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Abhishek Pandey

Abstract Tragedy Inspirational

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Abhishek Pandey

Abstract Tragedy Inspirational

पानी

पानी

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मुझे आज भी वे दिन याद हैं, जब मैं 'पानी' से कोई भी समझौता नहीं कर पाता था। पानी मेरे ऊपर अधिक, अत्यधिक तथा उससे भी कहीं ज्यादा व्यय होने वाला वस्तु था। माँ हमेशा कहा करती-'किसी भी चीज की अत्यधिक व्यर्थता ठीक नहीं होती।' पर बचपन था बीतता गया और अब मुझे पढ़ने के लिए गाँव से शहर भेजा जा रहा था। 

ट्रेन और शहर दोनों का ही सफर मेरे लिए पहली बार था; मैं मायूस-सा खिड़की पर अपने सिर को टिकाए कुछ सोच ही रहा था कि तभी मेरे कानों में दूर से आता हुआ, धीमे से तेज होता हुआ एक स्वर सुनाई पड़ा-"पानी ले लो पानी; पानी बॉटल..।" बंद बोतलों में जब मैंने पानी को बिकते देखा तो हृदय को भय के साथ जोर का धक्का लगा, मन ने कचोट कर कहा-'पानी भी बिकता है?' फिर बड़ी ही मासूमियत से अपने साथ लाए थोड़े से बचे हुए पानी को मैंने देखा, पानी ने नजरें फेरते हुए कहा-'मुझ खत्म होते मिथ्या को क्या देखता है? उन बंद बोतलों में बिक रहा पानी ही परम सत्य है।' 

शहर आकर पता चला पानी के लिए कुछ दूर तक जाना होता है, पानी अपने समय पर आता है अर्थात अगर पानी चाहिए तो पानी से समय-समय पर मुलाकात करते रहना होगा। एक दिन तो हद ही हो गयी जब समय पर आने वाला पानी भी मुँह फेर बैठा, कल का भरा हुआ पानी अभी भी थोड़ा बचा हुआ था-"सुख की स्थितियाँ जब विकट परिस्थितियों में परिवर्तित हो जाती हैं तो इंसान सहेजना सीख जाता है।" पानी के टब में बैठा मैं अपने ऊपर मग से पानी डालता, पानी मेरे शरीर को भिगोता हुआ टब में इकट्ठा हो जाता, मैं उसका पुनः-पुनः इस्तेमाल करता जाता..मैं खिन्न हो उठा मैंने सहेजना सीख लिया था पर समन्वय अभी बाकी था-'समय और हालातों के बीच में समन्वय।'

अबकी गाँव वापस आया तो मेरा गाँव बाढ़ की समस्या से जूझ रहा था, मैं तो पानी के लिए तरस-सा गया था और यहाँ चारो तरफ श्वेत- श्वेत जल स्तर ही थे पर इस अथाह पानी से मुझे अब घृणा महसूस होने लगी थी, मुझे शहर का बचा हुआ वह थोड़ा-सा 'पानी' इस अथाह जल स्तर से कहीं ज्यादा प्रिय महसूस हो रहा था। मैंने सीख लिया था- "व्यर्थ न करना, सहेजना और समन्वय करना।"


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