KARAN KOVIND

Tragedy

4.0  

KARAN KOVIND

Tragedy

ननकू

ननकू

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198


दिनों दिन ननकू चाहता था कि उसकी झोंपड़ी का उजड़ा भाग बन जाये जो तेज हवा कि मार से गिरे हुये थे। क्योंकि वह जानता था कि शाम तक इसकी मरम्मत करने में कठिनाई होगी शाम के समय तेज हवा चलने लगती कभी कभी आंधी तेज चलती ननकू के मन को ढिढोसती कि जल्दी झोंपड़ी ठीक करो वरना कब किस वक्त गोरा बादल कि बूंदा बांदी होने लगे सुबह का समय था कभी बादल छाते अभी धूप हो जाती बादल जैसे सूरज से हटता सूरज लाल किरण पूरे गांव में फ़ैल जाती धीरे धीरे बह रही हवा यही बता रही थी की कहीं न कहीं बारिश तो जरूर हुयी होगी ननकू खेतों कि चहल पहल देखकर और साथ साथ नित्य क्रिया भी करके आ रहा था सफेद मैला सा कुर्ता और खादी के लंगोट सर पर हल्की नील दी हुयी पगड़ी जो मीनार कि तरह नीचे झुकी थी हाथ में फूले की छोटी बाल्टी जिसे वह हमेशा लिये रहता था आंगन कि एक किनारे जहां एक विराना सा चुपचाप दुबका हुआ नीम का पेड़ था जिसे ननकू के पिता रामकिशोर ने लगाया था पिता जी तो रहे नहीं रही तो केवल यह नीम जिसमें उनकी यादें है। उनकी खेती बारी दो बैलों कि जोड़ी और उनके खुरच चुके कसाढ़ एक धोती कुर्ता और एक मोटी सांप सी चितकबरी लाठी जिसे वो लील गायों को हांकने में किया करते खैर छोड़ो उन्हीं के नक्शे कदम पर चलकर ननकू भी किसान बना यूं कह लो तो ननकू कि किस्मत साथ नहीं दे रही थी पर उसका कहना था कि वह अपने बच्चों को किसानी तभी करने देगा जब उन्हें किसी प्रकार सरकारी नौकरी न मिले ननकू एक रूढ़ीवादी मानस का आदमी था। पर उसकी आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण अपने परंपरागत कार्यों को उसे विराम देना पड़ता था । फिर धीरे से घर में प्रवेश करता और सरसराहट पैरों की आवाज सुनकर लीला बोल उठी अरे जी झोंपड़ी कि मरम्मत तो कर दीजिए पता नहीं किस तलब बूंदा बांदी होने लगे ननकू बेचारा अपने सारे समान बीड़ी माचिस बाल्टी हुक्के की सिंगार को इकट्ठा उपर वाले पाकेट से निकाल क्या उस मिट्टी के बने दीवार के खिड़की के बगल में बीचों बीच एक बेहतरीन कलाकारी से नक्काशित करता था, उस पर रखकर एक सामने रखे घड़े से एक गिलास पानी निकालता और एक हाथ से चुल्लू बना कर पानी पीता पानी पीने के बाद गमछे से मुंह को पोंछ कर सीढ़ी लगाकर छपरे पर चढ़ गया सोचने लगा क्या जीवन रात भर खेतों की मेड़ों को पटरी कि तरह सीधे करो कहीं वहां पानी भर रहा कहीं निहोरे के खेत में घर आओ तो एक गिलास पीने को पानी भी कोई नहीं पूछता बड़ी विडंबना है। ननकू धीरे सांस को छोड़ते हुए ऊपर जा बैठा उसने आहिस्ता पैरों खपांची के बीच में फंसाया और डेंगते हुते खड़ा हुआ वह देखना चाहता था। गांव में इसी तरह कितनी फूंस के छप्पर उखड़ चुके थे नीचे से लीला अरे बढ़ाऊँ

आराम से ढकील मत आना, ननकू कैसे ढकीलेगे रोज जो घी रोटी में मलते है। उससे पैर कमजोर हो जायेंगे क्या तुम्हारे लड़कों से भी तंदुरुस्त हूं। वो नकेरूआ पता नहीं क्या खाता है। टिड्डा इतना कहते उसे नकेरूआ को बुलाया नकेरूआ जो ननकू बेटा था उसकी आयु तकरीबन 13थी हल्का गोरा दुबला सा उपर एक शर्ट डाले थे पर पैंट की जगह चड्डी ही बनता था आप कल्पना कर सकते कैसे जिसमें पेशाब करने की कोई जगह नहीं होती झट से नकेरूआ वहां पंहु आया उसने ननकू हां कहते हुते बोला बोलिये ननकू ने कहा बेटा मेरी कुछ मदद कर छत और खपड़े भी फूटे है। वह कासों को एक सीध में रखकर किसी रेशम के धागों से समीहाकर बांधता और नकेरूआ उसे खपांची पर बिछाता जाता लीला नीचे से मिट्टी जिसे उसने देवी फूली के साथ मिलकर वह पास टीले के कच्ची सड़क के पास तालाब से कुछ दिन‌ पहले तसलो से भर लायी थी उसमें उसने जानवरों के लिए छीली गरी घासों को मिलकर पैरों से सौदेने लगी मिट्टी के पल्प तैयार होते ही उसने सारे मिट्टी को नकेरूआ को थमाती गयी और ननकू एक एक चिपे को सपाट करके छत पर बिछाता गया, किसी तरह मरम्मत करने के बाद वह नीचे उतरा और बेटे से पानी मगाकर पीता है फिर अपने साफा से मुंह पोंछता है खाट पर बैठे बैठे नींद लग जाती और शाम कि बयार मे सो जाता क्या बयार चल रही उस झोंपड़ी के जहां दो नीम के पेड़ एक गाय दो बैल अरे जरा उपर तो देखो खड़खड़ा कर बद्री छा रही कब गूंज पड़े पट टप की पुकार ननकू कुछ सोच रहा था उसके फसलों के बारे में जो एक वर्ष पहले भ्रष्ट हो गयी थी कब उसका मुआवजा मिले और वह सेठ का कर्जा चुकाये फिर एक अच्छी सी हर खरीदे जिससे उसे जोताई में आसानी वो पुराने हर अब घीस चुके थे और उनको चलाने में ताकत कि बड़ी आवश्यकता होती थी, बस उसे सरकार से मुआवजे कि इंतजार था तभी अचानक खाट पर सोते सोते उसकी पत्नी कि आवाज सुनायी देती सुनो जी आज दाल चुक गया सेठ जी से उधार कुछ लाओ न आज तो बीत जायेगा लेकिन कल का क्या बेचारा ननकू गरीबी निदान और सुखी फसल का अनुमोदन करना चाहता लेकिन भाग्य उसका साथ ही नहीं दे रही


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