मन का दर्पण।
मन का दर्पण।


मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह अपने तो गुण देखता है किंतु दूसरों के अवगुण या दोष देखता है। परंतु सच्चाई तो यह है कि जो दोष दूसरों में दिखाई दे रहे हैं वे सब हमारे ही दोष होते हैं। एक संत का कथन है कि संसार तो एक दर्पण है जिससे हमारे स्वयं के गुण अवगुण ही संसार में दिखाई देते हैं।
इसका एक दृष्टांत है कि प्राचीन काल की बात है कि एक बुजुर्ग शाम के समय कहीं जा रहे थे तो रास्ते में उनको ठोकर लगी, वे गिर गए और बेहोश हो गए और उनके हाथ आपस में जुड़ गए। संध्याकाल था, थोड़ी देर में एक शराबी उधर से गुजरा। वह झूमता हुआ उधर आ रहा था। उसने उस मनुष्य को देखा और मन ही मन विचार किया कि यह भी कोई मेरी तरह ही शराबी लगता है। इसने ज्यादा पी ली है, इसलिए बेहोश हो गया है।
कुछ समय और गुजरा तो एक चोर भी उधर की ओर भागता हुआ आया। उसने सोचा कि यह भी मेरी तरह कोई चोर लगता है। भागने में ठोकर खाकर यह गिर गया है। मुझे यहां से जल्दी भाग जाना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि सिपाही इस को पकड़ने के लिए यहां आ जाए।
कुछ समय और गुजरा तो एक भक्त भी उधर की ओर आया। वह सोचने लगा कि देखो, कितना अच्छा भक्त है, गिरने पर भी भगवान को हाथ जोड़े हुए हैं। मुझे इस की सेवा करनी चाहिए। वह उसको होश में लाया।
तीनों व्यक्तियों ने उस एक ही मनुष्य को देखा किंतु प्रत्येक ने उसे वैसे ही देखा जैसे वे स्वयं अंदर से था। शराबी ने सोचा कि यह भी शराबी है, चोर ने सोचा कि यह भी चोर है ,और भक्त ने सोचा कि यह भी भक्त है। इसी तरह से हम जो भी दूसरों के अवगुण या दोष देखते हैं उसका कारण यह है कि यह गुण या दोष हमारे अंदर ही विद्यमान होते हैं।