मोको कहाँ तूं ढूढ़े रे बंदे
मोको कहाँ तूं ढूढ़े रे बंदे
उसे आकाशवाणी पर सुबह सुबह बजने वाली संकेत धुन अत्यंत ही कर्णप्रिय लगती थी और वह तन्मय होकर अपनी सुबह रेडियो के प्रसारणों के संग साथ बिताया करती थी। अक्सर जब रेडियो से भजनों का प्रसारण शुरु होता तो वह एकाग्रचित्त होकर उसके एक एक शब्द को आत्मसात कर जाती थी। कबीर उसके प्रिय भक्त कवि थे और इस समय उनकी ये लाइनें कोई कलाकार गा रहा था ..मोको कहाँ तूं ढूढे रे बन्दे ,मैं तो तेरे पास में। इसे वह अपना सौभाग्य मानती थी कि उसकी शादी जिनसे हुई वे आकाशवाणी के प्रोडयूसर थे। शादी के बाद उसका रेडियो सुनने का शौक दुगुना हो गया।
एक दिन उसके पतिदेव , जिन्हें वह पी.के. कहकर बुलाया करती थी ,एक फ़ार्म लेकर आये और उन्होंने रेडियो का ड्रामा आर्टिस्ट बनने का प्रस्ताव दिया। हिना ने एम.ए. कर लिया था और उन दिनों वह बी.एड. कर रही थी। उसने हामी भरते हुए फ़ार्म भर दिया। निर्धारित तारीख को उसका आडिशन के लिए बुलावा आ गया।
स्टूडियो उसका पहली बार आना हुआ था और वह वहां की रौनक देख कर मंत्रमुग्ध थी। पी .के.के ढेर सारे घर आनेवाले दोस्त उससे बातें करते रहे और बिना पूछे ही ड्रामा आडिशन के टिप्स देते रहे। एक एक करके नाम बुलाया जाने लगा औए उधर हिना के दिल की धडकनें बढ़ने लगीं। उसका नंबर आ चुका था और अब उसने स्टूडियो में इंट्री ले ली थी। शीशे के पार्टीशन से उस और पर्दे के पीछे कुछ लोग बैठे हुए थे और एक व्यक्ति ने हिना को एक स्क्रिप्ट पकड़ा दी थी। उसे कुछ डायलाग बोलने और कुछ कविताएँ रिसाईंटेशन के लिए दिए गए थे।
हिना अवधी फर्राटे से बोल रही थी: " कू कू कोयल बोल पड़ी , अब हवा बसंती डोलि परी। रितुँअन कै राजा आवा है , सब बिहाग मंडली गाय उठी ..सब बिहाग मंडली गाय उठी। "इसके बाद किसी नाटक में नारी पात्र का डायलाग उसे बोलने के लिए दिया गया जिसे उसने बखूबी बोल दिया। "थैंक यू " की आवाज़ सुनते ही वह झट स्टूडियो से बाहर आ गई। पी.के.उसे देखकर मुस्कुराते हुए पूछे - "कैसा रहा ?" उसने कहा - " मेरे हिसाब से फर्स्ट क्लास। "
एक महीने के अन्दर हिना के हिस्से में दो खुशियाँ एक साथ आईं। एक वह आडिशन में सफल घोषित की गई थी और दूसरी यह कि उसकी गोद भरने वाली थी। हिना और पी.के. ने उस दिन बाहर फिल्म देखी और डिनर लिया। आनेवाले नए सदस्य को लेकर देर रात तक बातें करते रहे। समय पंख लगाकर उड़ता रहा और वह दिन भी आ गया जब रेलवे हास्पिटल में हिना ने एक बेटे को जन्म दिया। सीजेरियन आपरेशन के कारण कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद वह घर आ गई।
रेलवे में हिना के पापा के अधिकारी होने से हिना को घर की देखरेख के लिए नौकर चाकर की कभी भी दिक्कत नहीं आई। अब एक नये नौकर को भी उसके पापा ने भेज दिया था बच्चे की देख भाल करने के लिए। बेटे का नाम उसके पितामह ने राहुल रखा। राहुल एकदम अपने पापा पर गया था और उसका रंग एकदम गोरा था। नौकर दिन भर उसके साथ लगा रहता था और इसके चलते हिना ने अपने बी.एड.की परीक्षा बिना किसी परेशानी के पास कर ली।
राहुल अब चार साल का हो चुका था और उसका एडमिशन शहर के सबसे अच्छे स्कूल में करवा दिया गया था। राहुल को पढाने में और आगे बढाने में हिना को सुख मिला रहा था। कुछ ही महीने बाद पी.के. का ट्रांसफर इलाहाबाद आ गया और अब वे इलाहाबाद शिफ्ट हो गए थे। घर के काम काज और बच्चे में उलझी हिना को इस बीच कई बार रेडियो नाटकों में भी हिस्सा लेने का अवसर मिला और उसके अभिनय प्रतिभा से सभी चमत्कृत थे।
राहुल अब जवान हो गए थे और उन दिनों के.जी.एम.सी.लखनऊ में मेंडिकल के छात्र थे। रोज़ अपने और अपने कालेज के बारे में हिना को बताया करते थे। एक दिन देर रात उसका फोन आया और उसने रैगिंग से हो रही अपनी परेशानी के बाबत बताया। हिना और पी.के.ने उसे घर आ जाने की सलाह दी लेकिन वः नहीं माना और एक दिन एक अप्रत्याशित दुर्घटना हो गई। न्यू कमर्स और सीनियर्स के बीच उसी रैगिंग को लेकर हिंसक मारपीट हो गई थी और राहुल बुरी तरह जख्मी होकर अस्पताल में भर्ती कराये गए थे। हिना और पी.के.इलाहाबाद से भागे भागे लखनऊ पहुंचे। आई.सी.सी.यू. में राहुल लगभग बेहोशी की हालत में मिले।
हिना की पूरी रात बेड को पकडे बीती और अगली सुबह राहुल को होश आ गया था। डाक्टरों के अनुसार राहुल का अभी एक आपरेशन होना था जिससे उसके पैर की टूटी हड्डी जोड़ने के लिए राड डाली जानी थी। आपरेशन संपन्न हुआ और राहुल के साथ हिना और पी.के. इलाहाबाद आ गए। राहुल का प्लास्टर एक महीने बाद काटना था।
हिना राहुल को लेकर अब बुरी तरह सशंकित रहने लगी थीं। उनको डिप्रेशन का दौरा पड़ने लगा था। अक्सर यकायक उन्हें कभी कोई बीमारी और कभी कोई बीमारी इस तरह हुआ करती कि लगता था कुछ अनहोनी ना हो जाय। पी.के. के लिए बेटा और बीबी दोनों गंभीर चिंता का विषय बन गए थे। पी.के. कुछ अंधविश्वासों का सहारा लेने लगे थे और अभी इस तांत्रिक तो कभी उस तांत्रिक की शरण में जाया करते थे। उनके पिताजी ने उनकी इन चिंताओं और उसके लिए पी.के.द्वारा किये जा रहे तांत्रिक उपायों को को जब सूना तो उन्हें खूब फटकार लगाईं। वे स्वयं एक सिद्ध गृहस्थ थे और उनके गुरुदेव उन्हें बहुत ज़्यादा मानते थे। पी.के.थक हार कर अपने पिता की मार्फ़त उन गुरुदेव के शरण में पहुंचे।
श्वेत वस्त्रधारी गुरुदेव के व्यक्तित्व में मानो चुम्बकीय तत्व समाहित था। उन्होंने पी.के.का नाम पुकारते हुए एक एक कर उसकी पत्नी और उसके बेटे के बारे में बताया और आश्चर्य की बात तो यह कि उन्होंने उस तांत्रिक का भी पूरा ज़िक्र कर दिया जिसके चक्कर में फंस कर पी.के . स्वयं मनोविकारी होते जा रहे थे। पी.के. के लिए यह एक नई सुबह थी और जब वह गुरुदेव के कमरे से बाहर निकल रहे थे तो दूर कहीं से कबीर के बुने आप्त वाक्य की संगीतमय प्रस्तुति चल रही थी -..."मोको कहाँ तूं ढूढें रे बन्दे ....!"
