उपहार
उपहार
नौकर एक एक कर करीने से रूम में सामान लगा चुका था। थोड़ी बहुत थकान दूर करने के इरादे से आनंद बरामदे में दीवार से सटकर खड़ा हो गया। बरामदे के बाहर लॉन में रंग-बिरंगे पुष्प डूबते सूरज की सुनहरी किरणों में अत्यंत मोहक लग रहे थे। ऊँचे-नीचे पर्वतों पर बसा मंसूरी बहुत ही शांत, सुंदर एवं चित्ताकर्षक पर्यटक शहर है। आनन्द छुट्टियां व्यतीत करने लगभग प्रति वर्ष यहाँ आता था। जयपुर, दिल्ली, कलकत्ता जैसे महानगरों के कोलाहल भरे माहौल से दूर कुछ दिन शांति से गुजरने के लिए किंतु आज वह छुट्टियां गुजरने के लिए नहीं आया।
यहाँ उसका एक सुंदर कॉटेज है। काका इसकी देखरेख करते है। काका यानी घनश्याम काका, जिन्होंने उसे बचपन से गोद में खिलाया। आनन्द का बचपन तो यहीं बीता है। प्यार से वह उन्हें काका कहता रहा है और काका उसे छोटे मालिक। आज पूरे दो वर्ष बाद वह यहाँ आया है, सिम्मी से मिलने। सिम्मी, उसके प्रिय दोस्त विजय की बेटी।
एकाएक आनन्द का ध्यान काका की ओर गया, जो न जाने कब से चाय लिए खड़े थे।
"काका आप! इतनी देर से चाय लिये खड़े हो, मेज पर रख देते।" चाय का कप लेते हुए उसने कहा।
"छोटे मालिक, मेज पर रखने से चाय ठंडी हो जाती और आप यूँ ही कब तक खड़े रहते। आज शाम को क्या खाइएगा?" काका ने कपड़े से हाथ पोंछते हुए कहा।
"काका, खाना तो मैं बाहर खा लूंगा। तुम अपने लिए बना लेना...और हाँ, मैं थोड़ा देर से आऊंगा।
"छोटे मालिक, आप नाराज न हो तो एक बात पूछूँ" सिर खुजाते हुए काका ने कहा।
"हाँ, हाँ... कहो"
"पिछली बार आपके साथ एक बाबू जी आये थे और उनके पास एक छोटी सी लड़की थी। इस बार आपके साथ क्यों नहीं आये वह? बहुत भले और अच्छे आदमी थे" काका ने कहा।
"तुमने ठीक कहा काका। बहुत भला और अच्छा आदमी था विजय।" इतना कहकर आनंद की आँखे नम हो गई और वह बुदबुदाने लगा... "अब इस दुनियां में नहीं है विजय। उसे ब्रेन ट्यूमर हो गया था। काफी इलाज करवाने के बाद भी वह बच न सका...उसी की बेटी है सिम्मी। उसकी एक ही अंतिम इच्छा थी कि उसके मरने के बाद उसकी बेटी की देखभाल मैं करूँ। उसको अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़कर बहुत बड़ा बनाऊं। सिम्मी जब छोटी थी तब उसकी माँ का एक दुर्घटना में देहांत हो गया था। अब सात साल की है वह, यहाँ के अच्छे बोर्डिंग में।"
आनन्द निढाल सा आँखे मूंदकर कुर्सी पर बैठ गया और काका भी अपने आँसू पोछते हुए कमरे से बाहर चले गए।
दोपहर से संध्या हो चली। आनन्द ने चाय समाप्त की और सफर से खराब हुए कपड़ों को बदला। फ्रेश होकर वह होटल सुप्रिया की ओर चल पड़ा।
लगभग साढ़े आठ बजे वह होटल सुप्रिया पहुंचा। एक रिजर्व टेबल पर जाकर बैठ गया, जो उसने आने से पहले फोन पर बुक करवाई थी। होटल में पश्चिमी धुन बज रही थी। धुन पर थिरकने वाले युवा सब कुछ भूलकर अपनी मस्ती में मशगूल थे।
"सा'ब कुछ लेंगे?" वेटर ने आदर के साथ झुकते हुए पूछा।
"हाँ, स्कॉच वन पैग"
"जी सा'ब"
वेटर आर्डर लेकर गया और कुछ देर में स्कॉच की ट्रे उसकी टेबल पर परोस दी। आनन्द ने पीना शुरू किया। धीरे धीरे वह नशे के शिकंजे में जकड़ता चला गया, अपने ग़म को मिटाने के लिए...ऐसा ग़म जो ज्वालामुखी के लावे की तरह फूट पड़ता हो। ऐसा लावा जो उसको ज़िंदा ही भस्म कर देना चाहता हो। किसको कहे अपना ग़म... किस से साझा करें? कौन सुनेगा? उस भयंकर बाढ़ ने उसका सब कुछ छीन लिया था। माँ, पिताजी, पत्नी...उसका प्यारा बेटा 'अनु'। वह किसके सहारे जिए अब और क्यों? इन्हीं विचारों की गहरी खाई में डूबता चला गया आनंद। होटल की सारी लाइट्स ऑफ हो चुकी थी। टेबल्स पर जलती हुई मोमबत्तियों से ही मद्धिम प्रकाश हो रहा था। ये था होटल का डान्सिंग हॉल।
प्रातःकालीन सूर्य अपनी मंज़िल का सफर तय करने के लिए उदित हो चुका था। खिड़की से झाँकती सूर्य रश्मियाँ उसके बिस्तर तक पहुंची। थोड़ी गर्माहट पाकर उसने एक दो बार करवट बदली और चेहरे और आँखों को सहलाते हुए कमरे को चारों ओर निहारा। उसे याद नहीं वह होटल से कब, कैसे और कितने बजे आया।
दैनिक कार्यो से निवृत होकर वह लॉन में पड़ी कुर्सी पर आकर बैठ गया, जहाँ चाय का प्याला काका हाथ में पकड़कर चले गए, बिना कुछ बोले हुए क्योंकि वे आनन्द की स्थिति और मनःस्थिति जानते थे। उसने चाय समाप्त की और घड़ी की ओर देखा जो नौ बजे का समय बता रही थी। अब वह उठा और नहा-धोकर जाने की तैयारी करने लगा। आज उसे सिम्मी के पास जाना था।
रास्ते में उसने दो फाइव स्टार चॉकलेट खरीदी और एंजिला बोर्डिंग की ओर बढ़ चला जहाँ उसके अनु के समान सिम्मी पढ़ा करती है। वह सोचने लगा कि आज यदि उसका अनु जीवित होता तो शायद वह उसको इस तरह बोर्डिंग में न रखता। खैर जो होना था हुआ, जैसी ईश्वर की मर्ज़ी। अब तो सिम्मी ही उसकी अनु है। वह आज बोर्डिंग से ले जायेगा उसे। कैसे रहती होगी बेचारी? अरे हाँ, वह अपने पापा के बारे में पूछेगी...तो, तो क्या जवाब देगा वह...यही न कि उसका पापा... अब दुनियां में नहीं है। नहीं, नहीं... वह ऐसा नहीं कर सकता। वह है न, उसका पिता। हाँ ठीक ही तो है...विजय और उसमें अंतर ही क्या है? विजय अनाथ था वह भी तो अब अनाथ हो गया है। विचारों के द्वंद्व में पता ही नहीं चल कि बोर्डिंग कब आ गया।
धूप और छाँव के बीच हरी घाँस के मैदान पर बच्चे खेल रहे थे। शायद इंटरवेल चल रहा था। आनन्द ने दूर तक दृष्टि दौड़ाई किंतु सिम्मी उसको कहीं नजर न आई। वह सीधा वार्डन के कमरे में गया तो चौंक गया। वहाँ कुर्सी पर सुनीता बैठी थी। सुनीता, जिससे वह कभी बेहद प्यार किया करता था...आज भी करता है। लेकिन आज उसमें और सुनीता में कितना अंतर है। अपने विवाहित जीवन में कितनी खुश होगी वह। सुनीता के पिता तो आनन्द से शादी करने को तैयार थे किंतु उसके पिता नहीं क्योंकि वह उस समय आवारागर्दी करता था। कुर्सी पर बैठी सुनीता मुस्कुरा रही थी। उसे भान ही न रहा कि वह इतनी देर से खड़ा है।
"बैठ जाइए आनन्द जी" सुनीता ने टेबल पर पड़ी घण्टी बजाते हए कहा। मॉजी आई और उसने उसे दो कॉफी लाने को कहा। मॉजी, जिसने सुनीता को सहारा दिया और इस कुर्सी तक पहुंचाया।
आनन्द अब तक कुर्सी पर बैठ चुका था। मॉजी टेबल पर कॉफी रखकर जा चुकी थी। सुनीता ने एक कॉफी आनन्द को दी और दूसरी अपने पास रखी।
"आपका बिज़नेस तो ठीक चल रहा होगा?" सुनीता ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा।
"हाँ, ठीक चल रहा है"
कुछ देर चुप्पी छाई रही। नीरसता भंग करते हुए सुनीता ने कहा, "और सुनाइए जीवन कैसा चल रहा है?"
"कुछ ख़ास नहीं। सोच रहा हूँ कि यहीं मंसूरी में स्थाई बिज़नेस कर लूं। ...अब दुनियां में कोई और तो है नहीं जो खर्च बहुत हो"
"क्या मतलब? मैं आपका मतलब नहीं समझी" सुनीता ने उत्सुकतावश पूछा।
आनन्द ने अब तक कि सारी व्यथा सुनीता को सुनाई किंतु सिम्मी के बारे में अभी उसने कुछ नहीं बताया। सुनीता को आनन्द की व्यथा पर बहुत दुःख हुआ।
"तुम सुनाओ, तुम्हारा जीवन कैसा चल रहा है" आनन्द ने भी उससे जानना चाहा।
सुनीता ने अपने बारे में बताया कि दो वर्ष पूर्व उसके पति की मृत्यु हो गई। वह भी अब अकेली है। इस अकेलेपन में मॉजी ने किस प्रकार उसका साथ दिया और आज इस स्थिति तक पहुँचाया। अतीत से निकलकर सुनीता जब वर्तमान में लौटी तो एकाएक उसे लगा कि आनन्द यहाँ, बोर्डिंग में कैसे आ गया? मेरे बारे में तो उसे कुछ पता नहीं क्योंकि उसे यहाँ ज्वाईन किये हुए अभी एक वर्ष ही हुआ था।
अचानक उसने पूछ ही लिया, "आपका यह आना कैसे हुआ? कौन है आपका यहाँ?"
"सिम्मी...मेरे दोस्त विजय की बेटी"
"ओह, सिम्मी ! बहुत इंटेलिजेंट और बहुत प्यारी बच्ची है। बेहद प्यार करती हूँ मैं उसे...पर इस समय बेचारी बीमार पड़ी है। कभी कभी पूछती है, आंटी मेरे चाचा कब आएंगे?"
"मुझे उसके पास शीघ्र ले चलिए" आनन्द ने जल्दी करते हुए कहा।
वे दोनों सिम्मी के कमरे में पहुँचे। सिम्मी लेटे हुए ही किताब पढ़ने में व्यस्त थी। आनन्द को चुप रहने और पीछे ही रूकने का इशारा करते सुनीता ने चुपके से उसके पीछे जाकर किताब छीन ली और कहा, "डॉक्टर ने कहा है न कि आराम करो"
"नमस्ते आंटी, गलती हो गई"
"अच्छा सिम्मी यह बताओ कि आज बर्थडे है न तुम्हारी?"
"ओह, मैं तो भूल ही गई थी आंटी"
"कोई बात नहीं, मुझे तो याद रहा न तुम्हारा बर्थडे। अच्छा अब यह बताओ कि क्या प्रेजेंट लेना पसंद करोगी?"
"आप जो भी देंगी, प्रेजेंट कभी मांगा नहीं जाता" सिम्मी ने बहुत भोलेपन और मासूमियत से कहा।
"तो बंद करो आँखे"
सुनीता ने उसकी आँखें बंद करवाकर आनन्द को उसके सामने खड़ा कर दिया।
"सिम्मी...आँखे खोलो" सुनीता ने कहा।
आँखे खोलते ही सिम्मी आश्चर्य चकित रह गई। सामने उसके चाचा खड़े थे। वह बिस्तर से उठ कर आनन्द के गले से लिपट गई।
आनन्द के साथ साथ सुनीता के आँसू भी गालों से लुढ़क पड़े। कुछ देर रूकने के बाद वह उन दोनों को अकेला छोड़कर अपने कमरे में आ गई।
सिम्मी ने हमेशा की तरह आनन्द की जेब से चॉकलेट निकली और कहा, "थैंक यू"
"कैसे भूल सकता था तुम्हारी बर्थडे"
"मुझे पता था मेरे चाचू आज जरूर आएंगे"
"चॉकलेट तो ठीक है सिम्मी लेकिन मेरा प्रेजेंट ड्यू रहा। एक बात और कहना चाहता हूँ तुमसे...तुम्हारे पापा बहुत दूर चले गए है...अब वे कभी वापस नहीं आएंगे" आनन्द ने अपने मन को दृढ़ और स्थिर रखते हुए कहा।
"हाँ अंकल...पाप बहुत दूर गए है...यह रहा उनका लैटर" आंसुओ को पोछते हुए सिम्मी ने पत्र दिया।
पत्र खोलकर आनन्द ने पढ़ना शुरू किया।
"प्रिय सिम्मी, मैं बहुत दूर जा रहा हूँ। शायद तुमसे मिलना न हो सके। इस दुनियां से दूर बहुत दूर...क्योंकि मुझे ब्रेन ट्यूमर है। मेरी प्यारी सिम्मी, तुम अपना और अपने चाचू आनन्द का ध्यान रखना...कभी तंग न करना उनको...
तुम्हारा पापा विजय"
पत्र समाप्त होने के पश्चात आनन्द के नेत्रों से अश्रु छलकने लगे। सिम्मी को उसके कमरे में अकेला छोड़कर वह सुनीता के कमरे में आ गया। वहां सुनीता टेबल पर सिर टिकाकर बैठी थी। आनन्द भी एक कुर्सी पर बैठ गया और सोचने लगा कि सुनीता अकेली है। क्या वह सिम्मी को माँ का प्यार और दुलार दे सकती है?
"अरे आप यहाँ? क्या सोच रहे है? सिर उठाते हुए सुनीता ने विचारों में मग्न आनन्द से कहा।
"सोच रहा हूँ कि आदमी का सहारा न हो तो उसे सहारे की तलाश होती है। देखो न, सिम्मी कितनी छोटी है अभी। कितने वर्ष पड़े है उसको संभलने में, उसका भविष्य बनाने में? आप अकेली है, क्या आप मुझे सहारा दे सकती है? केवल सिम्मी की खातिर..." उत्तर की प्रतीक्षा में उसने सुनीता से पूछा।
"आनन्द जी, सहारा तो मुझे आपका चाहिए। मैं इस लायक कहाँ कि आपको सहारा दे सकूँ। ...फिर भी, कोशिश करूंगी कि सिम्मी और आपको खुश रख सकूँ।" सुनीता ने सिर झुकाकर अपनी सहमति जताई।
आनन्द उठा और सुनीता को लेकर पुनः सिम्मी के कमरे में आ गया। उसने सिम्मी के निकट जाकर कहा, "सिम्मी, तुम्हारा प्रेजेंट मुझ पर ड्यू था न...लो अपना प्रेजेंट। संभालो अपनी आंटी को...अब कोई भी अकेला नहीं रहेगा"
सुनीता ने आगे बढ़कर सिम्मी को अपने गले से लगा लिया। आनन्द को ऐसी लग रहा था कि सिम्मी का उपहार ही उसका उपहार हो। आज उसको एक नई शांति मिली थी।