मुसाफ़िर आगे बढ़ते जाना....... !
मुसाफ़िर आगे बढ़ते जाना....... !
आज़ाद भारत अपनी स्वतंत्रता का कौमार्य सुरक्षित रखने के लिए हर कोशिशों में जुटा हुआ था। वर्ष 1947 में ही गांधी जी और कुछ अन्य नेताओं ने कांग्रेस पार्टी को समाप्त कर देने का सुझाव दिया था लेकिन तब तक कांग्रेस पार्टी एक ' हाट केक ' बन चुकी थी और उसका स्वाद चखने के लिए खुला मैदान मिल चुका था। ऐसा अकसर होता है कि किसी नेक इरादे से दस बीस सौ दो सौ लोग जब जुट जाते हैं और संकल्पबद्ध होकर अपने उद्देश्य की ओर बढ़ जाते हैं तो उनकी टीम में विभीषण भी जुटते हैं और अंगद भी। अकेले बापू ने पूरे देश में आज़ादी के लिए जो टीम बना दी थी उसकी जीत हो चुकी थी । बड़ा उद्देश्य पूरा हो गया था लेकिन अभी भी बहुत कुछ बाक़ी था। जैसे बचे राज्यों का भारत संघ में विलय , स्वेच्छया भारत में रहने वाले मुस्लिम लोगों या पाकिस्तान में गये हिन्दू लोगों को सुरक्षा देना, कश्मीरी लोगों का भविष्य तय करना और दंगों की आग रोकना। गांधी को जिन्ना और नेहरु पर विश्वास था कि वे इन अधूरे कामों को कुशलता से कर लेंगे लेकिन यह उनकी भूल थी। सत्ता का नशा ही कुछ ऐसा चढ़ता है कि इसके आगे सारे सिद्धांत और प्राथमिकता गौड़ हो जाया करती हैं। भारत को धर्मनिरपेक्षता का चोला जबरन पहना दिया गया लेकिन पाकिस्तान ?पाकिस्तान ने अपने आपको इस्लामी मुल्क में तबदील करना शुरु कर दिया। हालांकि उसका अंजाम आज तक उसे भोगना पड़ रहा है। शिया सुन्नी, बलूची सिन्धी, बंगला देशी सब आपस में लड़ने झगड़ने लगे और सियासत के इस खेल में मिलिट्री से तानाशाही हावी होती गई। बंगला देश अलग हो गया। अब बलूच और सिंध के अलग होने की बारी आने लगी थी। गांधी अब खोटे सिक्के हो चले थे और उसी दौर में कुछ अति साम्प्रदायिक लोगों के लिए इतने अप्रिय भी कि उनकी हत्या तक हो गई। हिन्दू-मुस्लिम का आपसी समन्वयक नहीं रहा और वह अधूरे ख्वाब लेकर चला गया। पटेल जा चुके थे, राजेन्द्र बाबू ने उस महौल में सक्रिय राजनीति से इतर होकर संवैधानिक प्रमुख होने में अपनी भलाई समझी। बचे नेहरु । उनके क़द को अब नाप पाने की किसकी हिम्मत थी ? लोहिया की ? बंटवारे की कहानी अभी ख़त्म भी न होने पाई थी कि अभी अभी अलग होकर अस्तित्व में आए पाकिस्तान ने कश्मीर की सीमा को लेकर आक्रमण करके यह साबित कर डाला था कि वह न तो ख़ुद चैन से बैठेगा और न पड़ोसी बड़े भाई को चैन से बैठने ही देगा। उधर ड्रैगन चीन ने भी अरुणाचल और लद्दाख की सीमाओं पर उत्पात मचाना शुरु कर दिया था।
नेहरु जी विश्व पटल पर भारत को स्थापित करने की लालसा संजोये हिन्दी चीनी भाई भाई करने और पंचवर्षीय योजनाओं की सौगात बांटने में मशगूल थे कि चीन ने भारत की पीठ में छुरा घोंप दिया। देश ही नहीं कांग्रेस भी अन्दर से कमजोर हो रही थी और केंद्र और राज्य में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच चुका था। प्रोफेसर के.के.दवे उन दिनों पटना यूनिवर्सिटी की सेवा में आ चुके थे। उनका चिर यौवन शबाब पर था और उनकी शाम पटना के लक्जरी होटल, रेस्टोरेंट या किसी फार्म हाउस पर कटने लगी थी। वे सामाजिक रोमांटिक और हारर फ़िल्में देखने के भी शौक़ीन थे। ख़ासकर राजकपूर की । उन्हीं दिनों आर.के.बैनर की एक फिल्म आई "बाबी । "बाक्स ऑफिस पर सुपर हिट । के.के. को तो इतनी पसंद कि उन्होंने तीन बार उसे देखा। उनको ' ....और चाभी खो जाये ' वाला दृश्य और गाना बेहद पसंद आया। सिनेमाघरों में ' बाबी ' कमाल दिखा रही थी तो उस समय के अविभाजित बिहार में भी एक बाबी सुर्खियों में थी। सुर्खियों में ही नहीं उसके चलते बिहार की सरकार भी मुश्किलों में घिर गई थी। असल में वह एक राजनेता की दत्तक पुत्री थी। सुंदर, स्मार्ट, किसी को भी पहली नज़र में अनायास ही घायल कर देनेवाली। सन 1978 में विधानसभा सचिवालय में उसे टेलीफ़ोन ऑपरेटर की नौकरी मिल गई और बाद में वह टाइपिस्ट भी हो गई। सचिवालय राजनीति का ही नहीं उसके चप्पुओं , लग्गू - भग्गुओं का भी केन्द्र था । नेताओं के पास दलालों की भी कमी नहीं थी। गांधी न सही उनकी छपी फोटो,अंगूर की बेटी,और बाबी जैसी छैल छबीलियों के बल पर ढेर सारे काम आसान हो जाते थे। बेपर्दा बॉबी विवाहित थी। पहली शादी ज़्यादा दिनों तक नहीं चली। दूसरी शादी से दो बच्चे भी थे लेकिन उसके बदन से ऐसा लगता नहीं था कि वह दो बच्चों की माँ है। ...शायद लोग उसे इस पहचान से जाना भी नहीं चाहते थे क्योंकि वह तो ' भोग्या ' थी ! उसके प्रसाद से करोड़ों रूपयों का ठेका हासिल किया जाता था। इसी लिए जाने कैसे क्या हुआ कि उस दौर के सचिवालय में उसकी और उसके चप्पुओं की तूती बोलने लगी। नेता और अफ़सरशाही दोनों की वह प्रिय बन गई। अपने के.के.भाई भी विश्वविद्यालय की सारी फ़ाइलों का निपटान उसके मार्फत करवा चुके थे। 10 मई, 1983 को अचानक ख़बर छपी कि बिहार विधानसभा सचिवालय की इस बाबी नाम की टाइपिस्ट की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई । इस मौत के पीछे उसके सेक्सी सम्बन्धों के खुलासा होने का भय था और इस मौत से सेक्स स्कैंडल की भरपूर बू आ रही थी। अख़बार वालों के लिए इस मसालेदार समाचार ने मानो जीवनदान दे दिया क्नायोंकि मनोहर कहानियाँ , सत्नायकथा और नूतन कहानी तो बाद में इसे परोसतीं अखबार वाले तो रोज़ का रोज़ इस खबर को परोसे जा रहे थे। प्रोफेसर दवे भी उसके मायाजाल के अभ्यस्त थे इसलिए वे भी इस खबर को पढ़कर हदस गए। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भी विवाद लेकर सामने आईं। एक रिपोर्ट के मुताबिक मौत का कारण अधिक खून बहना रहा तो दूसरी रिपोर्ट में हार्ट अटैक को मौत की वजह बताया गया। जाहिर है इससे विवाद और बढ़ गया। असल में इस पूरे रैकेट को अपने खुलने का भय था इसलिए जान बूझ कर केस को बिगाड़ा जाने लगा था। बहरहाल ऐसे मामलों में घरवाले भी चूंकि बहुत उत्सुक नहीं रहते हैं इसलिए मामला ठंढे बस्ते के हवाले होता चला गया। शव को दफना दिए जाने के बाद था। राजनीतिक चिल्ल - पों ने एक बार फिर जब तूल पकड़ा तो एक बार फिर पोस्टमॉर्टम का निर्देश दिया यानी इस बार तीसरी बार उस शव का पोस्ट मार्टम हुआ और इस बार की रिपोर्ट में ज़हर देकर मारने की बात सामने आई। अब तो सेक्स रैकेट के संचालकों में खलबली मचनी ही थी। कुछ लोग हिरासत में लिए गए। उन्होंने कई नामों का खुलासा कर दिया। इनमें तब के एक बड़े कांग्रेसी के बेटे समेत कांग्रेस के कई नेता थे। मामला अदालत में पहुंचा। यह कांड एक बड़ा राजनीतिक विवाद बन गया। सी.बी.आई.को मामले को सौंप दिया गया और केंद्रीय एजेंसी इस नतीजे पर पहुंची कि बॉबी की मौत नींद की गोलियां खाने से हुई है। उसके प्रेमी ने धोखा दिया था, इसलिए उसने आत्महत्या कर ली। 18 मार्च, 1984 को केस बंद कर दिया गया। देश के एक प्रमुख अखबार ने लिखा -" राजनीति के दामन को दाग़दार होने से बचाने के लिए एक महिला की लाश पर परदा डाल दिया गया था।" प्रोफेसर दवे बाबी को अच्छी तरह जानते , मानते थे। कुछेक शाम उसके सरकारी क्वार्टर में भी उन्होंने गुजारी थी। घर से 8 पी.एम. की बाटल ले गए थे और जमकर दोनों ने शराब भी पी थी। वे उसे प्यार से बसंती कह कर बुलाते थे क्योंकि वह जब खिलखिलाती थी तो एकदम हेमा मालिनी के किरदार जैसी लगती थी। शराब पीकर वह अद्भुत रूप से अपने सुन्दरीरूप का प्रदर्शन करती थी। ठीक वैसी ही जैसी किसी भी के सिंहासन को डोलने के लिए काफी होता था। ..एक बार तो वे उसके साथ हम बिस्तर भी हुए थे।
बाबी की इस निराशाजनक मौत ने सचिवालय के सफ़ेद टोपीधारियों या उनके लग्गू - भग्गुओं को उतना हिलाकर नहीं रखा होगा जितना के.के. को रख दिया था। हफ्तों के.के.किंकर्तव्य विमूढ़ बने रहे। एक दिन उनके दर्शन शास्त्र के विभागाध्यक्ष आचार्य रमेश ने उनके मन को शांत कराने के मकसद से उनको एक सत्संग में लेकर पहुंचे। सत्संग में प्रभात संगीत हिलोरें ले रहा था ...माहौल में एकदम शान्ति और सहजता थी ..कुछ कलाकार गा बजा रहे थे ..
"मुसाफिर आगे बढ़ते जाना ,
पीछे से अनगिनत पुकार ,खाना पीना और सोना।
पैदाइश और मौत की तकरार, आना जाना और रोना ,
रुकना नहीं है ,सोचना नहीं कुछ तुम्हें है सामने चलना।
मुसाफिर आगे बढ़ते जाना ...!"