पहचान

पहचान

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"पापा ! आप मेरे घर ना आया कीजिये। ये 10 हजार रुपये हैं। इसी में से माँ का इलाज भी करा दीजियेगा।" अनंत ने पैसे फेंककर बहुत ग़ुस्से से कहा।

"क्या हुआ बेटा ? कोई कुछ बोला क्या ? बैठ ना, बहुत दिनों बाद आया है आज तू अपने इस घर में।"

"पापा ! मेरी और शालिनी की दुनिया बहुत अलग है। हमारी सोसायटी बहुत ऊँची है। आपके हमारे आस-पास आने से बहुत बेइज्जती होती है..!"

"पर तेरी नौकरी के बाद से तो मैं रिक्शा नहीं चलाता। तू हर महीने पैसे तो भेज ही देता है। कल तेरी माँ की अचानक तबीयत..!"

"कुछ भी हो पापा ! इसी जिल्लत से बचने के लिए मैंने दूसरा घर लिया। आपके वहाँ आने से मेरी पुरानी पहचान उभर आती है। एक रिक्शेवाले का बेटा बोलते हैं सब आपस में !"

"बड़ी अफ़सोस की बात है बेटा ! मैंने रिक्शा चलाकर भी तुझे इस काबिल बनाया कि अपनी पहचान बदल सकूँ। खुद पर नाज़ कर सकूँ पर तू इस पद पर पहुँच कर भी अपनी पहचान ना बदल पाया।

"पापा !"

"चिल्ला मत ! मेरे तीन पहिये के संघर्ष से तू भी पला है। ये तीन पहिया अब भी दो लोगों के लिए बहुत है।"

"क्या गलत बोल दिया मैंने पापा ?"

"बहुत शर्म आती है ना तुझे मुझे वहाँ देखकर ? तू ये पैसे उठा और चला जा..आज तुझे देख मुझे भी शर्म आ रही है। तुझ जैसे बेटे को कोई यहाँ देख ना ले।"


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