प्रेम प्रयाग
प्रेम प्रयाग
एक छोटा पैग बनाया और सीधा एक ही घूंट में गटक गया। 'उफ्फ...कलेजा चीरती हुई गई है अंदर तक', मयंक बड़बड़ाया। उसने फिर से अबकी बार एक बड़ा पैग बनाया और एक एक घूंट गले से नीचे उतरने लगा। आज पहली दफ़ा उसे महसूस हुआ कि यह सोमरस, विष नहीं अमृत है। शून्य में ताकते हुए उसके होठों पर मुस्कान और आँखों में नमी थी।
'और चीर मेरा कलेजा, जितनी जलन, तकलीफ देनी है दे...और..दे..देती रहना, तब तक तू खत्म न हो जाये, मेरे सपनों की तरह' वह फिर बड़बड़ाया।
'क्या बोला था उसने...तुम मूर्ख...स्वार्थी हो, हम्मम्म... सभी पुरुष ऐसे ही होते है' उसे सपना के कहे शब्द कलेजा चीरती हुई शराब की तरह लग रहे थे। सब कुछ उसकी याददाश्त में तरोताज़ा होने लगा।
इस चार सालों में उसे कितना लगाव और प्रेम हो गया था सपना से। क्या क्या नहीं किया उसने, किस किस की नाराजगी, झगड़े मोल नहीं लिए। पहली दफ़ा उसकी मदद की अपना लहू बेचकर...शायद अंतस से निकला पहला प्रेम था। धीरे धीरे प्रेम-प्रयाग तीर्थ सा बन गया। कितना सब कुछ अच्छा था। दुःख सुख में साथ, वस्त्रादि, धनादि से मदद...सब कुछ।
'आज से मैं एक भी शब्द या प्रतीक प्यार का नहीं कहूंगी। मुझे अपने हिसाब से जीना है, मेरा पीछा छोड़ो, आज के बाद कोई बातचीत नहीं होगी...तुम भी खुश रहो और मैं भी। तुम्हारे लिए मैं अपने सपनों की बलि नहीं दूंगी। तुम मूर्ख और स्वार्थी हो', अपनी बात कह कर सपना ने कॉल काट दी।
उसके हाथ से फोन छूटकर गिर गया। उसके कानों में जैसे गर्म तेल डाल दिया हो।
'दो पति नाम के पुरुषों से सम्बंध विच्छेद करके तुमने मेरा हाथ थामा। क्या वे पूर्वर्ती अभागे पुरुष भी मूर्ख और स्वार्थी थे? अब...तीसरा मैं!!!...हा हा हा..' शेष बची शराब को एक घूंट में उसने नीचे उतारा और अगला पैग बनाने लगा। अपने कलेजे में बसे प्यार के लावा को उसे राख करना था।
मयंक ने अंतिम पैग को प्रेम-प्रयाग की तरह अपने होठों से लगाया। आंखों में उभरे हुए सपनों की एक बूंद उसके पैग में मिलकर विलीन हो चुकी थी। वह फर्श पर लुढ़का पड़ा था।