प्रवासी भारतीय
प्रवासी भारतीय
"सुधा सुनो, इस दीपावली घर चलें क्या?" आश्चर्यचकित सुधा नीलेश की ओर मुड़ी। "घर...??? कैसी बात कर रहे हो नीलेश? तुम घर में ही तो हो।"," नहीं मैं इस घर की बात नहीं कर रहा। मैं असली घर की बात कर रहा हूँ। जहाँ घर जैसा मोहल्ला होता है। पड़ोसी मिस्टर या मिसेज नहीं... ताऊ, काका, अम्मा और भाभी होती है। क्या हम भारत चलें....!"
सुधा की आँखों की कोर गीली हो गयी। ना जाने कब से इंतजार कर रही थी वह इस दिन का। खुद को संभालकर बोली - "लेकिन नीलेश तुम्हें तो कभी भारत वापिस जाना ही नहीं था। कनाडा में बसना ही तो तुम्हारा सपना था। जिसके कारण पिछले तीस सालों से हम यहीं है। तुम्हें को भारत की सड़के, गलियाँ देखकर घिन आती थी...? हमें तक भारत नहीं जाने देते तुम । बेटे को एक बार भी भारत नहीं ले गए। फिर आज अचानक क्या हुआ तुम्हें?"
"हम्म... सब याद है मुझे सुधा। लेकिन अब थक गया हूँ खुद को समझाते समझाते कि मुझे ये सब पसंद है। नहीं... मुझे ये सब पसंद नहीं है। मैं याद करता हूँ नुक्कड़ के समोसे और जलेबी। यारी दोस्ती की बैठकें याद आती हैं।
मैं सोचता था कि मुझे यहाँ रहना पसंद है लेकिन नहीं यह एक भ्रम था जिसे मैं जानकर इतने सालों से ढोए जा रहा था। हर त्योहार यहाँ फीके लगते हैं। इंडियन सोसाइटी के लोगों के साथ मिलकर मना भी लें तब भी कमी रहती ही है। पार्टियों में सिर्फ औपचारिकताएं पूरी करते करते मैं अब थक गया हूँ। अपने यहाँ की चहल पहल को तरस गया हूँ। दुःखी हुआ तो एक कंधा ना मिला रोने को कभी। जुबान पूरे दिन अंग्रेजी बोलते बोलते थक जाती है।
सालों से अपने मन को समझा रहा था कि मुझे भारत पसंद नहीं। मुझे वहां वापिस नहीं जाना। लेकिन सच तो यह है कि मेरे मन के कोने में एक भारत हमेशा था। बस मैं चकाचौंध में खुद को बहला रहा था। सुधा इस झूठे नकाब के साथ जीने के चक्कर में मैं तुम्हारा भी दोषी बन गया। अब मैं प्रवासी भारतीय नहीं भारतीय बनकर रहना चाहता हूँ। बेटा क्या चाहेगा उसकी अपनी मर्जी होगी। लेकिन क्या तुम इसमें भी मेरा साथ दोगी?" और इसके बाद उन दोनों की आँखों में बरसों के रुके समुन्दर से धारा बहने लगी।