राखी सजी कलाई- लोक व्यवहार

राखी सजी कलाई- लोक व्यवहार

5 mins
418


अमिता आज अजीब सी कशमकश में थी। परांठा तवे पर पड़ा पड़ा राख हुआ जा रहा था और दूध उबल उबलकर उसका ध्यान अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहा था पर उसका मन न जाने किस उधेड़बुन में लगा था। अपने ख्यालों में खोई खोई कुछ सोच ही रही थी कि तभी पराग ने उसे आवाज़ दी। अमिता...? आज नाश्ता मिलेगा या यूं ही चला जाऊँ। पराग के आवाज़ देते ही अमिता की नींद जैसे टूटी और वह विचारों की सागर से गोता लगाकर बाहर आ गई।‌ चूल्हे पर नजर मारी तो देखा कि सब कुछ उथल पुथल हो चुका था। जल्दी-जल्दी सब कुछ समेटने लगी और जल्दी से चाय नाश्ता बना कर टेबल पर‌ लगाने लगी।

माथे पर चिंता की रेखाएं देखकर पराग ने पूछा ! "क्या बात है ? कुछ परेशान दिख रही हो। सब ठीक तो है।"


"नहीं...नहीं...सब कुछ ठीक है। ऐसी कोई बात नहीं।" वह ऐसा कह तो रही थी पर अंदर से जानती थी कि सब कुछ ठीक नहीं है। जल्दी ही रक्षाबंधन का त्यौहार आने वाला था और भैया भाभी से जिस प्रकार की नाराज़गी हुई थी। उसे लेकर वह दुविधा में थी कि वह अब भाई को राखी भी भेजे या नहीं। आखिर बात ही इतनी बड़ी थी। वह भला उसे भूल कैसे सकती थी। अभी कुछ महीने पहले ही तो हुआ था यह सब। मौसी की बेटी की शादी में। ज़रा सी बात ही राई का पहाड़ बन गई थी और तू तू मैं मैं से शुरू हुई बात न जाने कहां तक जा पहुंची थी। किसी गलत रस्म के चलते अमिता ने जरा सा टोक क्या दिया अपनी भाभी को कि वह उसे जी भरकर खरी-खोटी सुनाने लगी और तो और उसने वहां पर खड़े लोगों का भी लिहाज नहीं किया। वहां खड़ा उसका भाई भी यह सब देखे जा रहा था पर उसके मुंह से एक बोल भी नहीं फूटा। आखिर ऐसा भाई किस काम का जो बहन की लाज की रक्षा भी ना कर सके आखिर ऐसे भाई को मैं राखी भेजूं ही क्यों।


नहीं-नहीं....मैं राखी नहीं भेजूंगी। अगर भाई को मेरी जरा सी भी परवाह होती तो कम से कम एक फोन ही कर दिया होता और पूछ लिया होता कि बहना राखी कब तक भेजोगी पर उससे तो वह भी ना हुआ। जोरू का गुलाम कहीं का! ऐसा सोचते ही अमिता के मन में अपनी भाई राकेश की शादी के समय के चित्र फिर से उभरने लगे। अमिता राकेश से उम्र में 6 वर्ष बड़ी थी उसने अपने भाई की शादी में जी जान लगा दी थी और कोई कोर कसर ना छोड़ी थी। वह अपनी भाभी अंजलि में अपनी बेटी को देखती थी शादी के 1 वर्ष तक उसने अंजलि को अपने हाथों से सजाया था। एक-एक कर उसे अपने भाई की शादी की सारी रस्में याद आने लगी कैसे उसने अंजली का गृह प्रवेश करवाया था। कैसे उन दोनों को कंगना खिलाया था। कैसे लाड से अपने भाई का सेहरा सजाया था, कैसे अपनी भाभी का पग फेरा कराया था, अंजलि के पीहर वाले तारीफ करते न थकते थे। सारी आस पड़ोस वाले भी यही कहते थे कि अगर ससुराल मिले तो अंजलि जैसा मिले, कैसी माँ जैसी ननद मिली है जो इतने लाड प्यार से रखती है। देखो 4 दिनों में ही अंजली का चेहरा कैसा खिल गया है। कितने महीनों तक उसने अंजलि के हाथों की मेंहदी का रंग फीका नहीं पड़ने दिया था। और अब यही भाभी उसे खरी-खोटी सुनाती है और यही नहीं उसका भाई भी उसमें उसका साथ देता है।


देखो एक बार भी फोन नहीं किया। जानना भी नहीं चाहा कि मैं कैसी हूं। पर यह भी तो हो सकता है ना कि वहां घर में कोई समस्या हो। आखिर मैंने भी कहां फोन किया। वहां सब कुछ ठीक तो होगा ना कहीं अंजलि बीमार तो नहीं। कहीं राकेश को तो कुछ नहीं हुआ। ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि राखी पर मुझे कभी फोन ना करें।


नहीं...नहीं! मैं राखी भेज ही देती हूं। ज्यादा होगा तो चिट्ठी नहीं लिखूंगी बात भी नहीं करूंगी। मैं बड़ी बहन हूं। मुझे बड़ी बहन का दायित्व तो निभाना ही होगा। यह सोचकर अमिता बाहर गई और राखी ख़रीद लाई। जल्दी से उन्हें पोस्ट भी करवा दिया। इसके बाद 4 दिन बाद जब फोन की घंटी बजी तो अमिता ने लपक कर फोन उठाया। जैसे ही राकेश की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। उसके दिल को जैसे अजीब सा सुकून मिला। राकेश का गला भर्राया हुआ था। लड़खड़ाती सी आवाज़ में बोला, दीदी...? इस बार रक्षाबंधन पर क्या राखी बांधने नहीं आओगी। अमिता ने कोई जवाब नहीं दिया। राकेश उसकी चुप्पी को समझ गया और कहने लगा "मैं जानता हूं कि आप मुझसे नाराज़ हो। मैं जानता हूं कि मेरे और अंजलि के कारण आपका दिल दुखा है पर सच जानिए उस दिन जो कुछ भी हुआ वह इतने अकस्मात हुआ कि मैं कुछ समझ ही नहीं पाया कि उस स्थिति में क्या करूँ। मेरा उद्देश्य आपका दिल दुखाना कभी नहीं था। अंजलि को भी तुरंत ही अपनी ग़लती का एहसास हो गया किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। आप रुठ कर अपने घर जा चुकी थी। तब से लेकर अब तक हम दोनों आत्मग्लानि से मरे जा रहे थे लेकिन इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा पाए कि आपको एक फोन ही कर सकें। आपकी डांट तो हम खा भी लेते लेकिन सबसे ज्यादा डर तो हमें इस बात का था कि कहीं आपने हमें माफ़ न किया तो हम क्या करेंगे। हम जानते हैं इसे भुलाना आसान तो ना होगा पर हो सके तो हम दोनों को माफ़ कर दीजिए दीदी।" ऐसा कह कर वह जोर जोर से रोने लगा।

"अरे...! बावला हो गया है क्या...? शादीशुदा होकर के रोता है। चल हट। मैं कहीं नाराज़ वाराज़ नहीं हूं तुझ से। चल अब चुप हो जा और अंजलि को फोन दे।"


राकेश अंजलि को फोन दे देता है। "दीदी....हमें हमारी गलती के लिए..... अरे...बस बस...अब तू रहने दे अंजलि। अब फिर से राकेश वाला वही राग मत अलाप। मैंने कहा ना मैं कहीं नाराज़ नहीं हूं तुमसे। अच्छा बताओ फिर आते हुए कौन सी मिठाई लेकर आऊं...?" ऐसा कहते हुए अमिता के चेहरे पर अलग की चमक थी और उसका मन खुशी से मुस्कुरा रहा था और वह सोच रही थी कि जिस व्यक्ति ने भी यह रीत-रिवाज, नेग-त्यौहार बनाए हैं। वह अवश्य ही बेहद बुद्धिमान व्यक्ति रहा होगा। ये रीति रिवाज त्यौहार रिश्तों को जोड़े रखने का एक बड़ा ही खूबसूरत माध्यम हैं जो राखी मेरे भाई की कलाई पर सजती है वह केवल राखी नहीं है बल्कि हमारे रिश्ते के बीच का प्रेम और विश्वास है। मेरे भाई की कलाई को सदा राखी से सजी रहना चाहिए।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational