पापा मैं छोटी से बड़ी हो गई...
पापा मैं छोटी से बड़ी हो गई...
शादी के 5 साल हुए थे रिया अपनी जिंदगी में खुश थी पर आज एक खालीपन दिल में था जो कचोट रहा था। उसके मन में ढेरों सवाल आ.. और जा.. रहे थे..। आज मन बहुत बेचैन था। कहां गई तुम...कहां गई... तुम्हारी वह लेखनी... जिस पर लोग बधाइयां देते थे... कहां गयी... वह कविता जिसे तुम बेधड़क लिख दिया करती थी... कहां गई... वह कहानी जिसे तुम एक अलग ही अंदाज में कागज पर उतार दिया करती थी।
आज सब कुछ था पर यह एक कसक बार बार अपने वजूद के न होने की याद दिला रही थी। नहीं... अब नहीं... अब फिर से मुझे नयी शुरुआत करनी होगी। अपने वजूद को पाने की अपने दिल के कसक को मिटाने की...। एक अच्छी शुरुआत करनी ही होगी। कलम उसके हाथों में पल भर में ही आ गई एक नई शुरुआत करने के लिए... अपने वजूद को फिर से पाने के लिए... पर क्या लिखूं कुछ समझ नहीं आ रहा कैसे शुरुआत करूं... एक समय था जब मेरी कलम कागज पर चलती थी... ऐसा लगता था जैसे मेरे दिल के सारे जज्बात भर जाते थे हर एक शब्दों में अपने दिल के उभरते जज्बातों को उतार दिया करती थी।
पर सब कुछ बदल गया कुछ ही सालों में। शादी के बाद हर वो ख्वाब बदल गए जो मैंने देखे थे इन 5 सालों में। ससुराल और बच्चे सब में... बस... अपने आप को खो दिया। अपनी कागज और कलम से जुड़ा अटूट रिश्ता ऐसा टूटा... कि फिर इन सालों में कभी ना जुड़ पाया। क्यों... आखिर क्यों... शादी के बाद सब कुछ बदलना पड़ता है, हर किसी को खुश रखना पड़ता है, अपनी खुशी को खोना पड़ता है, अपने वजूद अपने शौक को मानना पड़ता है, अगर कोशिश भी करो तो खुद के वजूद के लिए समय ही नहीं मिल पाता।
मायका...ओह... सचमुच कितनी यादें जुड़ी होती हैं। बस एक नाम से ही आंखों के कोर भींग जाते हैं। मायका जहां हम खुल कर जीया करते थे, अल्हड़ मुस्कान के साथ खुश रहा करते थे, उन गलियों में उन्मुक्त दौरा करते थे, जहां अपने मनमर्जियां चलाया करते थे डाँट खाने पर घर से बाहर भाग जाया करते थे, बेबाक सी जिंदगी सचमुच याद बहुत तुम आते हो। आज फाइल खोला तो कितनी कविताएं कहानियां पड़ी थी बेहाल सी जैसे कह रही हो मुझमें तो जान डाल दो... कब से बेजान पड़ी हूं... मैं... मुझे एक नजर तो देख लो, मैं भी तुम्हारे साथ जीना चाहती हूं, तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं मैं... याद आया मुझे जब शादी से पहले में लिखकर पोस्ट करती थी और प्रकाशित होते ही जैसे मन झूम उठता था... पापा-मम्मी सभी को कितनी बार दिखाती और पढ़ाती थी... कितने नादान भरी थी मैं। सोचा ही ना था एक समय ऐसा भी आएगा जब मैं रह जाऊंगी अकेली चाह कर भी पंख फड़फड़ा नहीं पाऊंगी। जब आई थी तब कुछ सोचा नहीं...
शादी के बाद जिंंदगी इतनी बदल जाएगी खुद के लिए ही समय मिल नहीं पाएगी
बार-बार यह सवाल आता है क्यों..क्यों.. हमें अपने आप को भूलना पड़ता है,
हां हर बात से समझौताा हमें ही करना पड़ता है
बहू हो, पत्नी हो, मां हो हर बार याद दिला दिया जाता है
शादी से पहले तो ना थी यह सब बातें
किसी की बेटी थी, किसी की बहन थी, किसी की दीदी थी, किसी की बहुत कुछ थी
पर उड़ती थी आसमान में अपने पंख फड़फड़ाये
रोकने-टोकने का असर न कुछ होता था
बस खुले आसमान में मनभर उड़ा करती थी
एक दिन दूर उड़ कर चली जाऊंगी
बड़ी होने पर किसी और की हो जाऊंगी
बहु, पत्नी और मां की जिम्मेदारी निभाऊंगी
पर कहीं ना कहीं अपने आप को खोती ही जाऊंगी
नहीं ऐसा तो न सोचा था हां ऐसा तो न सोचा था
कभी कभी ऐसा लगता है लौट जाऊं
कुछ पल के लिए ही सही पुराने दिनों में खो जाऊं
कहीं पापा की प्यारी, मां की लाड़ली बन जाऊं...
उनकी गोद में सर रखकर हर जिम्मेदारी से मुक्त हो जाऊं
कुछ पल के लिए ही सही सब कुछ भूल जाऊं
बार-बार मन यह सवाल करता है
क्यों? क्यों? अपने आपको खोना पड़ता है
अपने आप से दूर होना पड़ता है
अपनी ख्वाहिशों को मारना पड़ता है
काश मै बड़ी ना होती काश मै छोटी ही रह जाती
और कुछ पल अपने मायके में और बिता पाती
आंखें भर... भर... जाती है एक सवाल आंखों में तैर जाती है
पापा मै छोटी से बड़ी हो गई क्यों... हां पापा बोलो ना... छोटी से बड़ी हो गई क्यों...।
एक बूंद आँसू कागज पर गिरे... अरे ये क्या आँखों में आँसु लिए मैंने क्या लिख दिया... जल्दी से आँसू पोंछा और तकिये के नीचे छुपा दिया उसने कहीं किसी की नजर पड़ी तो उसके दर्द को सब समझेंगे नहीं मजाक बनाएंगे। नहीं नहीं चुपचाप मुझे अपने वजूद को पाना ही होगा अकेले ही सही आगे पांव बढ़ाना ही होगा।
परिवार के याद आने से ही सही मैंने आज खुद को तलाश ही लिया।