मुक्ति बोध
मुक्ति बोध
“आख़िर आज दस वर्षों के बाद तुम फिर वहीं आ खड़े हुए हो हीरा, जहां कभी न लौटकर आने की कसम खाई थी तुमनें!" आधुनिक सभ्यता की आपदाओं को झेलती गंदे नाले में बदल चुकी नदी के पानी में नजरें टिकाये सोना, जैसे उसके वापिस लौट आने पर कटाक्ष कर रही थी।
पानी में उठती भंवर की लहरें कुछ समय के लिए हीरा को अतीत में ले गयी, जहां भरी पंचायत में वह अपने ही पिता के सामने उठ खड़ा हुआ था।
"हाँ पिताजी! अच्छी तरह जानता हूँ मैं कि बाल-विधवा हैं वह, फिर भी मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ।”
“नहीं हो सकता ये। त्याग दो इस विचार को।” पिता के चेहरे पर इन्कार था।
“क्यों नहीं हो सकता पिताजी? क्या उसे फिर से जीवन जीने का अधिकार नहीं हैं, जब उसने 'लाल जोड़ा' पहना था तो वह विवाह का अर्थ नहीं जानती थी और जब उसे सफेद कपड़े पहनाए गए थे, तो वह वैधव्य का अर्थ नहीं जानती थी। आखिर क्या कसूर है उसका? क्या इस गाँव में एक विधवा का विवाह नहीं हो सकता?"
"नहीं! असंभव! हमारे गाँव-बिरादरी की मान्यताओं में ऐसा नहीं होता और इनसे आगे बढकर तुम्हारे लिये मैं कुछ नहीं कर सकता?" पिता की आवाज सख्त हो गयी थी। “ये समाज सुधार की बातें करना बंद करों और कोई अपनी पहचान बनाओ। अभी तुम्हारी पहचान मात्र हमारे कुल के नाम और मान-सम्मान से हैं।”
“आप किस गाॅंव-समाज की बात कर रहें हैं पिताजी, बाहर निकल कर देखिये कि संसार कहां पहुंच गया है?"
"हीरा! मैं अपना उत्तर दे चुका हूं, निर्णय तुम्हें करना हैं।"
पिता के निर्णायक शब्दों ने उसके सामने कोई रास्ता नहीं छोड़ा था, अंततः सोना के भी उसके साथ चलने के प्रश्न पर स्पष्ट इन्कार के बाद उसे अकेले ही गाँव छोड़कर जाना पड़ा था।
"हाँ लौट आया हूँ, तुम्हारे लिये।" अतीत से उभर, पानी में नजर आती परछाईं को देखते हुए कह रहा था वह। "आज मेरे पास सब कुछ हैं और मैं तुम्हे इस गाँव के सड़े-गले रिवाजों से मुक्त करके ले जाने आया हूँ सोना।"
"अच्छा!" मुस्करा पड़ी सोना। "हीरा, समय कभी किसी के लिए नही रुकता। बहती हुई नदी भी एक जगह ठहर जाये तो नाले में बदल जाती हैं। और अपने गाॅंव की इस नदी में तो तुम्हारे जाने से, लौटकर आने तक जाने कितना पानी बह चुका है।" उसकी नजर अभी भी गंदे पानी पर टिकी थी।
"क्या कहना चाहती हो सोना? मैं समझा नहीं!"
"बस इतना ही हीरा, कि बीता हुआ समय मैं बहुत पीछे छोड़ आई हूँ। और फिर उम्र के इस पड़ाव पर कैसी मुक्ति? तुमने आधा जीवन अपनी जिद में गंवां दिया। काश कि जिन रिवाजों से तुम मुझे मुक्त करना चाहते थे। यहां, इस गाँव में रहकर तुमने, इस गाँव को ही उन रिवाजों से मुक्त करने का प्रयास किया होता तो..."
अपनी बात कहते हुए सोना की नजर सहज ही नदी में जमा कचरे से ब्लॉक हुए ढेर में से निकलती एक साफ पानी की धार पर जा टिकी थी। "...शायद हम अलग रह कर भी अलग नहीं होते और इन रिवाजों से मैं मुक्त होती या नहीं, लेकिन इस गाॅंव में तब से आज तक मेरे जैसी जाने कितनी सोना जरुर मुक्त हो गयी होती।”