Vinod Kashyap

Tragedy

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Vinod Kashyap

Tragedy

पिटे आदमी की तरह

पिटे आदमी की तरह

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यह इबारत जिस पर चन्द शब्द कागज़ से उतरकर मेरे आसपास मंडराने लगे हैं। इसे पढ़ते हुए मुझे कुछ भी महसूस नहीं हुआ है। ऐसा होना ही था, कभी न कभी। 

यह उसका चिर-प्रतीक्षित कदम था। जिसने मुझे चौंकाया। नहीं, बस पूस की हवा के तेज़ सर्द झोंके सा मुझे समूचा कंपा गया।

 वह मुक्त हो गया है बेचारा, बेख्याली में मेरे मुँह से निकला और मुझे लगा इस अनुभूति में हम दोनों साझीदार हैं। 

 कुछ महीने पहले उसने याचना भरे स्वर में मुझे कहा था, ---"मैं अपनी तरह की ज़िन्दगी जीना चाहता हूँ। इस माहौल में मेरा दम घुटता है।"

 तब उसे नौकरी करते महीना भर हुआ होगा। 

 "तुम्हें क्या तकलीफ है यहाँ, तुम जो चाहते हो मुझे बताओ। शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं। "--स्वर को यथासंभव मुलायम बनाकर मैंने कहा था। 

" चाहता क्या हूँ मैं खुद नहीं जानता। पर आप मेरी खुशी के लिए कुछ नहीं कर सके। यह मैं जान गया हूँ। "

" ऐसा न कहो बरखुरदार , मैं तुम्हारा बाप हूँ, तुम्हारी खुशी के लिए तो " - - - ' मुझे अपनी आवाज़ गीली होती सी लगी। अपने शब्दों की व्यर्थता का बोझ भी मुझ पर हावी हो गया था। ऐसा नहीं कि वह जो कुछ महसूस करता था, उससे मैं अनभिज्ञ था। उसकी आकांक्षाएं बख़ूबी समझता था। उसकी महत्वाकांक्षाओं की भ्रूण हत्या का दर्द कहीं गहरे में भी झेल रहा था। पर अपनी सीमाएं जो मैंने ही खुद अनजाने में बना ली थीं, का अदना सा दायरा मेरे पैरों को इंच भर भी हिलने की इजाज़त नहीं देता था। 

  लम्बी चुप्पी के बाद, जिसमें हम दोनों की असहजता बढ़ गई थी, उसने कहा ---"आपने क्या किया है, मेरे लिए - - मैं क्या कुछ करना चाहता था, कितना कुछ। - जबकि आपने - - आपने। - - ।

 उसने भारी आवाज़ में इतना ही कहा और उठकर चल दिया। 

मैं उसकी गर्दन को ढंकते लम्बे बाल और हिलती पीठ देखता रहा। 

 मेरी अजीब सी हालत थी। एक अनजानी आशंका की झुरझुरी मेरे जिस्म में दौड़ गई । मुझे अहसास हुआ कि वह कभी मेरी पकड़ में नहीं आएगा। जबकि मेरी कोशिश रहती कि किसी रात मौका पाकर चुपके से उसके कोठरीनुमा कमरे में जाऊँ और जब वह बिस्तर पर किसी पिटे आदमी की तरह अचेत पड़ा हो तो उसके मस्तिष्क की गांठें पढ लूं कि आखिर वह क्या चाहता है। क्या सोचता है - - फिर मैं अपने को तसल्ली देता कि वह भावुक उम्र का है। कुछ देर बाद उसका उखड़ापन खुद-ब-खुद ठीक हो जाएगा। 

 दरअसल, वह अत्यधिक महत्वाकांक्षी है। उसका एक कारण घर की नाजुक हालत भी रही होगी। एन. सी. सी. में उसने 'सी' सर्टिफिकेट लिया और रिपब्लिक डे पर स्टेट की कमान की। चित्रकला का शौक उसे बचपन से रहा है। घर में लगे सभी चित्र उसी के बनाए हुए हैं। कालेज की सांस्कृतिक परिषद् का भी वह सचिव था। उस दिन वह कितने जोश में था, जब द्वितीय वर्ष के परिणाम घोषित होने पर उसने अपना नाम "मैरिट" में मुझे दिखाया था। तब भी उसे गले से लगाते हुए मेरा बौनापन हमारे बीच आ गया था। मैंने कभी नहीं चाहा कि उसे कालेज से निकाल कर इस कच्ची उम्र में ही किसी दफ़्तर की फाइलों में उलझा दूं। पर।दो बेटियों के विवाह के बाद परिवार का बोझ मेरे अशक्त कंधे उठा नहीं पा रहे थे। इसके अलावा मुझे रिटायर्ड भी होना था। मौजूदा समस्या रोटी की थी। मैं अपने सहयोगी का कृतज्ञ था जिसने उसे नौकरी दिलवा दी। वरना कौन पूछता और फिर, ज़िन्दगी तो काटनी होती है आदमी को। मेरी इस बात पर वह उग्र हो जाता। 

"अगर आप दो जून रोटी मिल जाने को ही ज़िन्दगी समझते हैं, तो ऐसी ज़िन्दगी जानवर भी जीते हैं - - पिताजी। "

" तुम्हारा मतलब है मैं जानवर हूँ जो अट्ठाईस-तीस साल से - -" मैं बुरी तरह झुंझला जाता। अक्सर वह चुप ही रहता। खोया - खोया सा। पहले मुझे उसकी जिन बातों पर क्रोध आता वही सोचकर मैं चिंतित रहने लगा। मैंने सोचा भी नहीं था कि यह सब उसे इतना तोड़ देगा और वह इस कदर अन्तर्मुखी हो जाएगा।उसकी सेहत दिन - ब-दिन गिरती जा रही थी। 

 आत्मग्लानि से बचने के लिए मैं उसे समझाने लगता कि दुनिया में जीना आसान नहीं - - - यहाँ कदम-कदम पर ठोकरें लगतीं हैं। जो संभल जाए वही समझदार है---यहाँ ज़िन्दगी को जिन्दादिली से जीना चाहिये। -ऐसे ही कुछ घिसे-पिटे वाक्य ---जो उसके लिए निरर्थक और कड़वाहट भरे थे। 

 दफ्तर से लौटकर वह हमेशा कमरे में बंद हो जाता। महीने बाद पूरी तनख़्वाह मेरी हथेली पर रख देता। 

"इन पैसों से तुम अपने लिए कुछ खरीद लो" --मैं कहता। 

"- - - मुझे कुछ नहीं चाहिए। "

" बता दो, मैं ले आऊंगा। 

 जब जरूरत होगी बता दूंगा।" किसी भी बात को लम्बा करने से वह चिड़ जाता। 

 मुझे लगने लगा कि हथेली पर रखे उन पैसों के बदले मैं अपने बेटे की लगातार हत्या कर रहा हूं। - - - मैं आखिर क्या करूँ इन सवालिया नजरों से मैंने कई बार उसे देखा। उसकी आँखों की एक ही भाषा होती - - "मैं नहीं जानता और मेरी स्थिति तुम्हारे सामने है। जिसके ज़िम्मेदार सिर्फ़ तुम हो।" 

- - - - मुझे मालूम हुआ कि शाम को वह एक पेंटर की दुकान पर पेंटिंग भी करता है। उन्हीं पैसों से वह अपने लिए मोटी - मोटी किताबें खरीद लाता था। गयी रात तक उसके कमरे में रोशनदान का शीशा रोशनी से पुता रहता। 

 वह बड़बड़ा रहा है - - - - उसने किताब पटकी है - -- - वह कुर्सी खींच रहा है - - - वह खड़ा है चुपचाप - - अब वह टहल रहा है--रोशनदान ने अंधेरा उगल दिया है। वह करवटें ले रहा है। 

मैं और पत्नी बिस्तर पर लेटे उसके कमरे से उठती आवाज़ों का सिलसिला जोड़ते रहते - - रोशनदान के रंग बदलते शीशे पर नज़रें जमाए। 

मेरी पत्नी अक्सर बीमार रहती है। दरअसल पिछले साल उसे टायफाईड हुआ था। इतनी बुरी तरह कि आधी रह गई थी। डाक्टर की सलाह के मुताबिक उसे अच्छी 'डाइट' तो क्या रोजाना का पाव भर दूध का भी प्रबन्ध न कर पाया था। तभी से वह आधी बिस्तर की आधी ज़मीन की होकर रह गई है। अपने बेटे सोहन को वह पुकारती है और बहुत कम बात करती है। छोटे बच्चों पर भी सोहन का जाने कैसा प्रभाव पड़ा कि जब भी उसे देखते, खेलते - खेलते रुक जाते। खिलखिलाते हुए चुप हो जाते। 

 सुबह मैं उसके कमरे में जाता। उसकी लाई किताबों के पन्नों पर पेंसिल से लगे उल्टे - सीधे निशान व उसका रजाई से बाहर निकला पीला चेहरा और तकिये पर छितराए लम्बे बालों को देखकर मन होता कि उनमें उंगलियां फिराने लगूँ --पर, डरकर सहम जाता कि कहीं वह उठ न जाए।

 "यह मासूम चेहरा मेरे बेटे का है।" - मैं स्वयं से कहता। 

पर न जाने क्यों एक भय मुझ पर सवार हो जाता जो मुझे कमरे से बाहर धकेल देता। 

 पत्नी रसोई में होती तो वह कुछ चिन्दी - चिन्दी किए कागज़ उसे जलाने को दे देता। मैं रसोई में घुसकर दरवाज़ा बंद कर देता। पत्नी से कागज़ के टुकड़े लेकर उन्हें जोड़कर किसी जासूस की तरह उन पर लिखे शब्द पढ़ने की कोशिश करता, पर कुछ समझ न पाता। 

----पर उस दिन शनिवार था। वह सो रहा था। मैं चुपके से उसके कमरे में गया। टेबल पर कागज़ बिखरे थे। उत्सुकता से मैं उन्हें पलटने लगा। उसकी लिखावट मुश्किल से मेरे पल्ले पड़ती है। एक काग़ज़ पर कल की तारीख थी, जिसपर निश्चय ही उसने रात को लिखा होगा - - - और जिसे पढते ही मुझे ऐसे करारे तमाचे का आभास हुआ कि मैं सन्न रह गया - - एकदम जड़। अस्पष्ट शब्दों में मैं जो पढ़ पाया वह यह था। मेरा एक बाप है जिसका शौक बच्चे पैदा करना रहा है। एक माँ है जो हमेशा मुझे एक पालतू चीज लगती है। उन दोनों की समझदारी से जब भी कोई बच्चा पैदा हुआ है, मेरे बाप ने खुश होकर इस भूखे घर में ढोल बजवाए हैं और स्वयं उनकी ताल पर बेतहाशा नाचा है। अब वह नाच - नाच कर थक चुका है और आफिस से कुशल कर्मचारी का प्रमाण पत्र लेकर रिटायर्ड होने वाला है, जिसे वह मुझे अपने आठ बच्चों के बीच भेंट करके सन्यास ले लेगा। 

 मेरे हाथ - पैर ठण्डे पड़ने लगे। बड़ी कोशिश से मैं कमरे से बाहर आया। पत्नी रसोई में थी। उससे पानी का गिलास मांगकर मैं चौंखट पर ही बैठ गया--- - हे भगवान्! कितना कठोर सत्य ----मैंने अपना चेहरा ढांप लिया। कितना बड़ा मुजरिम हूँ मैं। ।मुझे लगा मेरे घर की ईंट - ईंट उखड़ गई है, दीवारें रेत की तरह भरमरा रहीं हैं। हू--हू करती काली आंधी है जिसमें मैं चिथड़े-चिथड़े होकर उड़ गया हूँ। 

- - - - कड़ाके की सर्द रातें थीं, जिनमें मैं सो न पाता था। दिलो-दिमाग पर भारी अनजाना सा बोझ लादे चेतन - अचेतन की सीमाओं में गिरता - उठता - भागता रहता। ठंड के साथ ही मेरी खांसी भी बढ़ती गई थी, आफिस में ठीक से काम भी न कर पाता था। सारा दिन झपकियां आती रहतीं। 

 आज सुबह से मेरी बुरी हालत थी। मुंह - अन्धेरे ही मैं उठ गया। कुर्सी पर बैठकर देर तक सूखी खांसी हवा में उड़ाता खांसता रहा। खांस-खांस कर फेंफड़ों पर जमी बलगम बाहर खींचते हुए पसलियों के दर्द से बेदम हो गया, तो उठा। घड़ी लेने सोहन के कमरे में गया तो देखा वह बिस्तर पर लेटा अचानक छत को घूर रहा है। मेरी खांसी से उसकी नींद टूट गई होगी ----ऐसा मैंने सोचा। 

नाश्ता लेने के बाद रसोई से बाहर आया तो ठिठक गया। मुझे आंखों पर विश्वास न हुआ कि वह ऐसी हरकत पर भी उतर सकता है। मेरे सीने पर कोई तीखी चीज फनफनाकर सिर पटकने लगी। मैंने देखा वह बाहरी दरवाजे पर रंगीन चाक से लिखे "आवर स्वीट डेन" पर तेजी से हथेली रगड़ रहा है । वो रंग - बिरंगे शब्द जो उसने कभी बड़े चाव से वहाँ लिखे थे। उफ! उसे यह क्या होता जा रहा है। वह हाथों को झाड़ता दरवाजे पर उभर आया बदनुमा धब्बा देखता रहा, उस वक्त वह मुझे हिंसक लगा --------

 आफिस की फाइलों में उलझे हुए भी मेरी आँखों पर चढ़े चश्मे के आगे वह बदनुमा धब्बा बार-बार फैलता रहा।। आफिस में मुझे ओवरटाइम करने को कहा गया था, पर मै बिना कुछ काम किए भी बुरी तरह थक चुका था। पांँच बजते ही 'लंच -बॉक्स' उठाकर करुण के साथ चला आया। मैं चाहता था घर पहुंचने से पहले अन्धेरा अच्छी तरह घिर आए और मेरा उस धब्बे से सामना न हो। करुण ने मेरी परेशानी का कारण भी पूछा पर मैं कुछ बता न पाया। उसके छोटे - छोटे गोल - मटोल दोनों बच्चों के साथ देर तक खेलता रहा। 

 मैं यहां सोहन के कमरे में काफी देर से बैठा हूँ। दरवाजे की तरफ़ किसी की पदचाप सुनाई दे रही है। शायद पत्नी आ रही है। दरवाजे की तरफ़ सामने पड़ते ही वह फिर घिघियाती आवाज़ में कहेगी कि मैं जाऊँ और सोहन का पता करूं। इतनी देर तो वह कभी बाहर नहीं रहा घर से। मेरे हाथ से वह अधफटा काग़ज़ कांपने लगा --जिसपर सोहन की इबारत है - जो वह टेबल पर छोड़ गया है। मैं समझ नहीं पा रहा कि पत्नी को कैसे बता पाऊंगा। वह चला गया है, शायद हमेशा-हमेशा के लिए।----और उसके मुताबिक अख़बार में यह भी नहीं छपवाया जा सकता है कि बेटा घर लौट आओ। तुम्हारी माँ सख्त बीमार है और मैं पिटे आदमी की तरह।


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