मैं बस तुम्हें चाहता हूॅं
मैं बस तुम्हें चाहता हूॅं
"मैं तुम से छुटकारा चाहता हूॅं"
"और मैं तुम्हें चाहती हूॅं"
"पर तुम मुझे पसंद नहीं"
"दो साल कोमा में रहने के बाद मां-बाबूजी ने कह दिया तुम पत्नी हो तो मैं मान जाऊं"
"पर सत्य नकारा नहीं जा सकता"
आज वह बहुत ही नाराज था। हाॅं! रहता था पर आज कुछ ज्यादा ही था। उसकी शादी बिना मर्ज़ी के जो करा दी गई थी। वो भी एक गांव की लड़की से, जो उस की शहरी मेट्रो ना थी पर हाॅं एक ऐसी गाड़ी उन दोनों के मेल से बन सकती थी जो उन्हें जीवन के हर रंग से अवगत कराती हुई मोक्ष द्वार तक ले जा सकती थी पर देखिये ना, समय और भाग्य क्या- क्या रंग है ना इनके भी!
उसके रोज़-रोज़ के पीकर आने , उसकी तुलना अपनी किसी शहरी महिला मित्र से कर उसकी मज़ाक उड़ाने, जैसे उसके कर्मों को भी वह अपने आदर्शों को जीवित रखते हुए सहन करती रही और हमेशा एक बहुत अच्छा तो नहीं, पर हां एक मर्यादित रिश्ता बनाये रखने कि कोशिश करती रहीं....
ना जाने वो समाज को दिखाने के लिए या अपने 'मैं' को समझाने के लिए निरंतर उसे अपमानित करता रहा। हालांकि पढ़ी-लिखी थी, पर पता नहीं क्यों ये कहती रहती की 'लोग क्या कहेंगे' शिक्षा इस वाक्य के समक्ष खुद को बौना महसूस करती है, फिर भले ही शिक्षा के माध्यम से आप संसार भर में विजय प्राप्त करते फिरें!
वैसे उससे बड़ा ही प्रेम करती थी वो, उसके सही-गलत हर फैसले में साथ थी.....
वो कहते हैं ना कि प्रेम कुछ भी कर सकता है, बड़े-बड़े सूरमा इसके समक्ष नतमस्तक हो गये फिर ये पति क्या जीव था।
आज वे दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े नदी के किनारे बैठे थे।
नदी के पानी की कल-कल, पंछियों की घर वापसी जाने की आवाज़ें , ढलते सुर्य देव और नाव की पतवारों से उठती तरंगें ये ही उनके बीच हो रही बातों के गवाह थे।
प्रिय
"मैं तुमसे अपने किये सभी अपराधों की क्षमा चाहता हूं।"
"पता है! मैं तुमसे प्रेम क्यों करती रहीं क्योंकि जिस व्यक्ति को मैंने कोमा से पहले देखा था वो तुम थे ही नहीं , मैं हमेशा तुम्हारे भीतर उस आदमी की तलाश कर रही थी और शायद अंत में, मैं सफल हो ही गयी।"
"मैं अब तुम्हें इतना प्रेम देना चाहता हूं कि मेरे किये अपराधों का प्राश्चित हो सके। मैं उस भार से मुक्त हो जाऊं,जो हर पल मुझे मारता है।"
"मैंने तो तुमसे कभी प्रेम मांगा ही नहीं मैंने तो बस तुम्हें प्रेम किया और केवल मेरे प्रेम करने में ही मुझे हम दोनों के होने का अहसास हो जाता था, शायद हर जिवंत व सच्चा प्रेम करने वालों को दो होने की जरूरत भी नहीं है।"
"मैं बस तुम्हें चाहता हूं ...चाहता हूं.....चाहता ....."
और इसी के साथ सूर्य की पहली किरण ने उसके स्वप्न को तोड़ दिया और हाथ यदि कुछ लगा तो आंखों में दो अश्रु....
आज उसे पंचतत्व में विलीन हुए दो साल हो गये है। वो उसे ये तक नहीं कह पाया था कि "मैं बस तुम्हें चाहता हूं" और अब हर रोज ये कहते ही उठता है वो "मैं बस तुम्हें चाहता हूॅं।"
अब उस बात का क्या
जो समय रहते ना कही जाये,
उस फैसले का क्या
जो वक्त रहते ना लिया जाये,
ये तो नियम है इस दुनिया का
ये आज, कल भूत हो जायेगा
क्यों ना वर्तमान में जी लिया जाये.....
