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Shyamli Sinha

Inspirational Others

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Shyamli Sinha

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जुनैदा

जुनैदा

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आज सुबह से ही गाँव में अजीब सी हलचल मची हुई थी। जहाँ-तहाँ झुंड बनाकर लोग आपस में बातचीत करते हुए नजर आ रहे थे। औरतें और बच्चियों की टोलियां गाँव के रहमत मियाँ के घर के तरफ जाते हुए दिखाई दे रही थी।  मैंने भी उत्सुकता वश उधर से आ रही सगुना काकी से पूछा- 

"क्या हुआ काकी सुबह-सुबह कहाँ से चली आ रही हो और ये रहमत चाचा के घर पर भीड़ कैसी है?"

सगुना काकी ने कुछ गुस्से और कुछ खुशी के मिश्रित भाव लिए कहा- "अरे बिटिया! जुनैदा का शौहर आया है उसे लिवाने पूरे चौदह साल बाद।"

इतना सुनते ही मैं उल्टे पांव भागकर अपने घर आई और बड़ी माँ और माँ को सारी बातें बताने लगी। 

पता है जुनैदा दीदी के शौहर आए हैं उन्हें लेने। उनके घर के पास बहुत भीड़ लगी है। 


यह घटना आज से करीब चौंतीस-पैतीस साल पहले की है जब जुनैदा को उसका पति लेने आया था।

यहाँ जुनैदा को जानने के लिए हम और सोलह साल पीछे जाएंगे। 


यह कहानी उस बड़े गाँव की है जहाँ अधिकतर आबादी हिंदुओं की थी। चौबीस-पच्चीस टोलें को मिलाकर बने इस गाँव में एक टोला मुसलमानों का था, जो हमारे घर से बिल्कुल नजदीक था। आपस में भाईचारा, प्रेम-मोहब्बत इतना कि बयां करना मुश्किल। उनकी रोजी-रोटी का साधन खेती बारी के अलावे चूड़ियों का व्यवसाय था। रहमत मियाँ की पत्नी बहुत ही नेक दिल, सुलझी हुई महिला थी। उनके चार बेटों और दो बेटियों में जुनैदा सबसे बड़ी थी। साफ रंग, साधारण नाक-नक्श, शांत स्वभाव की जुनैदा की सभी तारीफ करते थे। उस समय मुस्लिम परिवार की लड़कियाँ या यूँ कहें ज्यादातर गाँव की लड़कियां शिक्षा से वंचित थी। उन्हें घर-गृहस्थी, सिलाई-कढ़ाई जैसे कामों में निपुण बनाया जाता था।

सोलह वर्ष की होते होते जुनैदा की भी शादी उसके दूर के रिश्ते में हो गई। 


जुनैदा अपनी ससुराल में बहुत खुश थी। उसे प्यार करने वाला, समझने वाला शौहर मिला था। दिन भर घर के काम, सास ससुर की सेवा में लगी रहती थी। जुनैदा की तारीफ ससुराल में भी होने लगी सब जुनैदा से बहुत खुश थे।


जुनैदा की शादी के सात-आठ महीने बाद ही उसकी ननद रजिया की शादी जुनैदा के ममेरे भाई के साथ हो‌ गयी। लेकिन जुनैदा की ननद ने अपनी कर्कशा स्वभाव के कारण ससुराल में सब का जीना हराम कर दिया। बात-बात पर मायके चले जाने की धमकी देने लगी। बहुत समझाने पर भी नहीं मानने पर ससुराल वालों ने उसे मायके पहुंचा दिया। पर रजिया को कोई गम ना था। वह तो वही चाहती थी, उल्टे वह बहुत खुश थी- "या अल्लाह! अब आराम से रहूंगी यहाँ कोई रोकने टोकने वाला नहीं।"


कुछ दिनों के पश्चात जुनैदा ने उचित समय देखकर रजिया के बालों में तेल लगाते हुए कहा- "रजिया ससुराल मायके नहीं होता बहन। वहाँ सब को अपना बनाना पड़ता है। तुम सब का ख्याल रखोगी, तो सब तुम्हें प्यार करेंगे। उनकी बातों का क्या बुरा मानना, रहना तो तुम्हें वही है।" "ज्यादा मत बोलो भाभी"- रजिया चिल्लाई। "जब भाई जान तुम्हें तुम्हारे मायके छोड़ कर आएंगे तब तुम्हें पता चलेगा"- रजिया के मुँह से इस तरह की बातें सुनकर जुनैदा का रूह काँप गया। यह क्या बोल रही हो- जुनैदा ने कहा।


ननद-भौजाई की यह सारी बातें रजिया के अब्बा ने सुन ली थी। उनके दिमाग में बैठे शैतान ने एक निर्णय लिया। रात में सबके खाना खा लेने के बाद उन्होंने अपने बेटे हामिद को बाहर बैठक में बुलाया और कहा- "बेटा जुनैदा बड़ी अच्छी बहू है। पर हमें अपनी बेटी के बारे में भी तो सोचना है।" 


"मैं समझा नहीं अब्बा। आप कहना क्या चाह रहे हैं?"- हामिद ने कहा। 


"बेटा रजिया का शौहर जुनैदा का मामूजाद भाई है। तुम जुनैदा को कल इस शर्त पर उसके मायके छोड़ आओ कि जब तक रजिया को उसके ससुराल वाले लिवा नहीं जाते तब तक जुनैदा भी मायके में ही रहेगी। सोच लो तुम्हारा भी बहन के प्रति कुछ फर्ज बनता है।" 

"जी अब्बा" कह कर वह घर के अंदर चला आया। 

जुनैदा ने शौहर का उतरा हुआ चेहरा देखकर पूछ ही लिया- "खैरियत तो है। आप अपनी परेशानी मुझे बताइए। ऐसा क्या कह दिया अब्बा ने कि आपका चेहरा उतर गया?" 

भारी मन से उसने अब्बा की सारी बातें जुनैदा को बता दी। 

"बस इतनी सी बात।" हालांकि जुनैदा अंदर तक काँप गई थी। फिर भी खुद को संतुलित रख उसने कहा- 

"अगर ऐसा कहा है तो आपको उनकी बात माननी चाहिए।" 

"पर..."

"अब पर-वर कुछ नहीं। हमारे दिल में एक दूसरे के लिए जो अहसास है वह तो कभी मिटेगा नहीं। पर जब तक अब्बा है, पहले उनकी बातों का मान रखेंगे आप। हो सकता है सब ठीक हो जाए ।बस कुछ दिनों की तो बात है।" सुबह होते ही जुनैदा अपने शौहर के साथ मायके में थी। 


माँ-बाप, बेटी-दामाद को आया देख बहुत खुश थे। लेकिन मन ही मन कुछ आशंकित भी। लेकिन तभी जुनैदा ने कहा- "अम्मी परेशान ना हो तबीयत कुछ नासाज चल रही थी तो आ गई।" इतना सुनते ही जुनैदा की माँ का खुशी का ठिकाना ना रहा।

 "सच बेटी" ।

"हां अम्मी"।


जुनैदा की अम्मी के चले जाने के बाद उसके शौहर ने पूछा- "यह अभी- अभी तुम क्या कह रही थी? अम्मी से।"

"सच कह रही थी। कल ही तुमसे बताने वाली थी कि..." 

जुनैदा माँ बनने वाली है और मैं इसे यहां छोड़ कर जा रहा हूं। किसी और की गलती की सजा किसी और को। भारी मन से हामिद जुनैदा को छोड़कर चला आया। 


कुछ दिनों के बाद जुनैदा के माँ -बाप को इस बात की खबर लग गई कि किस बात की सजा मिली है जुनैदा को और फिर धीरे-धीरे सारे गाँव वालों को भी।


सात महीनों के बाद जुनैदा ने एक बच्ची को जन्म दिया। गाँव की बुजुर्ग महिलाओं ने नाम दिया 'नूर'। 

सगुना चाची ने कहा- "देखना, बिटिया तेरी जिंदगी में उजाला लेकर आएगी।" 

धीरे-धीरे साल बीतने लगे नूर भी बड़ी होने लगी थी। जुनैदा अपनी धीर गंभीर स्वभाव के कारण गाँव की चहेती बनी हुई थी। सभी उसे बहुत प्यार करते।


सुबह घर के कामों में अपनी अम्मी का हाथ बटा जुनैदा बेटी की उंगली पकड़े हमारे घर आ जाती थी, जहाँ हमारे अहाते में ज्यादातर महिलाएं अपने घर का काम निपटा कर इकट्ठा होती थी और फिर आपस में हंसी मजाक, गपशप करते हुए कुछ काम भी हो जाता था। एक दिन हमारे अहाते में मक्का छुड़ाते हुए जुनैदा से गाँव की एक औरत ने पूछा- "बेटी क्यों उसकी आस लगाए बैठी हो? कहीं और..." "बस चाची! छोड़ो यह सब बातें। किस्मत में अगर यही लिखा है तो कहीं और शादी करने से बदल तो नहीं जाएगा।" 


फिर जुनैदा हँसकर बोली- "क्यों चाची मेरा यहाँ होना तुम्हें अच्छा नहीं लगता?" 

"अरे नहीं-नहीं। तू तो हमारी शान है।" 

"अच्छा चाची, अब चलती हूं। कल आऊंगी अम्मी देहात से आती होगी।" 

 उधर रजिया अपनी जिद पर अड़ी रही कि वह उस घर में किसी भी शर्त पर नहीं जाएगी। 

और फिर नौ सालों के बाद रजिया ने अपनी मर्जी से 3 बच्चों के बाप से शादी कर ली। 

                

रात में अपनी खाट पर लेटे हुए जुनैदा अपनी बिटिया को निहार रही थी। आज उसकी नूर पूरे 10 साल की हो गई थी। जुनैदा को पता चल गया था कि उसके शौहर ने अपने अब्बा की मर्जी से 1 महीने पहले दूसरी शादी कर ली है। 

इस बात ने जुनैदा के नारी मन को अंदर तक‌ आहत किया था। उसकी रही-सही उम्मीद जो मन के किसी कोने में अब भी जल रही थी, अचानक से बुझ गई। अब जुनैदा का चेहरा भावशून्य नजर आने लगा था। वो पत्थर की बूत की तरह अपने रोजमर्रा के कामों को निपटाती।

दूसरे दिन अहाते में बैठी गाँव की औरतें जुनैदा के शौहर को कोस रही थी। 

"मुंआ! कैसा बेशर्म है! बीवी और बच्ची को ले जाने के बजाय दूसरी शादी कर बैठा।"

सुगना चाची- "अरे हाय लगेगी उसे। इतनी सुघड़ बिटिया के दिल को दुखा कर सुखी नहीं रह पाएगा।"

"चाची ऐसा ना कहो। किसी को बद्दुआ नहीं देते। मैं जानती हूं इसमें उनकी मर्जी नहीं होगी। अब्बा के हुक्म के आगे उनकी एक न चली होगी।" 

                         

"सुन बेटा,  मैंने तेरे साथ बड़ा जुल्म किया है। जिस बेटी की खातिर, ‌तेरी जिंदगी को मैंने नर्क बना दिया, उसी बेटी ने हमारे मुँह पर कालिख पोत दिया। मैंने भोली भाली बेकसूर जुनैदा को बहुत दुख दिया। अल्लाह उसी की सजा हमें दे रहा है। तभी तो तेरी दूसरी बीवी भी अल्लाह को प्यारी हो गई और तेरा साल भर का बच्चा भी चल बसा। यह सब खुदा की ही तो मार है। जो हमने जुनैदा के साथ किया, खुदा उसी का बदला हमसे ले रहा है।"- खांंसते हुए खाट पर पड़े जुनैदा के ससुर ने कहा।


"जाने दो अब्बा। हम अपनी करनी का ही फल भुगत रहे हैं।"

"सुन बेटा आखरी वक्त में मेरी एक बात और मान ले।" 

"क्या अब्बा?"

"बेटा! मैं अपनी सारी गलतियों की माफी मांगना चाहता हूं। तू बहू को जा कर ले आ।" 


"नहीं अब्बा! किस मुंह से आज इतने सालों बाद मैं उसके सामने जाऊंगा। हम अपने स्वार्थ में इतने डूब गए कि मैंने अपनी बच्ची का मुँह तक नहीं देखा। आज वो इतनी बड़ी हो गई होगी। कैसे मैं उसका सामना करूंगा? मुझसे यह नहीं होगा।"

"बेटा, मुझे अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने का एक मौका दे दो ताकि मैं सुकून से मर सकूं।" 


हामिद के जहन में अब्बा की बातें गुंजती रही। वह रात भर सो ना सका। पूरी रात करवटें बदलते यही सोचता रहा- मैंने जुनैदा के विश्वास को कुचला है। किस मुँह से उसका सामना करूंगा। नहीं, मैं अब्बा की यह बात अब नहीं मान सकता। 


सुबह होते ही अब्बा ने पूछा- "बेटा, क्या सोचा?" 


"कुछ नहीं। अभी सोचा नहीं है।" कह कर हामिद तेजी से बाहर निकल गया। 


हामिद रोज रात को जुनैदा से मिलने की बातें सोच सोच कर खुश होता फिर आत्मग्लानि से भर जाता।

नहीं, मैं उसका सामना नहीं कर सकता।


इसी जद्दोजहद में छह सात महीना निकल गया। उसके अब्बा की तबीयत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। नींद में भी बड़-बड़ाने लगे थे- "बेटा, जुनैदा को कब ला रहा है?" 

अपने अब्बा को ऐसी स्थिति में देख,‌ हामिद ने जुनैदा से मिलने का इरादा कर किसी तरह हिम्मत जुटा कर शर्मिंदगी के साथ चल पड़ा। 


और आज वह जुनैदा के मायके में उसके दरवाजे पर खड़ा था। जहां गाँव के बड़े बुजुर्ग और महिलाएं उसे कोस रहे थे। हामिद सिर झुकाए आँगन में बैठा था।  बिना एक शब्द निकाले सबकी खरी-खोटी सुन रहा था। जुनैदा के माँ बाप ने बिना कुछ कहे, घर आए मेहमान का आवभगत किया। शाम होने तक गाँव की महिलाओं का आना-जाना लगा रहा पर जुनैदा हामिद के सामने नहीं आई। उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा था कि हामिद उसे लेने आया है।


दूसरे दिन उसने अपनी माँ से कह दिया कि वह नहीं जाएगी उससे बोल दो वापस चले जाएं।


पर हामिद वापस नहीं गया‌। जुनैदा के द्वारा कहे गए यह शब्द सुनकर भी वह वहीं पर अड़ा रहा। बिना कुछ कहे खरी खोटी सुनाने वालों से बस हाथ जोड़कर माफी मांगता रहा। पश्चाताप के आंसू बहाता रहा। तीन दिनों तक जुनैदा के घर के बरामदे में  पड़ा रहा चुपचाप।  आखिरकार गाँव की औरतों का दिल पसीजा और उन्होंने जुनैदा को समझाना शुरू किया। "बेटी तू तो हमारी गाँव की शान है। एक बार और अपना दिल बड़ा कर और माफ कर दे इसको।


" रमिया काकी ने कहा- "बेटी माफ करना सबके बस की बात नहीं। यह तू ही कर सकती है।" 

जुनैदा के माँ बाप और भाइयों ने फैसला जुनैदा के उपर छोड़ दिया था। उन्होंने साफ कह दिया- जुनैदा जैसा चाहेंगी वही होगा। 


और फिर पूरे दिन जुनैदा को समझाने का सिलसिला चलता रहा।


जुनैदा रात भर अपनी बेटी को गले लगाए उसके भविष्य के बारे में सोचती हुई ना जाने कब सो गई।

सुबह होते ही जुनैदा अपने घर के कामों में व्यस्त हो गई।


नाश्ता करने के पश्चात घर वालों ने बड़े प्यार से कहा - "बेटी तरी जो मर्जी हो हमें बता देना पर एक बार नूर के बारे में जरूर सोचना।"

औरत के त्याग और बलिदान की कड़ी में एक कड़ी जुनैदा का भी जुड़ गया था। ननद का घर बसाने के लिए चौदह साल पहले उसने जो  त्याग किया था आज एक बार फिर बेटी की खातिर अपनी मान का त्याग कर रही थी।

 

फिर जुनैदा ने खुद को संभाला। घर और गाँव वालों की बात का मान रखा। और वह ससुराल जाने को तैयार हो गई। । 


आसपास के सारे मुस्लिम और हिंदू परिवारों की औरतें जुनैदा को अपने घर बुलाकर बड़े सम्मान से उसे साड़ी और सुहाग के सामान के साथ विदाई दे रही थी। पूरा दिन यही सिलसिला चलता रहा और दूसरे दिन दुल्हन के जोड़े में सजी-धजी जुनैदा को सबने नम आँखों से विदा किया।

"आज इस सीता का भी वनवास खत्म हुआ।", ये कहते हुए रमिया काकी भी अपने घर के तरफ चल पड़ी।


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