछ भी बांध दिये पर उसे एक दम याद आया के छाछ तो हो नही रहा जब से गाय ग्रसित हुई है तो चुप गया '

'कटवा क्यों नहीं देते इसे ईद आ रही हैं और अभी अपने पड़ोसियों ने भी तो कटवाई थी। सब झंझट ही खत्म हो जायेंगा वैसे भी जब तक इस का दूध घी बेचकर जो पैसे आ रहे थे। उससे इसे पाल रहे थे अब तो अपना जीना भी मुश्किल हो रहा है।' उसकी पत्नी ने कहां

'तुझे जिस बारे में नहीं पता गांव की, उसमें अपनी टांग क्यो अड़ाती हैं। देखा नहीं कैसे एक किलो गौस को गाय का बता कर दारोगा ने सरपंच के लोंडे से दो लाख ऐंठ लिए और तू तो बात भी गाय काटने की कर रई हैं अरे सरकार को थोड़ी ही पता है कि हमें क्या दिक्कत परेशानी हैं वो तो ठण्डे हवादार कमरे में कोट टाई पहन कर हमारे लिए नियम कानून बनामें हैं जिसे हम जैसे अनपढ़ों को समझने में बर्षों लग जा हैं। इतने नीचे के हुक्मरान हमें नोंच खामें हैं। और हमें ही परेशानी नहीं है। अब ऐसी गायों की गिनती बढ़ती जा रई गांव में जिन्हें गौशाला भेजने का खर्च कोई ना उठा सकें है। तो उनें खुला छोड़ द है और फिर रात को इन से अपने खेत बचाने के लिए किसान सेरी रात खेत की रखवाली करें हैं।' धिददा ने उसे समझाया

बात समझने के बाद वो कुछ ना वोली कहां ठीक है 'तुम जाओ फिर सोचंगे इस बारे में '

और छिददा हाथ में लट्ठ लिए खेत की ओर बड़ गया। चारों तरफ घना कोहरा छाया हुआ था। वैसा ही जैसे छिददा के छोटे से हृदय में

खेत की और बढ़ते हुए बीच में बहीद की बगिया से होकर गुजरना पढ़ता था। छिददा लम्बे-लम्बे डिगों से भागा जा रहा था अचानक कोहरे में से बहीद सामने आ गया ।

'और भई! छिददा कहा भगा जा रहा है जरा हमारे साथ दो दम भर ले'

'दम तो भर लेता पर यारों मुझे अबेर हो जा गी। लोंडा सबेरे से ही खेत पे पानी लगा रहा है बिना कुछ जलपान के'

'ठीक है फिर जा......'

छिददा ने दो डिग रखें ही थे कि बहीद बोल पड़ा

'अबे छिददा उस गाय का क्या हुआ। क्या करेंगा उसका मैं क रीया हूँ उसे काट तो सकते ना है। और जहर भी ना दे सकें है। एक काम कर चारा मत दे उसे पन्द्रह-बीस दिन में निपट लेगी । तेरी दिक्कत ही खत्म और अगर कटवा दी तो कोरट-कचहरी सिर पड़ जागी। और सजा होगी वो अलग।

'सही कह रहें हो यारों ऐसा ही करना पड़ेगा अब तो'

छिददा ने कह तो दिया पर उस के हृदय को ये बात स्वीकार नहीं थी। उस का मन निरंतर विचलित था। मन बार-बार उससे कह रहा था। आखिर वो गाय भी तो एक जीव है। पर घर-गृहस्थी की समस्याएँ अपने घमण्ड में इस बात को दबा देना चाहती थी।

केवल जीना मात्र ही ईश्वर ने हमें नहीं दिया है। यदि एकांकी ही जीना होता तो ये जीवन कितना सरल था। प्रत्येक व्यक्ति साधु-संत होता, ईश्वर ने गृहस्थ आश्रम की ये परम्पराएं बनाई जो इन संतों को पोषित कर सके बदले में संत इस जगत को दे सकें एक शुलभ गृहस्थ का मूलमंत्र, जिससे ईश्वर के सुमिरन के साथ सार्थक जीवन जिया जा सकें। पर आज जो संत है वो इस कपट भरी दुनिया से विलग है। और जो है वो है बस पीत-चीवर में लिपटे वासना के पिण्ड।

छिददा लंबे डिगो से चला जा रहा था अपने खलिहान की और, और मन में चल रही थी जीवन की चिन्ताएँ । खेत पर पहुँचते ही उसने लड़ाके को जलपान कराया और लग गया कुदाल ले कर पृथ्वी का पोषण करने में।

सूरज ने करवट बदल ली थी और अंधकार अपनी कामयाबी की और बढ़त बनाये हुए था। खेत से लोटते हुए बहीद की बगिया में चौकड़ी जमी हुई थी। रात्रि में भी कृत्रिम बादलो का अम्बार लगा हुआ था। लड़का पहले ही घर पहुंच चुका था।

'आओ भई छिददा आओ बैठो, लो दो दम तुम भी खेचों' मांझी ने चिलम पकड़ाते हुए कहा। छिददा ने दो लंबे कस भरे और हल्का खांसने लगा। अचानक गांव की तरफ से आवाज़ें आने लगी। एक बालक दौड़कर छिददा के पास आया और तेजी चिल्लाते हुए कहा 'दादा भईया को पुलिस पकड़कर ले गई। दादी ने तुम्हे बुलाया है'

वे चारो सब सामान समेट कर घर की तरफ तेजी से दौड़े । घर जाकर देखा तो गाय मरी पड़ी थी चारो तरफ खून था। औरते चिल्लाकर रो रही थी।

छिददा के बड़े भाईसाहब ने कहा ' तेरे लोंडे को पुलिस पकड़कर ले गई इस गाय के काटने के जुर्म में जब वो घर पर आया तो तेरी बीबी और लोंडिया घर पर नहीं थी। जैसी ही वो घर में गया पीछे से प्रधान का लोंडा पुलिस को लेकर पहुँच गया। और उसे गिरफ्तार करा दिया ।

छिददा सारा खेल समझ चुका था। क्योंकि उसके लोंडे की प्रधान से आपसी रंजिश थी। इस लिए उसे इस में फंसाया गया था। वो कुछ और ना बोल सका बस ये ही शब्द उस के मुख से निकलें ।

'गरीब को कुचल कर ही ताकतवरों की रक्तापूर्ति होती है'

[कहानी में पश्चिम उत्तर प्रदेश की बोली का प्रयोग है।]

                              


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