Arvind Kumar Srivastava

Tragedy

5.0  

Arvind Kumar Srivastava

Tragedy

रावलपिन्डी

रावलपिन्डी

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चालीस वर्ष पूर्व मेरे कॉलेज के दिनो में मेरे मित्र ने मुझे अपने परिवार के साथ घटी इस दर्दनाक, अमानवीय पीड़ा से ग्रस्त और व्यथित कर देने वाली कहानी सुनाई थी, इस आग्रह के साथ कि इसके पात्रों के नाम बदल कर कभी लिखने का प्रयास करना, किन्तु इसे लिखने की मैंने कोई आवश्यकता नहीं समझी क्योंकि किसी सच का तो दावा नहीं किया जा सकता है, और यह सुनी हुई कहानी थी वह भी तीसरी पीढ़ी से, मित्र को उसके पिता ने सुनाई थी और उसके पिता को उनके पिता ने, और सच कहूं तो चालीस वर्ष पहले सुनी कहानी को मैं पूरी तरह भूल भी गया था, याद रखने का कोई कारण भी कभी मेरे सामने नही आया, मुझे अपने परिवार से विरासत में जो संस्कार मिले थे, मेरी आत्मा में जिन संस्कारों का पोषण हुआ था, जिस तरह से मुझे शिक्षित किया गया था, जिस समाज और वातावरण में रह कर मैंने स्वयं को इस योग्य बनाया था कि आपने आस -पास हो रहे तमाम शुभ - अशुभ को ठीक से समझ सकूं, मेरी आत्म प्रज्ञा तथा विवेक इस विभत्स और क्रूर कहानी को आत्मसात नहीं कर सकी थी, यही वह कारण है कि मित्र से सुनी हुई इस घटना को मैनें पूरी तरह से अपने अंतरमन में भुला और मिटा दिया था।

शहर में बाजार के प्रमुख चैराहे पर अचानक दोपहर दो बजे से पूर्व एक भीड़ जाने कहाँ से उमड़ आयी थी, भीड़ में बहुत सारे लोगों के हाथों में काले झण्डे थे, किन्तु संख्या उनकी अधिक थी जिनके हाथों में हरे रंग के झंडे थे और उन पर चाँद तारों के निशान बने हुए थे, कुछ लोगों के हाथों बैनर और पोस्टर भी थे जिसे पढ़ने पर मालूम हुआ कि ये लोग अभी हाल ही में देश की सांसद में पूर्ण लोकतांत्रिक तरह से लम्बे विचार विमर्श के बाद पूर्ण बहुमत से पारित किसी बिल का विरोध कर रहे है। नगर में बाजार का मुख्य चैराहा होने के कारण, पुलिस का एक छोटा दल हर समय वहाँ पर रहता था, किन्तु इतनी बड़ी भीड़ को कन्ट्रोल कर पाने में वे सक्षम नहीं थे और असफल भी हो रहे थे, भीड़ ने पुलिस की पेट्रोलिंग वाहन को आग के हवाले कर दिया था, वहाॅ पर खड़ी कुछ और कारों, मोटरसाइकिलों तथा टैम्पो को भी आग लगा दी गयी थी , कुछ दुकानें को लूट लिया गया था, मैं भाग कर जिस दुकान में घुस गया था उस दुकानदार ने शीघ्रता से अपनी दुकान का शटर बन्द कर दिया था, किन्तु फिर भी दुकान के निचले तल पर क्षति की सम्भावना बनी हुई थी इस कारण दुकानदार ने हम जैसे चार लोगों को लेकर सुरक्षा की दृष्टि से दुकान के पीछे लगी हुई सीढ़ियों से दुकान के ऊपर तीसरी मंज़िल पर आ गया था जो कि एक खुली और काफी सुरक्षित जगह थी और जहाँ से मुख्य चैराहे पर पुलिस और भीड़ के बीच संघर्ष होते देखा जा सकता था।

लगातार बढ़ रही भीड़ पर नियंत्रण पाने के लिये अतिरिक्त पुलिस बल पहुँचता इसके पहले ही दो महिला पुलिसकर्मी तथा दस से बारह पुरूष पुलिस कर्मी बुरी तरह घायल हो चुके थे, बहुत सारे प्राइवेट वाहनों को तोड़ दिया गया था, बाजार में अपनी नियमित ख़रीददारी कर रहे लोग बदहवास से इधर उधर भाग रहे थे, दुकानें या तो लूटी जा चुकी थी या उनके शटर बन्द कर दिये गये थे।

‘‘किसी भी बिल के विरोध करने का यह कौन सा तरीका हुआ।‘‘ मेरे साथ खड़े एक व्यक्ति ने कहा।

‘‘इस भीड़ को सत्ता प्राप्ति के लिये संघर्ष कर रहे लोगों और उनके नेताओं का भी समर्थन प्राप्त है।‘‘ दूसरे व्यक्ति ने कहा


‘‘यह बिल के विरोध का उत्पात नहीं है, आम जनता जो उनको नहीं मानते उन पर सीधा आक्रमण है।‘‘ तीसरे ने कहा‘‘

‘‘ये वो लोग हैं जिन्हे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर विश्वास नही है, और केवल पूरे देश पर ही नहीं पूरे विश्व में अपनी आवधारणाओं, मान्यताओं को अपने बल से थोपना चाहते है।‘‘ चैथे व्यक्ति ने कहा

अतिरिक्त पुलिस बल और फायर ब्रिगेड की गाड़ियों को पहुचने में तीस से चालीस मिनट का समय लग गया था, एक घण्टे से अधिक समय तक प्रयास करने के बाद ही अग्नि पर काबू पाया जा सका था, भीड़ अपने झंडे डंडे और खाली कनस्तर छोड़कर भाग गयी थी।

घायल पुलिस कर्मीयों तथा तीन चार उपद्रवियों को अस्पताल पहुँचा दिया गया था, कई उपद्रवियों को पुलिस ने पकड़ भी लिया था, चैराहे पर शान्ति स्थापित हों चुकी थी नगर के अन्य संवेदनशील स्थानों पर भी पुलिस बल तैनात कर दिया गया था।

‘‘सुबह का समाचार पत्र पढ लेना इन घायल पुलिस कर्मीयों का कोई जिक्र नही होगा किन्तु भीड़ के समर्थन में कई नेताओं के बयान छपे होंगे।‘‘ दुकानदार ने कहा

‘‘सुबह तो कई नेता इन उपद्रवियों के घर भी पहुंचेगे इनकी सफलता का हाल चाल जानने।‘‘ पहले व्यक्ति ने कहा।

पुलिस की सहायता से हम सभी को अपने - अपने घरों तक सुरक्षित पहुँचा दिया गया था।

टी0 वी0 न्यूज चैनलों तथा समाचार पत्रों में भी इसी प्रकार के हिंसक विरोध प्रर्दशन के समाचार देश के अन्य शहरों से भी आने लगे थे, कुछ विशेष कॉलेजों के छात्रों को भी भड़का दिया गया था, यह युवा पीढ़ी और भी अधिक उग्र हो गयी थी, विरोध में भाड़े के लोगो को प्रयोग किया जाने लगा था, टी0 वी0 न्यूज चैनलों पर प्रदर्शनकारियों के साक्षात्कार भी आने लगे थे जिससे स्पष्ट पता चलता है कि उन्हे तो अपने प्रदर्शन के विषय में कुछ पता ही नही है, वे किसका और क्यूँ विरोध कर रहे है, कुछ भी स्पष्ट नही हो रहा था।

हिंसक भीड़ के द्वारा लगाये जा रहे नारों के बारे में तो मैंने आप को कुछ बताया ही नहीं ‘‘मुझे चाहिए आज़ादी - जिन्ना वाली आज़ादी‘‘, ‘‘फ्री काश्मीर‘, ला इलाहा इलिलाह - तेरा मेरा रिश्ता क्या‘‘ ‘‘गुरूवर हम शर्मिदा है - तेरे कातिल जिन्दा है।" मेरा सर शर्म से झुक गया जब मैंने अपने एक प्रदेश की मुख्यमंत्री को टी0 वी0 की एक दुकान पर चल रहे समाचार चैनल पर ‘‘छीः छीः‘‘ कहते हुए सुना और देखा।

‘‘कुछ तो शर्म करो मुख्यमंत्री महोदया।‘‘ टी0 वी0 की दुकान पर हमारे साथ खड़े एक व्यक्ति ने कहा और एक बड़ा सा थूक दुकान के बाहर नाली में थूक कर चला गया।

मित्र द्वारा सुनायी गयी कहानी पर मैं कभी भी पूरी तरह विश्वास नहीं कर पाया था किन्तु सामने भोगे हुए सच ने मेरे भ्रम और विश्वास को तोड़ दिया था। मेरे मित्र के पिता सात वर्ष के थे जब उनके पिता इसी प्रकार भीड़ की हिंसा का शिकार होकर अपनी छोटी बहन और पत्नी के नग्न शरीर को रावलपिण्डी की सड़कों पर छोड़ कर पुत्र के साथ दिल्ली की सड़को पर किसी प्रकार बच कर आ गये थे, यह उन्नीस सौ सैतालिस के आज़ाद भारत का दिल्ली था, सत्ता के केन्द्र पर भारतीय ही बैठ चुके थे, किन्तु अपनी जान बचा कर भाग आये लोगों का कोई भी हमदर्द यहाँ पर भी नही था, वे विस्थापित और अकेले थे जीवन की मूल अवशयकताओं के लिये भी संघर्ष करते हुए, जिन्हें सत्ता मिल चुकी थी वे अपने मद में चूर हो रहे थे। मित्र के दादा जी के रावलपिण्डी से दिल्ली तक के सफर और फिर दिल्ली में उनके द्वारा भोगे हुए सच की इस यर्थात कहानी को लिखने का अब मैंने मन बना लिया है।



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