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निराशा से मिली आशा......

निराशा से मिली आशा......

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आज जब पीछे पलटकर देखती हूँ तो विश्वास ही नहीं होता कि मैं वही प्रतिभा हूँ जो कभी चुप-चुप सी रहती थी। जिसके पास अपने लिए समय ही नहीं होता थI। वैसे भी मेरे लिए मेरा परिवार सर्वोपरि था है और रहेगा...

महज दसवीं पास करते ही शादी हो गई थी जल्द ही मेरी गोद भी भर गई और परिवार के साथ-साथ दो बच्चे की जिम्मेवारी भी संभालनी थी। लिखने का शौक तो बचपन से था पर कभी उसे संभाल के नहीं रखती और मेरी लेखनी अक्सर रद्दी में जाती। मेरी लेखनी के प्रशंसक कम और आलोचक ज्यादा होते थे। एक समय ऐसा आया कि मैंने लिखना बिल्कुल बन्द कर दी थी और पूरा फोकस अपने बच्चों पर करने लगी।

बेटी अब स्कूल जाने लगी थी और मैं ठहरी दसवीं पास हिंदी मीडियम। मैं बेटी को पढ़ने में सक्षम नहीं थी फिर मैं उसके साथ नर्सरी से पढ़ना सीखी और फिर वही उसको पढ़ती उसके साथ एक दो घण्टे की पढ़ाई से ही मुझे खुद में फर्क महसूस होने लगा और फिर पतिदेव की मदद से पत्राचार से बारहवीं की परीक्षा दी। और इस तरह मैं आगे की पढ़ाई करती गई।ज्वाइंट फैमली और लोकल रिश्तेदारों का आना जाना अधिक था हमारे यहाँ जिसके कारण मुझे पढ़ने का समय नहीं मिलता और मैं बी.ए. में फेल हो गई।

काफी निराश हुई थी और ज्यादा मेहनत का संकल्प ले फिर से पढ़ाई करने का संकल्प ले ली, अब मेरी बेटी तीसरी कक्षा में आ गई थी और उसे कंप्यूटर विषय भी पढ़ना था और पढ़ना मुझे था। मैं पास के ही एक कंप्यूटर सेंटर गई और बोली कि मुझे मेरी बेटी को पढ़ना है आप मुझे उसके सिलेबस के मुताबिक पढ़ाओ और इस तरह शुरुआत हुई और तुरन्त ही मुझे नौकरी भी मिल गई। घर, परिवार, नौकरी और पढ़ाई के बीच कब दिन होता और कब रात मुझे पता ही नही पड़ता कई कई रात तक सोती नहीं थी और इस तरह मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की। बहुत ही कम उम्र में जिंदगी के हर रंग से वाकिफ़ हो चुकी हूँ। कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोया है मैंने। जिंदगी कभी कभी समझौता बन जाती है और वही समझौता हमे जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण सबक सिखा जाती है। कुछ कारण ऐसे थे कि जिसके कारण मैं डिप्रेशन में रहती थी और मेरा साथी था मेरा कलम जिससे मैं सब कुछ कहती.....

एक दिन fb पर मध्यप्रदेश लेखिका संघ के बारे में पढ़ी मैं वहाँ गई भी थी और पिछली वाली कुर्सी पर बैठ कर आ जाती यह एक बार नही बल्कि कई बार हुआ ऐसा। एक दिन हिम्मत कर माईक तक पहुँच काव्य पाठ हेतु वह दिन आज भी अच्छे से याद है कि माईक पकड़े मेरे हाथ कैसे काँप रहे थे और कविता सुनाते वक्त आवाज लड़खड़ा रहा था। जैसे -तैसे पाठ कर मैं जैसे ही अपने जगह आने को हुई, सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँजने लगा। यह मेरी पहली सीढ़ी थी आगे बढ़ने का।मेरे आस-पास नकारात्मक लोगों का जमावड़ा था, जो हमेशा से मेरी लेखनी का मजाक उड़ाते रहते, बिना कुछ बोले मन में बस एक ही प्रण था कि उनका जवाब मेरी लेखनी ही एक दिन देगी। साहित्य के क्षेत्र में आज जिस स्थान पर हूँ वह एक ऐसा सपना है जो मैं खुले आँखों से देखती थी और जिसे पूरा करने के लिए मैं सोना भूल गई थी। ना कोई कुछ बताने वाला था ना परिवार में कोई ऐसा था जिससे मदद ले सकूँ। सच कहते हैं कि इरादा मजबूत हो तो ईश्वर भी मदद करता है। अपनी निराशाओं से सीखते-सीखते कब मैं अच्छा लिखने लगी मैं खुद भी ना जान सकी और एक दिन साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा मुझे किताब छपवाने के लिए राशि भी मिल गई। देश-प्रदेश के साथ-साथ अब मेरी रचना को विदेशों में भी स्थान मिलने लगा।इस तरह शुरुआत हुई साहित्य जगत में.......


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