पहचान
पहचान
कहा जाता है कि मानव की उत्पत्ति एक जानवर से हुई है। उसके पश्चात ही वो मानव के रूप में परिवर्तित हुआ था। आधुनिक समय में मानव व जानवर को एक नहीं कहा जाता। अगर हम एक इंसान और एक जानवर को साथ खड़ा कर किसी दो साल के बच्चे से भी उन दोनों की पहचान में अंतर बताने को कहें तो वो भी बिना किसी देर के तुरंत उनके बाहरी रूप को देख उनकी पहचान करने में समर्थ होगा बल्कि हम और आप भी ये सवाल करने वाले को मूर्ख घोषित कर हँसते हुए बड़ी आसानी से ये बता देंगे कि इनमें से जानवर कौन है और इंसान कौन लेकिन अगर इस 'कौन' को 'क्यों' के सवाल में तब्दील कर दिया जाए फ़िर?
शायद तब हम सब पर सिर्फ़ एक ही ज़वाब होगा कि जानवरों को ज़ुबान नहीं दी गई और इंसानों को ज़ुबान पर लगाम।
ऐसा माना जाता है कि इंसान ईश्वर की एक सर्वोत्तम रचना में से एक है जिसके पास वाणी,विचार, मष्तिष्क और हर जाति का कल्याण करने की अपार क्षमता होती है परंतु निराशा की बात ये है कि इंसान के अस्तित्व पर और उसको कार्यों की हर परिभाषा पर सिर्फ "माना" ही जाता है क्योंकि हम पूरे आत्मविश्वास के साथ खुदको मानव बताने वाली जाति कभी इसकी परिभाषा पर खड़ी उतर ही न सकी। हमारे पास हमारी मानव पहचान के रूप में कुछ है तो वो है बस हमारी वाणी। लेकिन ये जो परिभाषा बनाई गई है उसको भी हमारी जाति द्वारा ही सबके कानों तक डाला गया है। अगर वाणी द्वारा ही अंतर पहचानने की बात की जाए तो जिस तरह हर क्षेत्र की अपनी एक भाषा होती है उसी तरह हर अलग प्रजाति के जानवरों की भी एक अपनी भाषा होती है इस प्रकार न तो हम उनकी बातें पूर्ण रूप से समझ सकते हैं और न ही वो हमारी परंतु जानवर जरूर हमसे बेहतर हमारे कहे शब्दों को समझ सकता है। वो न सिर्फ समझता है अपितु हमारे दुःखों को,हमारी आज्ञा को,हमारी खुशी को बल्कि उन्हें हमारे साथ जीता भी है।
यहाँ ये सब बताने का सिर्फ इतना सा निष्कर्ष है कि इंसान होना मात्र एक भ्रम है और जानवर होना ही एक हक़ीकत।
इंसान की उत्पत्ति शुरुआती दौर में जानवर से हुई तो जरूर लेकिन सिर्फ शारीरिक रूप तक ही सीमित होकर रह गई। इंसान कल भी जानवर था,आज भी जानवर है और कल भी वापिस से जानवर हो जाने का सबूत इस दुनिया को दे ही देगा लेकिन कल और आज में फर्क बस इतना है कि जो इंसान कल कुछ जानवर की भांति क्रूर और खूंखार हुआ करता था ,आज वो ही किसी जानवर की भांति ही विवश,बेघर,भूखा और बंदी बन बैठा है।
आज चिड़ियों की चहचहाट,वायु में शुद्धता और सड़कों पर जानवरों के आ जाने से इस मनुष्य की खुशी चरम सीमा पर है। ये वही मनुष्य है जो वर्षों से इस खुशी से वंचित भी अपने कर्मों के कारण ही रहा। कल के मनुष्य को आज कोसता हुआ मनुष्य कल फ़िर यही करेगा। वहीं वो आज ऐसे हालातों में भी आ पहुँचा है जहाँ उसे अपने कल के होने पर भी संदेह है। पशु-पक्षी व पेड़-पौधों को विलुप्त करने वाला मनुष्य आज खुद विलुप्त होने की कगार पर खड़ा है। खुदको मनुष्य कहने वाली इस जाति को आज किसी जानवर जैसी ही मृत्यु प्राप्त हो रही है,ठीक एक लावारिस जानवर की तरह। जिसके मरने पर कोई अपना उसके आसपास भी नहीं होता,जिसे बस उठाकर फेक दिया जाता है और यहाँ-वहाँ ख़बर दौड़ ही जाती है कि कहीं कोई फिर मारा गया। जिसकी पहचान से कोई फर्क नहीं पड़ता ,कुछ फ़र्क पड़ता है तो बस मृत की गिनतियों से जैसे मानों सड़क पर किसी गाड़ी की चपेट में फ़िर से कोई कुत्ता आ गया हो।
और किसी कुत्ते/जानवर की मृत्यु पर तब तक आह नहीं निकलती जब तक आँखों देखी न हो या वो पालतू न हो।