फालतू

फालतू

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सुबह सुबह दौड़ के किचन की तरफ भागने लगी और जैसे ही घड़ी को देखा तो सात बज रहे थे। फटाफट काम शुरू कर दिया। हर दिन की तरह आज भी पतिदेव की ऊँची आवाज़ कान में पड़ रही थी कितनी लेट उठती हो हर दिन, रात को देर तक कहानी लिखती रहती हो और सुबह देर तक सोती हो। आज मेरा नाश्ता भी लेट बनाओगी, बच्चो को तैयार कर के स्कूल भेजना है तुम्हें , भाग्यबान ज़रा जल्दी उठ जाया करो। ये सब मैं काम करते - करते सुन रही थी और ये एक दवाई की तरह मेरे काम की गति को बढ़ा रहे थे। मेरे पतिदेव तैयार होकर नाश्ते की टेबल पे आ गये और बोलने लगे एक बात तो है, तुम्हारे पास कितना फालतू टाइम है जो तुम इतनी अच्छी कहानी लिख लेती हो। हमारे पास तो तुम्हारी तरह इतना फालतू टाइम नहीं है वरना हम जैसे शायरी बोलते है, गुलाम अली जी से कम थोड़े ही हैं !

मैं बोली, आप गुस्सा करते हुए कितने अच्छे लग रहे हो इसी पर तो फ़िदा होके आप से ब्याह रचाये थे। मेरी बात को बीच में टोक के बोले, फिर फालतू बात कर रही हो तुम, जल्दी जाओ बच्चो को स्कूल छोड़ना है तुम्हे और मेरा लंच बॉक्स कहाँँ है ? खाने का डिब्बा हाथ में थमाते हुए मैंने कहा शाम को घर थोड़ा जल्दी आइएगा। हर रोज़ आठ बजे आते हैं। आपके साथ थोड़ा समय बिताना चाहते हैं।

ये सुनते ही वो बोले तुम्हारी तरह फालतू टाइम नहीं है हमारे पास, दफ्तर में काम करके देखो, बॉस की डाँट खा कर देखो फिर पता चलेगा तुमको। जब हमारा काम ख़त्म होगा तब घर आएंगे और अपनी ये फालतू की बात छोड़ कुछ अच्छा काम करने की सोचो।

ये गाड़ी निकाल रहे थे और मैं उनको देख रही थी, पता नही कब मेरी नज़रों से दूर चले गये। बच्चों की आवाज़ मुझे वर्तमान परिस्थिति में ले आयी। दोनों बच्चों को तैयार करके , टिफ़िन रेडी करके, स्कूटी निकाल कर स्कूल छोड़ते जाते समय यही सोचती जा रही थी, क्या मेरा सुबह उठना, नाश्ता बनाना, घर साफ करना, कपड़े सुखाना, बच्चों को स्कूल छोड़ना, उनको समय से घर वापस लाना, उनको पढ़ाना, उनके साथ खेलना और पति की आर्थिक सहायता करना क्या सच में फालतू है ?

इसी बीच कब बच्चों को स्कूल छोड़ घर वापस आ गयी पता ही नहीं चला। एक छोटी - सी मुस्कान के साथ फिर आपने फालतू के काम में जुट गयी...।


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