राम की व्यथा
राम की व्यथा
आज मैं अयोध्या में हूँ राजा राम के समक्ष। वे अपने शयन कक्ष में विचलित हो कर चहलकदमी कर रहे थे। मैं उनके पास गई और उनसे पूछा- “क्या हुआ प्रभु, आप इस प्रकार विचलित प्रतीत क्यो हो रहे है?
उन्होंने एक दीर्घ श्वास लेते हुए कहा- “आज रघुवंश सदा सदा के लिए श्रीहीन हो गया है। सीते के ऋण से रघुवंश कुल की आने वाली पीढ़ियां कदाचित कभी नहीं मुक्त नहीं हो सकेंगी।
मैं पल भर के लिए मौन हो गई। फिर एक प्रश्न किया- “आपने मात्र एक धोबी के कहने पर माता को पुनः वन में क्यों भेज दिया? आप प्रतिकार भी तो कर सकते थे।”
“अवश्य ही सीता के सम्मान के लिए प्रतिकार करना मेरा कर्तव्य था लेकिन यह एक राजा के लिए संभव नहीं। यदि भरत अयोध्या का राजकाज संभलता तो मैं भी उनके साथ वन प्रस्थान कर सकता था लेकिन यह मेरे लिए असंभव था इसलिए मैने सीता को वन भेज दिया ताकि मानवजाति की आने वाली पीढ़ियां राष्ट्र की दुर्दशा के लिए सीता को नहीं बल्कि सीता की दुर्दशा के लिए राजा राम को दोषी कह सके।”