धर्म और समाज
धर्म और समाज


व्यक्तिगत मतों में अन्तर हो सकता हो सकता है किन्तु समाज विविध मान्यताओं, पूजा या आराधना पद्यातियों से मिल कर ही बनता है, कोई भी पूजा या अराधना पद्याति मानवीय समाज का धर्म नहींं हो सकता किन्तु समाज का धर्म हो सकता है, और वह है मानवता,। सभयता के विभिन्न काल खण्डों में मानवता के वास्तविक मूल्य सदैव स्थिर रहे और वह है सहयोग, प्रेम और करूणा, समय-समय पर उपसना विधि को बदलने वाले लोग या यूँ कहे महापुरूष पैदा होते रहे है अपनी-अपनी मान्यताओं को लेकर किन्तु मानवीय मूल्यों में कभी कोई अन्तर नहीं हुआ और इसी को हम सनातन मानते है।
जो विज्ञान की कसौटी पर खरा नहींं उतरता वह कुछ भी हो सकता है किन्तु धर्म नहीं, कोई भी उपासना पद्याति धर्म नहींं है, और यही कारण है कि धर्म के नाम पर पनपने वाली सभी उपसना पद्यातियों के मानने वालों ने आपस में ही संघर्ष करते रहे है, इतिहास इस बात का प्रत्यक्ष साक्षी है कि दो विभिन्न उपासना पद्यातियों को मानने वालो में कभी उतने संघर्ष नहीं हुए जितने एक ही उपसना पद्याति या धर्म को मानने वालो के दो गुटों में उदाहरण के लिये इस्लाम धर्म में शिया और सुन्नी, ईसाई धर्म मै कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट जैन धर्म मै दिगम्बर और श्वेताम्वर बौध धर्म मै हीनयान और महायान यह एक विचारणीय प्रश्न है कि इन धर्मो की स्थापना करने वाले महापुरूषो ने अपने-अपने अनुयायिओं को क्या शिक्षा दी कि उनके बाद ये सब आपस में ही संघर्ष करने लगे और ये संघर्ष आज भी जारी है ठीक उसी प्रकार जैसे वे प्रारम्भ मै थे इनका कोई विकास हुआ ही नहीं मेरा तो स्पष्ट मानना है कि ये कुछ भी हो सकता है। किन्तु धर्म कहलाने की योग्यता नहीं रखता।
सम्पन्नता और सम्पत्ति के संघर्ष तो उचित हो सकते हैं किन्तु अपनी-अपनी उपासना पद्याति को स्थापित करने हेतु किये जा रहे संघर्षाे को तो कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता है, और एक धर्म या एक ही उपासना पद्याति का दो विभिन्न गुटो या समुदायों में बंट कर आपस में ही हो रहे संघर्ष तो मूर्खता के सिवा और कुछ भी नहीं है,। जिस बात या तथ्य की वैज्ञानिक पुष्टि नहींं हो सकती वह धर्म भी नहीं हो सकता विभिन्न उपासना पद्यातियां धर्म नहीं है।
विविध धर्माे या उपासना पद्यातियों को मानने वाले लोग यदि एक समाज में एक स्थान पर परस्पर सहयोग, प्रेम और करूणा के साथ प्रसन्नता पूर्व नहीं रह सकते तो हम स्पष्ट रूप से वह कह सकते है कि हमारे समाज का धार्मिक उत्थान हुआ ही नहीं है, वरना हमारा पतन ही अधिक हुआ है, धर्म और समाज की परिभाषायें कही अधूरी रह गयी है, मानीय सभ्यता का अभी विकास नहीं हो सका है, हमने भौतिक विकास कितना भी क्यूं न कर लिया हो किन्तु अभी मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं बन सके है, मनुष्यता के वास्तविक धर्म की अवधारणा का जन्म लेना अभी बाकी रह गया है और जिस दिन भी या जब भी इसका जन्म होगा वह सनातन कहा जायेगा जो हमेशा से था आज भी और इसी रूप में आगे रहेगा, प्रेम, सहयोग और करूणा के रूप में।
रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ की निम्न पंक्तिया महात्वपूर्ण हैः-
है धर्म पहुंचना नहींं, धर्म तो जीवन भर चलने में है ।
फैला कर पथ में स्निग्ध ज्योति, दीपक समान जलने में है ।