निर्णय
निर्णय
"माँ संभल कर चलिए। लाइए अपना हाथ मैं आपको कार तक लेकर चलता हूं।"
"अच्छा! ज्यादा स्याना मत बन अभी तेरी माँ इतनी बुढ़ी नहीं हुई कि सहारे की जरूरत पड़े।" फिर दोनों हँसने लगे।
माॅल की सिढ़िया चढ़ते हुए ये आवाज़ मेरी कानों में पड़ी और मैं अचानक से ठिठक गई। अरे! ये तो प्रो. पूर्णिमा है। और ये इस शहर में ही रहती है और उनके साथ ये युवक कहीं वही---?
मुझे कुछ शाॅपिंग करनी थी लेकिन मैं सीधे घर आ गई। दिमाग में आज से करीब सत्ताईस-अठाईस साल पहले कि प्रो. पूर्णिमा का चेहरा घूमने लगा।
प्रो. पूर्णिमा हमारे काॅलेज में हिन्दी विषय की प्रोफेसर थी। उनका व्यक्तित्व उन्हें अन्य औरतों से अलग करता था। सांवला रंग, रौबदार गंभीर चेहरा, आवाज में वजन, गजब का आत्मविश्वास, चाल में फुर्तीलापन, कुल मिलाकर आकर्षक व्यक्तित्व की मालकिन।
प्रो. पूणिमा जैसे ही काॅलेज के गेट के अंदर प्रवेश करती मानो साक्षात अनुशासन हमारे सामने हो। सभी लड़कियां अपने-अपने स्थान से उठ कर खड़ी हो जाती। गप्पेबाज़ी बंद हो जाती। हम सांस रोके जहाँ के तहाँ खड़े रहते जबतक वो टिर्चसरुम में नहीं चली जाती थी। कभी किसी रोज कॉलेज में प्रवेश करते वो हम लड़कियों से बातें कर लेती और वो भी हँसकर तो मानो उस दिन हमारे भाग्य ही खुल जाते। उनका हँसकर बात करना बहुत नसीब से नसीब होता था।
इन सबके विपरीत वो टिर्चसरुम में अन्य शिक्षिकाओं के साथ हमेशा हँसते-बोलते नज़र आतीं। शायद, हम छात्राओं को अनुशासन में रखने के लिए ही हमारे साथ थोड़ी सख़्त थीं। पर, कॉलेज में वह किसी फंक्शन पर हमारे साथ बिल्कुल घुल-मिल जाती थी।
प्रो. पूर्णिमा ने एक गरीब लड़की को अपने घर में पनाह दी थी। वह अपनी एक रिश्तेदार के यहां छुट्टियों में गई थी जहाँ उनकी मुलाकात वसुधा से हुई । वसुधा एम. ए में अध्ययनरत एक अनाथ लड़की थी। ट्यूशन पढ़ाकर बहुत मुश्किल से अपना गुज़ारा कर पाती थी। वो आगे लेक्चरर बनना चाहती थी। वसुधा के बारे में ये सब जानकर प्रोफेसर पूर्णिमा उसे अपने साथ अपने शहर ले कर आ गई। ये कहकर, "कि आज से पढ़ाई के साथ-साथ तुम्हारी सारी जिम्मेदारी मेरी।" वसुधा की खुशी का तो ठिकाना ना रहा। "धन्यवाद दीदी" कहकर वह उनके गले से लग गई।
प्रो. पूर्णिमा का छोटा सा परिवार था। वो और उनके पति नवीन। एक बेटी थी जिसकी शादी उन्होंने पिछले साल ही की थी और वो अपने पति के साथ विदेश में रहती थी। नवीन ने भी ऐच्छिक अवकाश ले लिया था तथा पास के ही अपने गाँव का खेती-बारी का काम सम्भाल लिया था।
वसुधा के आ जाने से प्रो. पूर्णिमा का भी मन लग गया था। कॉलेज के बाद सारा समय वह वसुधा की पढ़ाई पर केंद्रित करती। वसुधा भी उनका बहुत ख्याल रखती। सुबह उठकर चाय बना देना, नाश्ता तैयार कर देना। जब कभी वह दोपहर में जल्दी आ जाती तो देखती वसुधा ने दोपहर का खाना बना लिया है और नवीन को खिला दिया है।
एक शाम जब दोनों पति पत्नी बालकनी में बैठे थे, तभी अचानक नवीन बोल पड़े, "पूर्णिमा तुम्हें नहीं लगता कि वसुधा के आ जाने से तुम कॉलेज के बाद सोशल वर्क में कुछ ज्यादा ही समय व्यतीत कर रही हो और मैं यहां अकेला ---।"
"ओह नवीन तुम भी ना ! 50 के होने जा रहे हो और बातें बिल्कुल बच्चों जैसी।" तभी वसुधा चाय लेकर आ गई और कहा, "क्या शिकायत हो रही है मेरी? क्या मैं दीदी के पीछे आपके खाने पीने का ध्यान नहीं रखती?"
"नहीं- नहीं ऐसी कोई बात नहीं। तुम बैठो ना चाय पियो।" नवीन ने कहा, फिर तीनों गपशप करते हुए चाय पीने लगे।
वसुधा को प्रो. पूर्णिमा के घर में रहते हुए करीब 2 साल हो गए थे। इस बीच नवीन और वसुधा के बीच एक दूसरे के लिए कब आकर्षण पैदा हो गया वे खुद नहीं समझ सके। दिनभर एक दूसरे का ख्याल रखना, "आप चाय पिएंगे"
"हाँ अगर अपने लिए बना रही हो तो बना लो।"
"सर खाना लगा दू।"
"हाँ पर तुमने खाया या नहीं?"
और फिर इस देखभाल ने एक अलग मोड़ ले लिया जिसे प्यार नहीं कहा जा सकता।
पुरे चार महीने चढ़ जाने के बाद प्रो. पूर्णिमा को इस बात का पता चला। वो पूरी रात नवीन के बारे में सोचती रही। अठारह वर्ष की आयु में उनका ब्याह नवीन के साथ हो गया था लेकिन नवीन ने पूर्णिमा के प्रोफेसर बनने के सपने को साकार करने में पूरा सहयोग दिया था और आज वही नवीन उनके साथ----।
सारी रात, "मैने ऐसा क्या किया।, मेरे साथ ही क्यों, उसने ऐसा क्यों किया" जैसे सवाल प्रो. पूर्णिमा के दिमाग में हथौड़े सा वार करते रहे थे।
सुबह पूर्णिमा ने किसी से बात नहीं की। रोजमर्रा की भांति वो आज भी अपने स्कूटर से काॅलेज के लिए निकलीं। सबकुछ पहले की तरह था। बस नवीन के लिए उनके दिल में कोई जगह नहीं थी। एक घर में रह कर भी दोनों नदी के दो किनारों की तरह थे। नवीन तो इतनी आत्मग्लानि में डुबे हुए थे कि सर भी नहीं उठा पा रहे थे। पर, एक स्त्री के लिए पुरुष के फितरत को समझना मुश्किल नहीं होता। नवीन भी उन्हीं में से एक निकले। पुरुष ऐसे मौकों का फायदा उठाना बखुबी जानते हैं। उनके लिए तो, "मै ऐसा नहीं चाहता था पर हो गया।" ,कह देना बहुत साधारण बात है। खुद को एक स्त्री के जगह पर रख कर उसके दर्द ,चोट, करूणा, स्नेह, त्याग, विश्वास और निष्ठा का मुल्यांकन कर पाना बहुत कठिन है। "त्रिया चरित्र दैवो ना जाने।" कहने वालो ने कभी पुरुष चरित्र का विश्लेषण नहीं किया होगा क्योंकि पुरुष अपने चरित्र का परिभाषा अपने पक्ष के अनुकूल बदलने का अधिकार रखते हैं।
इन सारे कश्मकश के बीच प्रो. पूर्णिमा कुछ निर्णय कर चुकी थीं। दूसरे ही दिन अपनी बहुत ही विश्वस्त लेडी डॉक्टर के पास वसुधा को छोड़ आईं। मुहल्ले में सब यही जानते थे कि वसुधा पढ़ाई के सिलसिले में कुछ महीनों के लिए बाहर गई है।
छः महीने के बाद वसुधा के वापस आने पर उसकी स्वीकृति से प्रो. पूर्णिमा ने बैंक में उच्च पद पर कार्यरत शेखर से उसकी शादी बड़े धूमधाम से कर दी।
वसुधा की शादी के एक महीने बाद ही प्रो. पूर्णिमा ने अपनी डाक्टर सहेली की मदद से एक नवजात अनाथ बच्चे को गोद लिया। जिसने भी सुना सबने प्रोफेसर पूर्णिमा की तारीफ की। उन्हें महान कहा।
पर, प्रो. पूर्णिमा के मन की वेदना को कोई नहीं जान सका। अगर बच्चे की असलियत कोई जानता तब उन्हें एक स्त्री की महानता का पता लगता। जिस बच्चे को समाज 'पाप का फल' कहता, उस बच्चे की सच्चाई को छुपाकर उन्होंने अपने संरक्षण में खिलने का मौका दिया। बहुत सोचने-समझने के बाद ही तो उन्होंने उस रात ये निर्णय लिया था। नवीन को कुछ न कह कर भी उनकी करनी की सजा उन्हें दे गईं।
कुछ दिन बाद मुहल्ले में धीरे-धीरे ये खबर फैल गई कि पता नहीं नवीन और पूर्णिमा के बीच ऐसा क्या हुआ कि पूर्णिमा नवीन को छोड़कर अपने गोद लिए बच्चे के साथ किसी दूसरे शहर चली गई।
