नियति का लेखा
नियति का लेखा
सरिता बचपन से ही मेधावी छात्रा और घर भर की प्यारी लाडली थी।पढाई से लेकर भाषण आलेख,निबंध वाद विवाद हर प्रतियोगिता में अव्वल आना ही उसका ध्येय था।
उसके मासूम से मन में एक ख़्वाहिश सी थी कि वह बड़ी होकर खूब बड़ी ऑफिसर बनेगी ताकि उसके माता पिता को उस पर फख्र होगा।
इसलिए जब सारे बच्चे खेलकूद और मस्ती में समय बिताते वह अपना सारा ध्यान पढाई में लगाती थी।आस पास के लोग अपने बच्चों को उसका उदाहरण देते थे।
अचानक उसे एक असाध्य बीमारी ने घेर लिया,वह अपने बीमारी के तकलीफ में पढ़ाई पर बिल्कुल ही ध्यान नही दे पाती थी।और धीरे धीरे वह औसत दर्जे की छात्रा ही रह गयी।किसी तरह उसने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की।
पर उसके बाद कहाँ उसने ऑफिसर बनने का सपना देखा था और कहाँ वह जिंदगी बचाने की कवायद में लग गयी।धीरे धीरे उसकी हिम्मत कमजोर होने लगी।नियति का लेखा मानकर शायद वह यह सब सह कर चुप बैठी रहती,परन्तु न जाने कहाँ से उसने हिम्मत जुटाई और फिर आगे पढाई जारी रखते हुए स्नातक करने के बाद बी पी एस सी की परीक्षा देकर प्रखंड विकास पदाधिकारी के रूप में चयनित होकर अपने पदस्थापित प्रखंड में नियुक्ति के लिए जाते समय गाड़ी में बैठे हुए उसको धयान आया।
अगर इरादे मजबूत हो तो हम नियति के लिखे को भी बदल सकते हैं ।