संतोषम परम सुखम
संतोषम परम सुखम
कभी कभी जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जिन्हें हम चाहें पर फिर भी उम्र भर भूल नहीं पाते। यह घटनाएं हमारे मस्तिष्क में एक गहरी छाप छोड़ जाती हैं और जब भी हमें याद आती हैं तो हम अपने हंसी को रोक नहीं पाते। कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जो हमें कुछ गुदगुदाती तो हैं पर साथ ही साथ हमें भविष्य के लिए कुछ शिक्षाएं भी दी जाती हैं और अनजाने में ही जीवन में हम उन घटनाओं की वजह से कुछ ऐसा सीख जाते हैं जो शायद हमारे लिए सीखना वैसे इतना आसान ना हो पाता ऐसी ही एक घटना मुझे आज याद आ रही है।
बात उन दिनों की है जब मैं कॉलेज में बीए के द्वितीय वर्ष में थी। हम सखियों का एक बहुत बड़ा समूह था।बचपन से जवानी की दहलीज पर कदम बढ़ाया ही था। जैसा कि आप सभी जानते ही हैं उस समय जीवन में एक नया उत्साह होता है। इंसान के मन में कुछ करने की चाह होती है। इंसान दूसरों के समक्ष अपने आप को अव्वल दिखाना चाहता है कि जो उसे आता है वह अन्य किसी को नहीं आता और ऐसी भावनाएं सभी में थीं। प्राय: सभी सखियां आपस में बातें किया करतीं और बातों ही बातों में अपनी कोई ना कोई विशेषता का गुणगान एक दूसरे के सामने किया करतीं। मैं एक साधारण परिवार से संबंध रखती थी ज्यादा बड़ी बड़ी बातें मेरी समझ में नहीं आती थीं इसलिए प्राय: मैं चुपचाप रह कर सब की बातें सुना करती परंतु जो मेरी कुछ विशिष्ट सखियां थीं मैं उनसे अक्सर खुलकर हर प्रकार की बातें किया करती। इस प्रकार से सारा दिन कभी कक्षाएं लगाकर कभी बतियाते सारा वक्त बहुत अच्छा गुजरता था। जब मेरी सखियां मेरे समक्ष अपना गुणगान किया करतीं अपनी विशेषता का प्रदर्शन किया करतीं तो अक्सर मैं सोचा करती है मेरे अंदर क्यों इस प्रकार की कोई विशेषता नहीं है या मैं ऐसा कुछ क्यों नहीं कर पाती कि लोग मेरी भी प्रशंसा करें। मेरी सखियां हर प्रकार के वर्ग से संबंधित थीं। कुछ बहुत ही विशिष्ट और धनी परिवारों से संबंध रखती थीं। कुछ मध्यमवर्गीय परिवारों से संबंधित थीं वे कुछ अन्य गरीब परिवारों से भी संबंधित थीं पर सभी के मध्य विशेष प्रेम और स्नेह था और किसी को भी अपने अमीर होने का अभिमान अथवा किसी को भी गरीब होने के ग्लानि नहीं थी। वस्तुतः किसी ने किसी अन्य को किसी प्रकार के भेदभाव का कोई एहसास नहीं होने दिया था।
ऐसे में एक दिन मेरी सखी मीनू ने एक नयी मोपेड खरीदी। जिस पर गिजमो लिखा था। उसके वाहन को देखकर सभी लड़कियां बहुत उत्साहित थीं और सभी इसे चला कर देखना चाहती थीं पर समस्या यह थी की चलानी किसी को भी नहीं आती थी। सभी सखियां पास आईं। बारी बारी से उसकी जांच परख करके और मन मसोसकर पीछे हट गईं। उसी क्षण ना जाने मेरे दिमाग में क्या आया कि मैंने झट से कह दिया हम्म? ऐसे वाहन तो मैंने बहुत बार चलाए हैं। मोपेड चलाना कौन सा बहुत बड़ी बात है। जैसे ही मैंने ऐसा कहा सारी सखियां बहुत ही विस्मय से मेरी और देखने लगीं आज तो जैसे मानो मुझे मन मांगी मुराद मिल गई थी मैं तो जैसे गर्व से फूली नहीं समा रही थी।
ओह हो ! तुम्हें मोपेड चलानी आती है ! एक सखी ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा। मैंने कहा: हां ! हां !
इसमें कौन सी बड़ी बात है। क्या तुम्हें चलानी नहीं आती? मैंने भौंहें सिकोड़ते हुए पूछा। उसने कहा: नहीं, नहीं, ऐसे ही
! बस कभी कोशिश नहीं की। मैंने कहा यह तो बेहद आसान है देखो चाबी लगाओ, शुरू करो और चल दो बस तुम्हें अपना संतुलन बनाना आना चाहिए सभी सखियां टकटकी लगाए मुझे देख रही थीं और ध्यान से सुन रही थीं।
उस दिन तो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो मैं कोई गुरु हूं और वह सभी मेरी शिष्याएं हैं।आह हा ! जीवन का आनंद आ गया। कितना आनंद आता है ना शेखी बघारने में? मैंने मन ही मन मुस्कुराते हुए सोचा। उस दिन मेरी चाल में एक गजब का विश्वास था लेकिन यह नहीं जानती थी कि भाग्य में क्या बदा है। नहीं जानती थी कि जल्द ही "आ बैल मुझे मार" वाली कहावत मुझ पर ही चरितार्थ होने वाली थी। कुछ दिन तो हंसी खेल में यूं ही गुजर गए। सखियों में भी कुछ अलग ही रौब दाब हो गया था तो सखियां भी कुछ विशिष्ट ही सम्मान देने लगी थीं तभी मानो जैसे ईश्वर को मेरी खुशी मंजूर नहीं थी। भगवान ने भी सोचा ! आ ! अभी तेरी हेकड़ी ढ़ीली किए देता हूं। तभी एक सखी मीनू का संदेशा लेकर आई कि मीनू ने तुम्हें बाहर बगीचे में जल्दी आने को कहा है। उसे कोई बहुत जरूरी काम है।
जैसे कि मैं वहां पहुंची तो मीनू मेरी की प्रतीक्षा में थी। मेरी एक अन्य साथी प्रतिमा भी उसके साथ थी।
मीनू ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा क्या तुम मेरा एक जरूरी काम कर दोगी ? कृपया ना मत करना। बहुत ही जरूरी है। मेरी अगली संगीत की कक्षा है जिसे मैं किसी भी कीमत पर छोड़ नहीं सकती। मैंने कहा: तुम्हें कृपया कहने की आवश्यकता नहीं है मैं भला ना क्यों कहने लगी ! सखियों के लिए तो जान भी हाजिर है। तुम कहो क्या काम है ? उसने कहा घर पर हमने खाना सुबह ही तैयार कर दिया था और मां अपने ऑफिस चली गई परंतु जल्दबाजी में आज मां अपना खाना साथ ले जा नहीं पाई तो उन्होंने कहा था कि वह ऑफिस से किसी को भेज देंगी और मैं उनका खाना उसी के हाथ भिजवा दूं तो अब समय हो गया है अभी कोई ऑफिस से खाना लेने आता ही होगा।
ऐसा करोतुम मेरी मोपेड की चाबी ले जाओ और प्रतिमा को भी अपने साथ ले जाओ और रसोई घर में जाकर खाना बांधकर उस व्यक्ति को दे देना। जैसे ही मीनू ने ऐसा कहा मेरे चेहरे पर तो मानो हवाइयां उड़ने लगीं। मैंने सकपकाते हुए कहा नहीं नहीं ! मीनू ! इसकी कोई आवश्यकता नहीं। तुम्हारा घर पास ही में तो है हम दोनों पैदल ही चले जाएंगे।
नहीं, नहीं, ऐसा भला कैसे हो सकता है ? मेरे पास मोपेड है और तुम मेरे ही काम से जाओ और वह भी पैदल जाओ यह भला मैं कैसे होने दूं। तुम्हें मोपेड ले जानी ही होगी उसने जबरदस्ती मेरे हाथ में चाबी थमाते हुए कहामैं अपने चेहरे पर आते हुए डर की भावों को बड़ी मुश्किल से ही रोक पा रही थी पर मन ही मन अपने आप को कोस रही थी की जबरदस्ती कौन सी मुसीबत अपने गले मोल ले ली। एक तो मोपेड चलानी आती नहीं है ऊपर से प्रतिमा को भी पीछे बैठा कर ले जाना होगा। इससे बुरा भला अब और क्या हो सकता है? आज तो मेरा क्रिया कर्म होना तय है !
हे ईश्वर !मेरी लाज बचा ले
तेरे बिन अब कौन संभाले।
मन ही मन बढ़बढ़ाते हुए चाबी थामकर मैं आगे बढ़ने लगी। ज्यों ज्यों आगे बढ़ रही थी ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी ने 600 किलो का पत्थर पैरों से बांध दिया हो। एक-एक कदम उठाना भारी पड़ रहा था। लग रहा था मानो सारी जान से सिमटकर गले में आकर अटक गई हो। जैसे ही मोपेड के पास पहुंची तो जैसे तैसे सारा साहस बटोर कर चाबी उसमें लगाई। चेहरा पसीने से तरबतर हो रहा था और हाथ सूखे पत्ते की तरह कांप रहे थे। अपनी इन हरकतों पर नियंत्रण पाने का भरसक प्रयास करने के पश्चात भी मानो यह बरबस ही हो रहा था। प्रतिमा मुझे घूरे जा रही थी।
चाबी लगते ही मोटर ने घुन्न घुन्न की आवाज़ करना शुरू कर दिया। अब तो जैसे मेरा दिमाग ही सन्न हो गया। धीरे-धीरे मोटर की आवाज़ मेंरे दिमाग पर हावी होती जा रही थी।
बिना कुछ सोचे समझे और आंख बंद करके मैंने मोटर का हत्था पूरे जोर से घुमा दिया। मोटर एक जोर के झटके के साथ चल निकली और लडखड़ाती हुई आगे बढ़ने लगी। जैसे तैसे साहस जुटा कर मैंने आगे की तरफ देखा और यह क्या? मोपेड तो अपनी दिशा में निश्चिंत बढ़ती चली जा रही थी और उसकी गति के साथ ही धीरे-धीरे मेरा विश्वास भी वापस आता जा रहा था।
खैरसही समय पर हम अपने लक्ष्य पर पहुंच भी गए और अपना काम पूरा करके जैसे गए थे वैसे ही वापस आ भी गए।
वापस कॉलेज पहुंचकर मेरी जान में जान आई। उस दिन की घटना से मैंने एक सबक जरूर सीखा कि जो काम करना आता नहीं हो उसे कभी कहना भी नहीं चाहिए। उसके बाद तो न जाने मैंने कितनी बार मोपेड चलाई और इसमें पूरी तरह माहिर भी हो गई। परंतु इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं कि जो भी मैंने किया बिल्कुल सही था। उस दिन समय और भाग्य ने मेरा साथ दिया यह मेरा सौभाग्य था परंतु सौभाग्य को दुर्भाग्य में परिवर्तित होते देर नहीं लगती और सभी कहानियों का अंत सुखद भी नहीं होता। इसलिए हमें सदैव अपने मुख से निकले हुए वचनों पर ध्यान देना चाहिए और बहुत सोच समझकर बोलना चाहिए। क्या पता मुख से निकले हुए कौन से शब्द किस क्षण हमें कौन सी मुसीबत में डाल दें। इसलिए आप जैसे हैं उसी में खुश रहिए। वो कहते हैं ना कि "संतोषम परम सुखम"।
