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पूज्य पिताजी

पूज्य पिताजी

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पूज्य पिताजी,

इस भारी भरकम लिफाफे को देखकर आपको आश्चर्य होगा कि जो शख्स आधे पोस्टकार्ड से काम चला लेता था, उसे यकायक लिफाफे की क्यों जरूरत पड़ी? इससे आपका दिल आशंकित हो उठेगा। व्यग्रता में आप उसे जल्दी-जल्दी पढ़ेंगे, मगर आंखों के सामने धुंध छाती जायेगी, तब आप सोचेंगे, जरा बैठकर इत्मीनान से इस खत को पढ़ा जाये।

यह खत आपको अटपटा इसलिए भी लगेगा कि मैंने इसकी शुरूआत ‘हम यहां कुशल हैं और भगवान की कृपा से आप सब भी सकुशल होंगे से नहीं की है। न ही अन्त चाचा जी, चाची जी को प्रणाम और ‘छोटों को प्यार’ से किया है।

इन तमाम औपचारिकताओं को ताक पर रखकर आज एक पुत्र पिता से मुखातिब  हो रहा है। हालांकि ऐसा करना भारतीय सन्दर्भ में अनाधिकार चेष्टा है। मगर घटनाएं और स्थितियां ने इतना भयानक मोड़ ले लिया, जहां से वे हमारे जीवन को विषाक्त कर दें, उसमें बदबू फूटने लगे, मौत मुक्ति का सामान लगे, ऐसी असाधारण स्थितियों में ही मुझे अनाधिकार चेष्टा करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसका औचित्य आपके तर्इ स्पष्ट हो जायेगा, इसमें मुझे शक है क्योंकि जो व्यक्ति जीवन भर अपने को सही समझता रहा, यहां तक कि समाज के प्रतिष्ठित लोगों ने भी उस समझ को सही बताया हो, वहां यह मुगालता इतना भयानक और भीषण हो जाता है कि कोर्इ कार्य या व्यवहार आपसे गलत भी हो सकता है, इसका आभास मात्र भी आपको नहीं होगा।

फिर भी, कभी-कभी, अन्दर ही अन्दर, कहीं गहरे अन्तर में आपको जरूर महसूस होता होगा कि आपसे गलती हो गर्इ है किंतु उसकी अभिव्यक्ति हो पाना असम्भव है। और उस गलती को महसूसते हुए भी, उसको जस्टीफार्इ करने में आप आकाश-पाताल एक कर देते हो। उसमें किसी तरह का संशोधन आपको स्वीकार नहीं और एक चिड़चिड़े जिद्दी बच्चे की तरह अड़े रहते हो।

यही हुआ, जब छोटे की शादी हुर्इ। छुटका दबंग था- जिसे आप बदतमीजी कहते हैं। आप प्रत्यक्षतः छुटके पर वार करने के लिए, अपनी गलती स्वीकार कर लेते थे ताकि छुटका वहीं शादी कर ले जहां आपने उसकी सगार्इ की थी, ताकि आपकी प्रतिष्ठा को आंच न आए। आप अपनी गलती स्वीकार कर रहे थे, बल्कि  इस बात पर पछता रहे थे कि छुटके को कालेज में पढ़ाना एक भयंकर भूल थी क्योंकि छुटका हाथ से निकल जाने का एहसास दे रहा था और आप उसे रोक पाने की स्थिति में नहीं थे, तब आपने माफी को अस्त्र बनाया। आपने एक पारम्परिक वचन ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ को निभा लेने में काफी जल्दी की क्योंकि आपको आशंका थी कि अगर बचपन में हुर्इ सगार्इ अब शादी में परिवर्तित न हुर्इ तो, एक तरफ तो समाज में मुंह काला हो जायेगा, दूसरी तरफ छुटका किसी और जात की लड़की को ब्याह लाएगा। हमारे सबके सम्मिलित  विरोध के बावजूद यह निश्चित था कि वह अन्तर्जातीय विवाह कर, कुल की मर्यादा पर कालिख पोत देता।

आपको यह भी मालूम था कि वह लड़की जिसे वह चाहता है, उसके साथ पढ़ी हुर्इ है और अन्य जाति की है। इससे आपका चिंतित होना स्वाभाविक था क्योंकि घर में अगर छुटके की ताकत बढ़ती तो निश्चित ही आपकी कम होती। विरोध की बढ़ती ताकत घर में एक तूफान उठा देती, जिसकी वजह से परिवार की पारम्परिक दीवारें ढह जाती। आप अप्रासंगिक हो जाते। तब मर्यादा की, जिन्हें मैं अब तक पालता आ रहा हूँ, हो सकता है, उस माहौल में नहीं पाल पाता, अब जो सुकून आपको मुझसे मिलता है, वह फिर नहीं मिल पाता तथा उपलब्धियों के नाम पर आपके खाते में पछताने के अलावा क्या रह जाता!

मुझसे गलती यह हुर्इ कि मैने छुटके का साथ नहीं देकर बड़े-बूढ़े का साथ दिया। अगर मैंने उस वक्त आपका साथ नहीं दिया होता, तो बार-बार जो गलतियां आप करते रहें और मर्यादावश हम मूक साक्षी रहे, वे नहीं होती हालांकि उससे आप टूट जाते यानी आपका अहं क्षत-विक्षत हो जाता, हो सकता है तब आप वीतरागी हो जाते और उन तमाम मामलों में विरक्त रहते जिनमें आपका होना निहायत जरूरी था।

एक परम्परा जो पीढ़ियों से चली आर्इ है, सास-बहू के झगड़े की तरह हर बहू तमाम उत्पीड़न के बावजूद सास बनते ही, सास के शास्त्रीय फ्रेम में फिट हो जाती है। उसी तरह आपको बाबा ने पचास साल की उम्र तक निरा बच्चा ही समझा। वही किया आपने भी, अपने बच्चों के साथ। मुझे ऐसा नहीं लगता कि आप हमें नाकाबिल-अपरिपक्व बच्चे समझते हैं। फिर भी आपने हमारे मामलों में हमसे राय लेना उचित नहीं समझा। क्या इससे आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस लगती या आपकी पारिवारिक शक्ति कम होती। आप शायद जानते थे कि राय लेना खतरनाक साबित हो सकता है। क्योंकि हम नये जमाने के बिगड़ैल लड़के थे, खास तौर पर छुटका। आप हमें आपके आदर्शों और मूल्यों पर चलने के लिए बाध्य करते रहे।

बाबा के देहांत के बाद,  परिवार में बड़े होने के नाते, एकाएक सबसे जिम्मेदार आप हो गए थे और यह जिम्मेदारी काफी इन्तजार के बाद मिली थी। इसमें प्रतिष्ठा है। प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति जाति-समाज की परम्पराओं, रीति-रिवाजों को जरा जोर-शोर से निभाएं। इन परम्पराओं को निभाते -निभाते आपने कब परिवार में कलह के बीज बो दिए, आपको पता ही नहीं चला।

एक साधारण व्यक्ति के लिए इस तरह की सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करना, परिवार होम कर देना है लेकिन आपने आगे देखा न पीछे, परिवार की आहुति देते रहे और आपके बिगड़ैल बच्चे इस तरह की प्रतिष्ठा प्राप्त करना बेवकूफी समझते रहे।

वे ही बुआएं,  चाचा, भतीजे और संबंधी घर-घर जाकर आपकी व आपके परिवार की बुरार्इ करते हैं। मंझले को भड़काते हैं जिन पोतों को आप अपना समझते हैं मंझला उन्हें अपना बेटा समझता है।  वह चाहता है अपने बच्चों का जीवन वह अपने ढंग से संवारे, दादा की इच्छाओं से अलग।

लेकिन आपने अपने विचार में, पोते-पोतियों के संबंध कराना  अपना जिम्मा समझा। इसलिए भी कि हम जैसे नौकरी-पेशा वालों को जाति समाज में जानता ही कौन है  जबकि आप मारवाड़ के तमाम जाति-समाज के घर परिवार को जानते थे : न केवल जानते थे बल्कि उनकी पीढ़ियों का हिसाब था। इस तमाम जानकारी के दम पर  और समाज की यह मर्यादा कि जब तक बाप जिंदा है बेटा अपने पुत्र-पुत्रियों के संबंध तय नहीं करता। पोते के संबंध के लिए लोग पिता के आस पास नहीं, दादा के पास आते हैं। इस पितृ सत्तात्मक परिवार में आपकी सत्ता दुर्भेद्य थी।

जबकि आप जानते थे कि हिन्दुस्तान आजाद हो गया है। पुराने राजे-महाराजे इतिहास के पन्नों में सिमट गये हैं, अंग्रेजों की हुकूमत उठ गर्इ है। लोगों को पढ़ने-लिखने के अवसर मिल रहे हैं। फैक्ट्रियां खड़ी हो रही हैं। बांध बन रहे हैं बड़ी-बड़ी परियोजनाएं चल रही है। यानी उत्पादन के साधनों का विकास हो रहा है। लोग नौकरियां करने दूर-दूर जा रहे हैं। संयुक्त कुटुम्ब टूट रहे हैं। मां-बाप और बच्चे परिवार की इकार्इ हैं, संबंधों में औपचारिकताएं घुस आर्इ हैं। उन्हें जहां तक बने निभा लेने की बात है। इन तमाम बातों की जानकारी के बावजूद आप सच्चार्इ को पचा नहीं पाए और अपने पुराने खोल में लिपटे-लिपटे वे सब काम करते रहे जिन्हें आपको कम-से-कम अकेले नहीं करना चाहिए थे।

आपने मंझले को पूछा भी तो चलताउ ढंग से और वह भी मर्यादावश ‘हां’ कर गया। वैसे हां- ना का विशेष महत्व नहीं था। पूछा इसलिए कि आप अपने आपको और पारंपरिक  लो

गों से भिन्न, नर्इ हवा का पुरोधा मानते थे और यही वजह थी कि आपने हमें पढ़ाने-लिखाने में कोताही नहीं की। छुटका बी.ए. तक पढ़ा तो मैं और मंझला मैट्रिक तक तो पढ़ा ही जिससे हमें छोटी-मोटी नौकरियां हासिल हो गर्इं और हम नौकरी करने दूर-दराज के इलाकों में चले गए। आपका साया हटते ही, हमारे सोच में बदलाव आने लगा। पढ़ार्इ-लिखार्इ अपनी जगह थी, मगर बाहर निकलकर जमाने की रफ्तार को देखा तो हमने अपने आपको पिछड़ा पाया। हमारे परिवारों की औरतें अनपढ़-फूहड़ और पर्दे में ढकी रहती थी। आप नारी शिक्षा के हिमायती कभी नहीं थे, यह अलग बात है कि लड़कियां चौथी-पांचवी पढ़ जाए।

छुटके के साथ जबरदस्ती का नतीजा यह हुआ कि उसे एक फूहड़ औरत से विवाह करना पड़ रहा है। अपने समाज में विवाह का आधार प्रेम नहीं हैं यहां नारी पुरुष के संबंधों में उन्मुक्तता नहीं हैं जाति-धर्म, अर्थ, मान-प्रतिष्ठा आदि की इतनी सीमाएं है कि उनमें एक सही शादी होने की सम्भावना बहुत ही कम है। आप भी देख रहे हैं कि आज सारे संबंधों में स्वार्थ घुस आया है और मान-मर्यादा की लोग परवाह नहीं कर रहे हैं। आपके तर्इ संबंधों का सौंदर्य परम्परा के सहज स्वीकार में था, जिसे प्रश्न चिन्ह के घेरे में खड़ा नहीं किया जाता था। एक लीक थी जिस पर बेझिझक बिना सोचे-समझे  चलने भर की बात थी।

छुटके के साथ जो गलती हुर्इ उसे चूँकि रोका नहीं गया इसलिए वह गलती आगे चलती रहीं, हालांकि छुटके के तर्कों के आगे आपने घुटने टेक दिए थे और उससे अपनी इज्जत की भीख मांगने लगे कि अब जो हो गया है उसे किसी तरह निभाओ क्योंकि न निभाना फिर समाज में चर्चा का विषय होता जिससे आपकी टोपी उछलती। इस गलती के बावजूद, आपका प्रतिष्ठित एवं आहत अहं नहीं माना और जिसे आप यज्ञ की पवित्र अग्नि समझे बैठे थे वह भीषण आग निकली, जिसमें आप झुलस गए।

मंझले की बात क्यों करूँ, मेरी बेटियों के जो संबंध किये गये वे समाज की तमाम जानकारियों के बावजूद गलत साबित हो गये। एक लड़की ससुराल में नरक भोग रही है तो दूसरी को ससुराल से भगा दिया गया है। वे जाहिल और गरीब घरों में घुटती रहीं, ऐसा क्यों हुआ? इसलिए कि हमारे अपने घर में पढ़ी-लिखी लड़कियां नहीं थी और समाज के साधन सम्पन्न घर अब पढ़ी लिखी लकड़ियों की मांग करते थे। दूसरे आपको यह चिंता थी कि संबंध बचपन में तय नहीं किए तो बाद में लड़कियां कुंआरी रह जायेंगी, तीसरे आपने ऐसे घर चुने जो आगे जाकर आपके सामने खड़े नहीं हो सके।

मंझले के बेटों  तक आते-आते तो काफी कुछ परिवर्तन आ गया था। लेकिन गांव में वह परिवर्तन दिखार्इ नहीं पड़ता था। हम चाहते तो अपने लड़कों की बचपन में सगाइयां नहीं करते, पढ़ी-लिखी, सीधी-सादी लड़कियों से उनका विवाह करते, लेकिन वहीं हुआ वय: संधि की उमर तक पहुंचते-पहुंचते उनका भी विवाह कर दिया गया। अपने बच्चों को लेकर जो सपने मंझले ने देखे थे वे धराशायी हो गए। उसके दिल में कड़वाहट पैदा हो गर्इ। मगर मर्यादा के डर से खामोश रहा। किंतु गौने के बाद घर में कोहराम मच गया। वे उस लड़की को रखना नहीं चाहते थे। मंझला और उसकी पत्नी  दोनों अब मुखर होने लगे। आपने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। बहू और सास में ठन गर्इ, लड़की का बाप भी अड़ गया कि ऐसे घर में लड़की भेजकर क्या करूं?

आपकी प्रतिष्ठा को धक्का लगा और आप पहुंच गये लड़की को लिवाने, उसके पीहर। बाप और बेटे के बीच आप दीवार बन गये। पोते को उसके बाप के विरुद्ध भड़का दिया। पोता और पतोहू आपके साथ रहने लगे।

यह वो स्थिति थी जहां मंझले के परिवार व आपके बीच भयंकर युद्ध ठन गया। वह आपको लम्बी-लम्बी बेहूदी चिट्ठियां लिखता रहा। यहां तक कि अब लोगों के सामने आपको गालियां बकता। धीरे-धीरे आप में एक अपराधबोध घर कर गया।

मां नहीं चाहती थी कि मंझले के घर का झगड़ा  इस घर में आए क्योंकि उससे और संबंध बिगड़ते। वह चाहती थी, यह बुढ़ापा जितनी शांति और जितनी जल्दी निपट जाय, उतना अच्छा। पतोहू को घर में रखना मां को बिल्कुल पसंद नहीं था। लेकिन आपका पुरुष और परिवार का मुखिया  पुन: मां पर हावी हो गया। आपने हर बार पतोहू का पक्ष लेकर मां को बुरा भला कहा। स्थितियां ने इतना खतरनाक मोड़ लिया कि आप मां को गालियां देने लगे, साथ ही मां मंझले की औरत की भी गालियां खाती रहीं।

समाज वाले जब चटखारे लेकर इन तमाम बातों पर टिप्पणियां करते तब आपकी प्रतिष्ठा का क्या बनता, कीमा या भुरता? मगर आपने इसकी पूर्ण जिम्मेदारी मां पर थोप दी ओर इस बुढ़ापे में आपके संबंधों में जो जहर फैला, शायद कभी नहीं फैला था। 

समाज के दबाव में आकर, आपको मां से समझौता करना पड़ा। पतोहू को अलग से रहने को कहना पड़ा। यह स्थिति आपको रास नहीं आर्इ और आप घुटते रहे। मंझले को लेकर आप रात-दिन चिंतित थे कि पिता-पुत्र के संबंध शत्रुतापूर्ण कैसे हो गए, मगर मंझला टस से मस नहीं हुआ। आप बराबर नरक-कुंड से गुजरते रहे। आपकी सेहत पर इसका असर पड़ना था, पड़ा भी। जब मैंने आपको व मां को अन्दर ही अन्दर घुलते देखा तो मैं अपने अन्तरतम तक हिल गया। मंझला अब किसी से बोलता नहीं मुझसे भी नहीं, अपने बेटे से भी नहीं। एक छिन्न-भिन्न परिवार के मुखिया बनने का गौरव अब आपको प्राप्त है। आप अब स्वयं को मुंह दिखाने के काबिल नहीं मानते और घर की चारदीवारी में कैद हो गए। चिड़चिड़े और क्रोधी।

हम क्यों भूल जाते हैं कि व्यक्ति की सत्ता और उसकी प्रासंगिकता समय सापेक्ष है। हम बच्चों को अपने प्रतिबिम्ब में क्यों ढालना चाहते हैं? क्यों अपने जीर्ण-शीर्ण आदर्शों एवं मूल्यों को ढोने के लिए उन्हें मजबूर करते हैं?

 इस सब का अर्थ यह नहीं है कि आपने जानबूझ कर हमारा या हमारे बच्चों का बुरा चाहा। आप हमेशा हमारे फायदे की बात सोचते रहे। हमारे भविष्य का इन्तजाम करते रहे मगर आपने हमारी खुशियों के बारे में बहुत कम सोचा। मैं सोचता हूं कि अब आप अपने को परिवार से मुक्त कर लें, चाहे वीतराग ही हो जाए, तो आपका शेष जीवन सुख एवं शांति से कटेगा। और अगर यह सम्भव न हो तो स्वयं को समाज कल्याण कार्यों में खपा लें, वह स्थिति कहीं बेहतर होगी। आपके न होने से भी परिवार चलेगा, यह चिंता छोड़िए कि आपके बिना इस परिवार का क्या होगा?

आपकी तमाम अच्छाइयों के बावजूद, आपके पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों ने परिवार में एक नरक की रचना की। हालांकि यह सच है कि समय गम्भीर से गम्भीर घाव को भर देता है। बुरी से बुरी स्थितियों में जीने के लिए समझौता कर लेता है ...मगर यह कोर्इ अच्छी बात तो नहीं, खैर  बस इतना ही।

आपका प्रिय एवं ज्येष्ठ पुत्र उन सब बातों के लिए माफी मांगता है जो इस खत में लिखी गर्इ है और जिसे आपको चोट पहुँची हो, लेकिन मेरी इच्छा यही रही है कि आपका बाकी जीवन सुख और शांति से व्यतीत हो। 

आदर सहित

आपका पुत्र  

चुन्नी.    

 

 

            

      

                               

 

      

        

 

 

 


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