निरुत्तर
निरुत्तर
“अरे, क्या रिक्शा खाली है?” परमजीत ने रिक्शे वाले को रोकते हुए पूछा।
“जी, बताइये कहाँ चलिएगा?” रिक्शे वाले ने पूछा।
“अरे भाई, यहीं मार्केट तक जाना है और वहाँ से कुछ सामान लेकर वापस आना है।” परमजीत ने रिक्शे में बैठते हुए बताया।
“बाबू जी, तीस रुपया लगेगा, बाद में घिसपिट नहीं करिएगा।” रिक्शे वाले ने किराया बताया।
“अबे क्या बात करता है, पाँच जाने के और पाँच आने के, दस रुपये ही तो बनते हैं, ले लेना!” परमजीत ने कहा।
बाबू जी, दस रुपये में एक कप चाय भी नहीं मिलती।” उसने महंगाई का वास्ता देते हुए कहा।
“अच्छा ऐसा कर, न तेरी न मेरी, पंद्रह रुपये ले लेना, अब चल, मुझे देर हो रही है।” परमजीत ने मानो रिक्शे वाले को आदेश दिया।
रिक्शे वाले ने मन में सोचा कि आज सुबह न जानें किसका मुँह देखा था जो अब तक मुँह में अन्न का एक दाना तक नहीं गया। यदि बीस रुपये भी मिल जाते तो छोले-कुल्छे खा लेता। लेकिन प्रकट में उसने कुछ न कहा और रिक्शा खींचना प्रारम्भ कर दिया। मार्केट से परमजीत ने एक ब्रेड का बड़ा पैकेट और एक दूध की थैली खरीदी और रिक्शे में वापस आ बैठे। उसके पश्चात् रिक्शे वाले को रिक्शा खींचने का आदेश दिया। कुछ दूर चलने के पश्चात् परमजीत ने कहा, “अरे, यहीं रोक!”
वे सामान लेकर नीचे उतर गये और कुत्ते के सामने जाकर ब्रेड खोलकर रख दी। कुत्ते ने पहले परमजीत को देखा, फिर ब्रेड को सूंघा। उसके पश्चात् फिर परमजीत को घूरा और गरदन मोड़कर एक ओर चल दिया। परमजीत कुत्ते के पीछे भागे और उसका रास्ता रोककर ब्रेड उसके सामने पुनः डाल दीं और दूध की थैली फाड़ कर दूध जमीन पर उड़ेल दिया। परन्तु कुत्ते का तो जैसे आज निरजला व्रत था, उसने दूध को सूंघा तक नहीं और ब्रेड को पैरों सेबिखेरता हुआ उधर भाग गया, जहाँ कुछ कुत्ते आपस में वाक युद्ध कर रहे थे। परमजीत भागते कुत्ते को देखते रह गये और रिक्शे पर आ बैठे।
“बाबू जी, आजकल कुत्तों के पेट भरे हैं और इंसान के खाली। इससे अच्छा तो ये सब हमें ही दे देते, आज सुबह से खुदा कसम एक निवाला हलक के नीचे नहीं उतरा है। हम तो साहब आपको मुफ्त में लाना-ले जाना भी कर देते।” रिक्शे वाले ने सूखे होठों पर जीभ फिराते हुए कहा।
परमजीत से रिक्शे वाले को कोई जवाब देते न बना। उनकी जुबान को जैसे लकवा मार गया था। वे अपने जीवन में पहली बार किसी के समक्ष निरुत्तर हुए थे।
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