प्यार का एक अनूठा रंग यह भी

प्यार का एक अनूठा रंग यह भी

16 mins
777


अभी विशाखा कालेज से आई ही थी कि मोबाइल घनघना उठा...असमय सुजाता का फोन आया देखकर वह चौंकी थी। एक वही तो थी जिससे अपनी हर बात शेयर कर सकती थी...उससे अगर एक दिन भी बात न हो तो खाना ही हजम नहीं होता था। विशाल कहते तुम बहनें भी घंटों फोन पर लगी रहती हो पर बातें हें कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेतीं । वह कल ही इलाहाबाद भइया के पास गई थी...इधर कुछ दिनों से ममा की तबियत ठीक नहीं चल रही थी। सशंकित मन से फोन उठाय

‘ दीदी, लग रहा है ममा अंतिम सांसें ले रही हें , पापा बहुत विचलित हें ...वह ममा के सम्मुख बैठे गीता का पाठ कर रहे हें पर मन से वह बहुत ही अशांत हें। ’

‘ गीता का पाठ...पर उन्हें तो इन सब पर कभी विश्वास नहीं रहा था। खैर छोड़, ममा को किसी डाक्टर के पास क्यों नहीं ले जाते...?’ हजार मील दूर बैठी विशाखा ने चिन्तित स्वर में कहा था।

‘ दीदी ममा की इच्छा थी, पापा ममा की अंतिम इच्छा का मान रख रहे है। जहाँ तक डाक्टर के पास जाने की बात है, भइया कह रहे थे कि डाक्टर ने जबाव दे दिया है। उनकी किडनी फेल हो गई है तथा हार्ट भी कम पंप कर रहा है।’ कहते हुये सुजाता रोने लगी थी।

‘ अरे, कुछ तो इलाज होगा...।’

‘ अब मै क्या बताऊँ , सुजीत आये नहीं हें , अगर मै इस संदर्भ में कुछ कहती हूँ तो शायद भइया भाभी को अच्छा न लगे...वे अपनी तरफ से पूरा प्रयास कर ही रहे है।’ 

‘ दीदी रखती हूँ , ममा बहुत तेज-तेज सांस ले रही है।’

‘ सुजाता सुन...।’ उसकी बात सुनने से पूर्व ही सुजाता ने फोन रख दिया था और बिलख पड़ी थी विशाखा।

ममा से जुड़ी यादें विशाखा के जेहन में उमड़-घुमड़ कर उसे परेशान करने लगीं थीं ...किसी तरह स्वयं को संभालकर उसने विशाल को फोन मिलाया। ट्रेन का आरक्षण मिलना कठिन था अगर फ्लाइट से जाती तब भी पंद्रह बीस घंटे से पहले नहीं पहुँच सकती थी। चेन्नई से पहले दिल्ली फिर उसके पश्चात् इलाहाबाद...। विशाल ने बुकिंग कराने का आश्वासन ही नहीं दिया वरन् स्वयं भी चलने के लिये तैयार हो गये। उसे विशाल की यही बात पसंद थी कि वे उसके सुख-दुख में सदा साथ खड़े रहे थे। वह पैकिंग कर ही रही थी कि भाई रितेश का फोन आया, उसने सशंकित मन से फोन उठाया, भाई की आवाज कहीं दूर से आती प्रतीत हो रही थी,‘ विशाखा हम हार गये, ममा हमें छोड़कर चली गई।’

‘ नहीं भाई, ऐसा नहीं हो सकता...।’ कहते हुये वह बिलख पड़ी थी।

‘ संभाल अपने आप को, अगर हम ही हिम्मत हार गये तो पापा को कौन संभालेगा ?’

‘ ठीक कह रहे हें भइया आप...पर मन को कैसे समझाऊँ ?’

‘ समझाना तो पड़ेगा ही, बता तू कब तक पहुँच रही है ?’

‘ भइया, सुजाता से ममा की तबियत के बारे में पता चलते ही विशाल को बुकिंग के लिये कह दिया है पर फिर भी पंद्रह से बीस घंटे तो लग ही जायेंगे।’

‘ ठीक है हम इंतजार करेंगे...।’ कहकर अजीत ने फोन रख दिया था।

उसने फोन रखा ही था कि विशाल का फोन आ गया...एक घंटे के अंदर ही हमें निकलना था। वह चाहकर भी उन्हें ममा के बारे में नहीं बता पाई। उसने कालेज में छुट्टी के लिये मेल की तथा जल्दी-जल्दी पैकिंग करने लगी।

‘ तुमने पैकिंग कर ली, मै टैक्सी लेकर आ गया हूँ...हमें शीघ्र से शीघ्र निकलना होगा।’ विशाल ने आते ही कहा।

विशाल को देखते ही उसके सब्र का बांध टूट गया...वह उनसे लिपट कर रो पड़ी तथा भइया द्वारा प्राप्त सूचना उन्हें दी। सुनकर विशाल ने उसे सांत्वना देते हुये कहा,‘ विशाखा संभालो स्वयं को, जो आया है उसे एक दिन जाना ही है...पुण्य आत्मा थीं इसलिये अधिक कष्ट नहीं सहा।’

विशाल कुछ गलत नहीं कह रहे थे...ममा पिछले एक वर्ष से कुछ अधिक ही बीमार थीं अगर अंतिम एक हफ्ते की बात छोड़ दें तो वह अंतिम समय तक अपना काम स्वयं ही करती रही थीं। उनकी बीमारी लाइलाज हो चुकी थी...डायबिटीज से वह पीड़ित थीं ही पर उम्र बढ़ने के साथ अर्थराइटिस भी हो गया जिसके कारण दर्दनिरोधक दवायें आवश्यकता से अधिक खाने के कारण उनकी किडनी पर भी असर आ गया था पर भइया के अनुसार उनकी मृत्यु का किडनी फेलियर से नहीं , हार्ट अटैक से हुई थी।

मन झंझावातो से भरा था...बचपन से लेकर आज तक के पल उसकी आंखों के सामने से गुजर रहे थे वह ममा की संघर्ष के समय की भी गवाह थी। दादाजी का निधन तभी हो गया था जब पापा इंजीनियारिंग के अंतिम वर्ष में थे। पापा के उपर एकाएक पूरे घर की जिम्मेदारी का बोझ आ गया था। उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करनी ही थी...साथ में अपने भाई और बहनों का भी ध्यान रखना था...गनीमत थी कि पढ़कर निकले ही थे कि उन्हें अपने कालेज में ही पढ़ाने का आफर मिल गया। अंधे को क्या चाहिये दो आँख...घर की गाड़ी चल निकली थी।

कुछ ही दिनों में दादी ने पापा का विवाह एक साधारण परिवार की साधारण पढ़ी लिखी लड़की से यह सोचकर कर दिया कि ज्यादा चूँ चपड़ नहीं करेगी। उनका अंदाजा सही था...ममा ने अपनी स्थिति को स्वीकार कर लिया था...वह पूरे दिन काम में लगी रहतीं मानो वह पूरे घर की धुरी हों , उनके बिना कोई एक कदम भी न चल पाता हो। दादी उनकी सेवा से प्रसन्न थीं ही उसकी बुआ क्षमा और रिचा पूरे दिन भाभी भाभी करके उनसे अपना काम करवाती रहतीं, यही हाल उसके चाचा रतन का था। वे सब भाई बहन भी उस विशाल वृक्ष की छाया तले बढ़ती रहीं ।

एक समय आया जब उसके चाचा और दोनों बुआओं का विवाह हो गया। दादी जहाँ संतुष्ट थीं वहीं माँ रिलेक्स महसूस कर रहीं थी, उस समय वह दसवीं कक्षा में थी जबकि भाई रितेश ग्रेजुएशन कर चुका था। वह चार्टेड एकाउन्टेट बनना चाहता था, वह सी.ए. का फाउन्डेशन क्लीयर कर चुका था तथा एकाउन्टेन्सी की इन्टरमीडियेट परीक्षा की तैयारी कर रहा था।

घर की अपनी जिम्मेदारियो से निबटने के पश्चात् अब ममा का पूरा ध्यान उनकी तरफ था। वह पुत्र के साथ पुत्रियो की भी उच्च शिक्षा की पक्षधर थीं । उन लोगों की पढ़ाई में व्यवधान न आये इस वजह से वह टी.वी. भी नहीं खोलती थीं । जब तक वे पढ़ते रहते, वे भी इस आशा में जगती रहतीं कि कहीं उन्हें उनकी आवश्यकता न पड़ जाये। अपने इस समय को वह जाड़ों में बुनाई तथा गर्मी में कढ़ाई करके पूरा किया करतीं।  

विशाखा को सुबह उठकर पढ़ने की आदत थी पर उसके साथ ही बुरी आदत थी कि उसे उठते ही चाय चाहिये थी। एक बार ममा को उठने में देर हो गई और वह चाय बनाने किचन में चली गई, इस बात ने ममा को इतना आहत किया कि उन्होंने उसे उन्हें न जगाने के लिये न केवल टोका वरन् दूसरे दिन से वह अलार्म क्लॉक अपने पास रखकर सोने लगीं ।

‘ लंच सर्व हो रहा है...।’

विशाल की आवाज सुनकर वह अतीत से बाहर आई...विशाल ने उसकी सीट के सामने की सीट पर लगी फोल्डिंग टेबल खोली, उनके टेबल खोलते ही एअर होस्टेस ने लंच उसे पकड़ाया। उसने मना किया तो विशाल ने एअर होस्टेस के हाथ से लंच ले लिया तथा उससे कहा,‘ माना तुम बहुत डिस्टर्ब हो पर कुछ न खाकर तुम अपना ही स्वास्थ्य खराब करोगी ?’

‘ जब तक मै ममा के अंतिम दर्शन नहीं कर लेती कुछ नहीं खाऊँगी...।’

‘ तुम्हें डायबिटीज भी है अगर शुगर लो हो गया तो...?’

‘ मुझे कुछ नहीं होगा...।’

‘ तुम्हारी जिद कहीं तुम्हें भी अस्पताल न पहुँचा दे...तुम्हें अपने पिता का संबल बनना है न कि उन्हें परेशान करना।’

रितेश और विशाल की एक ही बात सुनकर लगा वे ठीक ही कह रहे है और उसने बेमन से खाना खाना प्रारंभ कर दिया।

शीघ्र ही विमान ने दिल्ली की जमीन छू ली। विशाल ने दिल्ली से इलाहबाद के लिये टैक्सी बुक करा ली थी...उतरते ही इलाहबाद के लिये चल दिये। रितेश ने उसके पहुँचने में देरी होने के कारण ममा पार्थिव शरीर को बर्फ की सिल्ली पर रखवा दिया था।

आखिर दस घंटे का सफर तय करके हम इलाहबाद पहुंचे। लगभग सभी रिश्तेदार पहुँच चुके थे...वह जाकर पापा के कदमों के पास बैठ गई तथा फूट-फूटकर रोने लगी। पापा ने सिर्फ इतना कहा, ‘ सब्र कर बेटी, सब गिनती की सांसे लेकर आते है, सोच ले तेरी माँ का हमारे साथ बस इतना ही साथ था।’

पापा ने सारी रस्में धैर्य से निबाही...सबको दिलासा देते रहे पर उफ तक नहीं की। ममा की कमी तो कोई पूरी नहीं कर सकता था पर पापा को परिस्थितियो के साथ एडजेस्ट करते हुये देख सभी को अच्छा लग रहा था।

एक दिन भाभी का फोन आया, थोड़ा इधर-उधर की बात करते हुये कहा,‘ दीदी, पापा को पता नहीं क्या होता जा रहा है वह न ढंग से खाते है न पीते है बस कुर्सी पर आँख बंद किये पता नहीं क्या सोचते रहते है कभी चंचल और कृष्णा कभी उनके साथ बैठकर बातें करना चाहते है या उनका पसंदीदा खेल कैरम खेलकर उनका मन परिवर्तन करना चाहते है तो कह देते है बेटा तुम दोनों खेलो मेरा मन नहीं है। कमजोर भी होते जा रहे है, उनकी वजह से रितेश भी अत्यंत परेशान रहते है...समझ में नहीं आ रहा है क्या करें ?’

‘ ठीक है मै बात करती हूँ।’

‘ पापा को फोन दे दूँ ।’

‘ दे दीजिये।’

‘ पापाजी, विशाखा दीदी का फोन है।’

‘ कैसी है बेटा...?’‘ मै अच्छी हूँ ..आप कैसे है ?’‘ ठीक हूँ , बस जी रहा हूँ ।’

‘ पापा, आप ऐसे क्यों कह रहे है ?’

‘ बेटा तेरी माँ के बिना जीना ऐसा लग रहा है जैसे उधार की सांसे ले रहा हूँ ...पता नहीं उसके साथ मै भी क्यों नहीं चला गया ?’

वह उनके शब्दों के कंपन को भलीभांति महसूस कर सकती थी स्वयं को संभाल कर कहा,‘ पापा प्लीज ऐसा मत कहिये आपको हमारे लिये जीना होगा...आपको पढ़ने का शौक था पढ़िये, थोड़ा बाहर टहलिये, मन बदल जायेगा।’

‘ और कुछ तो पढ़ने की इच्छा नहीं होती पर गीता पढ़ने पर थोड़ी देर के लिये मन में सुकून अवश्य महसूस करता हूँ पर हमेशा ऐसा नहीं हो पाता...। मन को एकाग्र करने की कोशिश करता हूँ पर एकाग्र नहीं कर पाता और घूमना...मेरा स्वास्थ्य ही साथ नहीं देता। सच तो यह है बेटा अब मेरा किसी काम में मन नहीं लगता...तेरी ममा के साथ मेरी ज़िंदगी ही मानो समाप्त हो गई है।’

     ‘ पापा आप ही तो कहते थे, मन चंचल है। मन को बांधना...एकाग्र करना पड़ता है। वैसे भी पापा कोई किसी के साथ नहीं जाता, सबको अपने सुख-दुख यहीं इसी संसार में भोगने पड़ते है।’

‘ ठीक कह रही है बेटा...पर मन का क्या करूँ जिसमें तेरी ममा की यादें बसी है। उसके साथ बिताये सुख-दुख के पल याद आते है... ठीक है अब फोन रखता हूँ।’

पापा की इस आदत से वह भलीभांति परिचित थी, जब उन्हें बात नहीं करनी होती थी तब वह यही कहकर फोन काट दिया करते थे पर आज से पूर्व उसने पापा को कभी इतना विचलित नहीं पाया था।

अब वह नियम से उनसे बातें करती...एक दिन पापा ने कहा, ‘ बेटा, तुम और सुजाता मेरी इतनी चिंता क्यों करते हो ? मै ठीक हूँ ...रितेश और संजना के साथ चंचल और कृष्णा भी मेरा बहुत ध्यान रखते है। सच, मै बहुत खुशनसीब हूँ जो मुझे ऐसे बच्चे मिले। अब तो घूमने भी जाने लगा हूँ, आज पार्क भी गया था जहाँ तेरी ममा के साथ अक्सर जाया करता था। अच्छा लगा...।’

सुनकर मन को तसल्ली मिली अब पापा उससे अपनी हर बात शेयर करने लगे थे। ये वही पापा थे जो एक समय हम बच्चों के लिये हिटलर से कम नहीं थे। ज्यादा कुछ कहते नहीं थे पर उनकी आँखें हम बच्चों को अपनी गलती का एहसास करा देती थीं । उसे याद है कक्षा छह में उसके अच्छे नम्बर नहीं आये थे...पापा से अपनी मार्कशीट पर हस्ताक्षर करवाने ले गई तब उन्होने सिर्फ इतना कहा था...क्या पढ़ाई में तुम्हारा मन नहीं लग रहा है या पाठ समझ में नहीं आ रहा है...कारण जो भी हो पर भविष्य में अगर ऐसे नम्बर आये तो मै हस्ताक्षर नहीं करूँगा...।

उनकी धमकी का यह असर हुआ कि वह सदैव प्रथम श्रेणी में पास होती रही थी। दरअसल वह परीक्षाफल उसकी बुरी संगत का नतीजा था। वह कक्षा में जाने की बजाय अपनी सहेलियो के संग इधर-उधर घूमते हुये समय व्यतीत करने लगी थी। कुछ पापा का डर तथा कुछ कम उपस्थिति होने के कारण मैम की घर शिकायत भेजने की धमकी, उसे सही राह पर ले आई थी।

एक बार फिर पापा को जिंदगी की ओर लौटते देख मन को संतुष्टि मिली थी। न जाने कैसे दुनिया के नियम है, पुत्र और पुत्री एक ही कोख से पैदा होते है...एक ही इंसान के अंश होने के बावजूद पुत्र के हिस्से में ही कर्तव्य आते है जबकि पुत्रियाँ अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण चाहकर भी सहयोग नहीं कर पाती है। पुत्र और पुत्रवधू अच्छे है तो बुढ़ापा आराम से कट जाता है वरना जिंदगी नर्क बनती चली जाती है। 

एक दिन पापा को फोन करने ही जा रही थी कि उनका फोन आ गया...

‘ बेटा...।’ कहकर वह कुछ कहते-कहते रूक गये।

‘ क्या हुआ पापा...आप ठीक तो है ?’

       ‘ बेटा आज मै रोज की तरह पार्क गया था...एक बेंच पर थोड़ी देर आराम करने के उद्देश्य से बैठ गया। वह वही बेंच थी जिस पर तेरी ममा के साथ बैठा करता था...मन को पुरानी स्मृतियों ने घेर लिया। अचानक मुझे लगा कि तेरी ममा मेरे सामने से गुजर कर आगे बढ़ गई है...मुझे पता नहीं क्या हुआ मै उठा तथा उसके पास जाकर मैने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा,‘ शोभा तुम...?’

उस महिला ने मुझे तीखी नजरों से देखा और तीव्र स्वर में कहा,‘ बुढ़ा गये हो पर आशिकमिजाजी नहीं गई।’

उसके तीव्र स्वर को सुनकर आस-पास के कुछ लोग हमें देखने लगे...उनकी निगाहे मुझे शर्म से पानी-पानी कर रही थीं , बेध्यानी में किये अपने कृत्य के लिये क्षमायाचना करते हुये मैने कहा,‘ सारी बहनजी, दरअसल...।’

‘ बस...बस रहने भी दो...। तुम्हारे जैसे आशिक मिजाजों के कारण ही भले घर की बहू बेटियों का अकेले निकलना कठिन हो गया है...।’ उसने तिरस्कार के स्वर में कहा था।

‘ बेटा, उसकी बात सुनकर मुझे लगा कहीं चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जाऊँ ...। सफाई देने की गुंजाइश ही नहीं बची थी, मै उल्टे पैर लौट आया पर मन बहुत अशांत है...क्या तुझे मै ऐसा लगता हूँ ..?’ कहते हुये उनकी आवाज कंपकपा गई थी।

‘ प्लीज पापा आप ऐसा मत सोचिये...अगर आप उससे कहते कि उसमें आपको अपनी पत्नी की छवि नजर आई, केवल इसीलिये...।’

‘ लेकिन बेटा, क्या वह मुझ पर यकीन करती ?’

‘ अवश्य करती पापा, अगर आप अपना पक्ष रखते।’

उसकी बात का उत्तर देने की बजाय पापा ने फोन काट दिया था। उसे यह तो पता था कि पापा ममा को बहुत चाहते थे...। अपने कालेज के टूर की बात छोड़ दें तो शायद ही वे दोनों कहीं अलग-अलग गये हों । क्या कोई किसी को इस हद तक चाह सकता है कि उसे सोते जागते बस वही नजर आये ? पापा की बात सुनकर मन बेचैन हो गया पर उसके पास कोई उपाय भी तो नहीं था।

फ़्ते भर पश्चात् रितेश का फोन आया,‘ पापा खाना नहीं खा रहे है, हमारे आग्रह पर सिर्फ यही कहते है मुझे भूख नहीं है, ऐसा कितने दिन चलेगा, हम तो समझा-समझा कर हार गये हैं। तुम बात करके देखो शायद तुम्हारी बात मान जायें ।’

विशाखा ने बात की तो पापा ने कहा,‘ बेटा मेरा इस संसार से जी उचट गया है, अब मै जीना नहीं चाहता।’

‘ प्लीज पापा ऐसा मत कहिये...ममा तो हमें छोड़कर चली गई पर आपको हमारे लिये जीना होगा।’

‘ बेटा हर इंसान को एक न एक दिन जाना ही पड़ता...शायद मेरा भी समय हो गया है...तुम लोग अपनी जिंदगी में सुखी संपन्न रहो बस यही कामना है...ठीक है बेटा फोन रखता हूँ ।’ कहते हुये सदा की तरह उन्होने फोन काट दिया था।

विशाखा का मन नहीं माना और वह पापा से मिलने की चाह लिये चली आई...देखा वह अक्टूबर में भी दस्ताने पहने है।

‘ पापा अभी तो इतनी गर्मी नहीं है फिर आपने दस्ताने क्यों पहन रखे है ?’ अचानक वह पूछ बैठी।

‘ बेटा तुझे याद है सर्दी में जब मै स्कूटर चलाया करता था तो ठंड की वजह मेरे हाथ की अंगुलियाँ सूज जाया करती थीं ...तब तेरी माँ ने मेरे लिये यह दस्ताने बनाये थे। यह उसके द्वारा मुझे दी गई पहली गिफ्ट थी...मन में एक चाहत है जब उसके पास जाऊँ तो उसके द्वारा दिये इस उपहार के साथ जाऊँ बस इसीलिये पहन लिये हैं।’

‘ आपको कुछ नहीं होगा।’ पापा को बहकी-बहकी बातें करते देख उसने कहा था।

‘ बेटा, सुजाता को भी बुला लो...सबसे मिल लूँ। पता नहीं कब ईश्वर का बुलावा आ जाये।’

‘ प्लीज पापा...।’

‘ जाओ आराम करो और मुझे भी करने दो।’ कहकर उन्होंने आँखें बंद कर लीं।

‘ दीदी कुछ खा लीजिये...सफर से आई है।’ संजना ने अंदर आकर कहा।

संजना की आवाज ने उसके दरकते दिल को सांत्वना दी थी पर पापा की बात सुनकर उसका खाने का बिल्कुल था पर भाभी संजना का भी मन रखना था। खाते-खाते उसने सुजाता को भी पापा की बात बताते हुये फोन किया, वह फोन पर ही रोने लगी...उसे दिलासा देते हुये, शीघ्र आने के लिये कहकर उसने फोन काट दिया।

‘ दीदी, पापा कई दिनों से ऐसी ही बहकी-बहकी बात कर रहे हैं। कभी-कभी मन बेहद घबराने लगता है। ममा के जाने की टीस अभी कम नहीं हुई है कि पापा की ये हालत। रितेश अभी तक स्वयं को संभाल नहीं पाये है, अगर पापा को कुछ हो जाता है तो...।’ कहते हुये गंभीर हो गई थी संजना।

‘ भाभी होनी को कोई टाल नहीं सकता...दर्द सहने की शक्ति भी भगवान दे देता है पर जैसी पापा की मनःस्थिति है, उसे देखकर मेरी तो यही चाह है कि जो उनके लिये उचित हो वही हो...।’

‘ शायद आप ठीक कह रही है दीदी...।’

दूसरे दिन सुजाता आ गई थी...सुजाता के आते ही पापा ने कहा, ‘ बस अब मेरा पूरा परिवार मेरे साथ है...अब अगर भगवान बुलाना भी चाहे तो मुझे कोई गम नहीं है।’ कहते हुये उन्होंने आँखें मूँद ली।

रात को संजना भाभी ने उनको खाना खाने के लिये कहा तो उन्होंने कहा, ‘ बेटा, भूख नहीं है। ’

‘ पापा कुछ तो खा लीजिये...बिना खाये कैसे जीवन चलेगा ?’ विशाखा ने आग्रह किया था।

‘ जीवन की चाहत ही नहीं रही बेटा...ईश्वर से यही प्रार्थना है, बिना कष्ट दिये अब इस जीवन को ले ले।’

‘ प्लीज पापा ऐसा मत कहिये...।’ कहते हुये संजना की आँखें भर आई थीं वहीं सुजाता रोने लगी थी।

‘ मुझे क्षमा करना बेटा...पर इस दिल का क्या करूँ जो तुम्हारी ममा के बिना रहना ही नहीं चाहता...। तुमने मेरे लिये जितना किया है उतना तो शायद मेरी अपनी बेटियाँ भी नहीं कर पातीं। मेरे सारे दायित्व पूरे हो चुके है...मृत्यु चिरन्तन सत्य है बेटा, फिर उससे क्या घबराना...? वैसे जीवन मृत्यु पर किसी का वश नहीं है। अब मेरी परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि वह मुझे बुला ले...जिससे मेरे इस शरीर के सारे कष्ट दूर हो जायें। तुम सब अपने-अपने जीवन में खुश रहो बस इसी आस के साथ जीवन की अंतिम सांस लेना चाहता हूँ ...अब तुम लोग जाओ मैं आराम करना चाहता हूँ ।’ कहते हुये उन्होंने निस्पृहता से आँखें बंद कर ली। मानो वे मोह माया से दूर जाना चाहते हों।

सबने बेमन से खाना खाया...रितेश ने कहा, ‘ पता नहीं क्यों कुछ दिनों से पापा ऐसी ही बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं ? डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने भी यही कहा और सब तो ठीक है बस कोई मानसिक परेशानी है जो इन्हें परेशान कर रही है...इसीलिये तुम लोगों को भी यह सोचकर बुला लिया कि शायद तुमसे अपनी परेशानी शेयर कर पायें पर वह तो बात ही नहीं करना चाहते बस हमेशा ऐसी ही बातें करते रहते हैं।’

कहीं पार्क वाली बात तो उन्हें विचलित नहीं कर रही।’

‘ पार्क वाली बात...।’ रितेश और संजना ने चौंककर कहा।

विशाखा ने पापा से हुई सारी बातें बताई तो रितेश ने कहा,‘ ओह ! तो क्या इसी कारण पापा ने पार्क जाना छोड़ दिया। आजकल औरतें भी...कम से कम व्यक्ति की उम्र और मनःस्थिति का तो ख्याल करें !!! ’

‘ गलत तो वह औरत भी नहीं थी भइया, शायद इस परिस्थिति में कोई भी ऐसे ही रियेक्ट करती।’

‘ पर अब क्या करें ? ’ संजना ने कहा।

‘ बस पापा को समझाना होगा कि उस दिन जो हुआ उसमें आपकी कोई गलती नहीं थी।’

‘ दीदी, यह तो आपको ही करना होगा क्योंकि यह बात पापा ने आपको ही बताई है।’ सुजाता ने कहा।

‘ ठीक है कल मैं इस संदर्भ में पापा से बातें करती हूँ।’

दूसरे दिन सुबह संजना चाय लेकर पापा के कमरे में गई...उनकी स्थिति देखकर उसने रितेश को आवाज लगाई। उसकी आवाज सुनकर रितेश के साथ वे दोनों भी पापा के कमरे में गई...पापा को तेजी-तेजी सांस लेते देखकर रितेश ने घबराकर डाक्टर को फोन किया...। उनके पारिवारिक डाक्टर भल्ला तुरंत आ गये। डाक्टर चैक कर ही रहा था कि उन्होंने एक हिचकी ली उसके साथ ही उनकी बंद आँखे खुल गई...मानो वह अनंत आकाश में ममा को ढूंढ रही हों ।

रितेश पापा की आँखें बंद करने के साथ ही फफक पड़ा था ...

वहीं विशाखा और सुजाता पापा के पार्थिव शरीर से लिपट कर रोने लगी थी। ममा द्वारा बनाये दस्ताने पहने हाथों में ममा की फोटो देखकर आँखो में आँसू लिये विशाखा सोच रही थी कि प्रेम का यह कैसा अनूठा रंग है...सिर्फ दो महीने का वियोग...शायद प्रेम ने उन्हें योगी बना दिया था।  


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama