हवाई जहाज
हवाई जहाज
कहानी राज नारायण बोहरे की
हवाई जहाज
वह ऊब गया था। दो घण्टे से कोतवाली में बैठा थानेदार साहब की बाट जोह रहा था। उसका गाँव पत्थरपुर इसी कोतवाली में लगता था और जीदतियों से मजबूर हो कर आज वह रिपोर्ट दर्ज कराने आया था।
एक निगाह उसने थाने के कारिंदों पर फेरी जो काम न होने के कारण ऊँघ रहे थे और फिर वह अपने ही भीतर की सोचों में डूब गया।
उसकी उम्र के अधूरे लोग अपने-अपने घरों में आराम फरमा रहे थे, सबने काम करना छोड़ दिया था। खास कर उसकी परजापत-बिरादरी में तो इस उम्र के लोग अपने बच्चों के आसरे काम-धाम छोड़ कर निश्चिन्त हो जाते थे। लेकिन वह किसके भरोसे काम छोड़े -बब्बू के भरोसे या गनेशा के भरोसे ...?
दोनों ही तो गँवर निकले। बब्बू को कितने हसरत से पढ़ाया गया था? मजूरी करके उसने बब्बू की किताबों और फीस के रूपये भरे थे। सोचा था, बिरादरी में पहला लड़का बीकर रहा है अपना और खानदान का नाम कंप्यूटिंगरेगा। लेकिन कहाँ? बब्बू का दिल तो उसकी नई नवेली बहुरिया में लगा था। सो जैसे-तैसे वह थर्ड क्वाजन वाले हो गए थे लेकिन कहीं कोई नौकरी नहीं पा गई। अब दर-दर मारा फिर रहा था।
उधर गनेशा की जब से लगन करी, बड़े भार्इ की तरह उसने भी पढ़ने से आँख फेर ली और स्कूल को छोड़कर एक बनिया की दुकान पर चाकरी कर ली। बाप ने कितना उल्लेख किया कि लल्ली अपना खानदानी पेशा करो। चार रसोई मेक, मलाई-पुतरिया मेक। काहे को गैर की चाकरी करे फिरते हो।मगर दोंनों ने एक न सुनी और उसे कहा - '' चुपचाप घर में बैठ कर रोटी खाओ। हमें लगता है कि हमारा काम चल रहा है। कछु सभा धर के न्यू ले जाओगे-जा जमीन-जिजात। ''
वह चुप हो गया था। 'कुछ'न करते हुए दिन रुकने लगा था।पेंद्रह दिन बाद की बात है कि दोनों बहुरियों में खटखट हो गए और बँटोब द्वारा अलग होने को झगड़ने लगीं। पंच कहकर उसने दोनों बँटब कर दिए। अच्छी रही कि येकी महतारी पहले ही सुरग सिधार गई, नहीं तो जीत जी लेज मर जाती है ... उसने मन-ही-मन सोचा था। बंटवारे में तय हुई बातचीत के बारे में कहते हैं कि एक-एक पखवारा उसे दोनों सैनिकों के यहां खाना पकाने था और एक महीने बाद ही उसे लगने लगा था कि वह खैरात में रोटी खाता है। बहुएँ उसे समझकर भेाजन नहीं करातीं बल्कि बेगारी समझती हैं। दिनभर उसे दोनों घर की टहल करनी पड़ती हैं। कभी-कभी ऊंचाई-नीच सुनने भी मिल जाता है। ऐसी मबटप उठता वह।
खैर अभी तो उसके हाथ-पाँव चलते थे। उसके एक 'चाक' और'हत्था'सँभाला और पुरानी जजमानी के गाँव पत्थरपुर को चल पड़ा था। गाँव वालों ने उस पंचित आश्चर्य से उससे पूछा- '' अरे रतन, अब बुढाल में ये सब काहे कर रहे हो रहे हो! तो तिसना मत करो! हू और पैराग्राफेक्स लेकेगे। मजे से घर रहो ... दोनों बहुओं के हाथ की कु और खाओ। ''
वह चुपचाप रही। कौन अपनी जाँघ उघाड़े और आपई लेशन मारे। ऊपर से वह इतना ही बोला था - '' भैया जिन्दगी-कांग काम करते सो अब बैठे-बैठे हाथ-पाँव दूखने लगे हैं। ''
गाँव में पहुँचे दो-चार दिन हुए थे कि एक दिन गाँव में तहसीलदार साब आए थे। पटेल के दरवाजे पै सिगरो गाँव जुटो। तब अहलकर कह गए कि अब सरकार हल्की जात बिरादरी बारों खों पैसे बाँटेगी, जिससे वे धान्य रोजगार करें। कुम्हरन्ह को रसोई मेवे, ईंट मेवे मैन मेटगों। ''
उस दिन हुलफुलाहट में उससे खाना नहीं खाबा था और दूसरे दिन वह तहसीलदार के अनुमतिलाओं में जा रहा था। दरखास लगाई। बुलावे पै उसने कहा तासीलदार से विनय करी थी - '' सिरकर, में कुम्हर हाऊ। मौको ईंट बनावे मैदान और करज दिलाओ। ''
तासीलदार साब ने मोटे चश्मे के पीछे से अपनी आँखें झप आसमान थे और बोले थे - '' गाँव में एसी जमीन देख लो जहाँ ईट बना सको। पटवारी को ग्राउंड शो देना ''
वह तासीलदार साब के पैर छूकर लताट आया था। फिर तब रोज रोज पटैल, पटवारी और गिरदवार का इतना चक्कर चला कि तीन सौ रूपया करज हो गई थी तब नदिया के बगल की जमीन पर ईंट बनाने की इजाजत मिली थी। उन्होंने वहां मढ़ैया डालकर काम शुरू कर दिया था। गाँव मे विशाखा साहू से सात सौ रूपया करज और के लिए थे।
घनन! बहुत बुरा ...! सन्तरी ने घण्टा बजाया तो उसने चौंक दिया। तिपहरिया हो आई थी और कोतवाल-कस का पता न था। एक इच्छा हुई कि ऐसी-तैसी करने वाले। गाँव चलो। पर बुद्धि ने जोर मारा कि गाँव में भी कहा जाएगा? वहाँ भी तो बैथान ही है। जैसों वहाँ वेसो यहाँ सही।
उस दिन वह काम कर रहा था कि अचानक सरपंच पहलवान सिंह आकर खडा हो गया था। '' साला हराम खाऊ! '' रतन के मुँह से निकल गया ... भैंसे जैसी बीमार बदन है और जब हँसता है तो लगता है कि कोई डॉन रेंका हो। कुछ दिनों से जब देखो तब नदिया के उस पार आकर बैठ जाता है। गाँव के आदमियों में सबसे काइयाँ इंसान है। जब बंगाधुआ-मजूरी की मर्मानुमारी हुई थी तो साफ मुकर गया कि उसके यहाँ कोई बन्धुआ-मजहब नहीं है। जबकि सिगरा गाँव जानता है कि हल्का, फूला और कपूरा तीन पीढ़ियों से इसके यहाँ बँधुआ है।
बिल्कुल नजदीक आके पहलवान तैस में बोला था - '' देख रे रतन, नदिया के जाप की जमीन हमारी है और तू समझे है कि दूसरे की जमीन पैमानालंदजी बहुत ही होवेंद्र है। ''
"अरे जा तो सरकारीू मैदान में भईया, तेरा कहाँ से हो गया है?" 'वह बिल्कुल ही बोल पड़ा था?
'' नाही रे रतन, हमारे खाने में बीते पांच साल से गैर -जजत लिख रही है। सो अब की साल हमाराई नाम होवेगी। ''
रतन मुँह बिचकाकर अपने काम में लग गया था लेकिन उसी दिन से उत्पात शुरू हो गए थे। उसकी कच्ची ईंटे तु ड़ वा दी जाती है। सामान गायब हो जाता है ।पट्टी ईटों के भट्टे में पानी डाल दिया जाता है। एक दिन तो गजब हो गया। दो आदमी मुंह पर तौलिया बाँधे रात को आए और उस पर दनादन लाठियाँ बरसाने लगे। वह अचकचाकर चिल्ला उठा और गाँव की तरफ भागा। किस्मत थी कि बच गया। दरअसल दोनों लठैत गीली मिट्टी में फंसकर गिरे थे और मौका पाकर वह गाँव पहुंच गया था।
उन्होंने तासीलदार से जाना रोते हुए सिगरा हाल बताया था तो तासीलदार साब ने उसे ढाडस बधाकर एसडीएम.से मिलवाना था। उन्होंने नायब साब को जाँच करने के आर्डर कर दिए थे।
दूसरे दिन नायब साब गाँव में पहुँचे तो वे सीधे उसी की मढैया पर पधारे थे उसका बयान लिया और जब उन्होंने पूछा कि किसी आदमी पर आपकी संभावना तो नहीं, तो उसने कहा कि पहलवान सिंह सरपंच पर उसे पूरा शक है। उसकी बातें सुनते हुए वे जमीन का नक्शा बनाते रहे। उसे नायब साब देवता से लगे, बेचारे बडे प्रेम से बोल रहे थे।
लेकिन बाद में उसका माथा ठनका उठा क्योंकि तफ़तीस का काम निपटाकर नायब
साब ठीक सरपंच पहलवान सिहं के घर पहँचे थे। उसे लगा कि उसके बयान लेने वाले हैं
लेकिन उन्होंने खुद अपनी आँखों से देखा कि वे सरपंच के इँता पूडी-खीर का भेड़िया कर रहे हैं
हैं। अब काहे का न्याय? वह लौट आई। हालाँकि यह नई बात नहीं है। हर अफसर सरपंच
के यहाँ ही तो खाना खाता था ।लेकिन कम-से-कम आज के दिन नासब साब को यह नहीं
करना था ।शेसे यह भी सच है कि आखिरकार वे भी खाते हैं जहां। उसके बारे में सोचा गया है। तब तो कुछ भी नहीं पूछा गया।
नायब साब के गाँव से जाते ही पहलवान सिंह सीधा उसके पास आ गए।
'' देख रे रन्स, तेरी हरकतें बहुत ही कर कर लीं मनें। जा रहा है, ... और अबकी बार तूने कुछ उलटा-सीधा किया तो तेरी ... में बन्दूक डाल स्कैनर और सीधा परोकोक होगा। '' ''
परसों वह अपनी मढैया से गाँव में सोने के लिए लौट रहा था कि पहलवान सिंह का छोटा छोरा रास्ता में मिल गया और उसने अपना पालतू कुत्ता उस पर छूने कर दिया था। वह हाँफता-काँपता गाँव में पहुँच पाया था।
अगले ही दिन वह बड़े भोर जिला मुकाम को निकल गया था और पूरी तरह सोच के पुलिस कप्तान के बंगले के बाहर जा के बैठ गया था।) दोपहर को भोजन करने आये कप्तान ने उसे बैठा देख कर बुलाया था और बैठने का सबब पूछा था। रतन ने अपना सारा किस्सा कह सुनाया। कप्तान बोले थे "तुम गाँव वापस जाओ। डरो नहीं। पुलिस और सरकार तुम्हारे साथ है।"
थाने की लाइट जल गई थी और दो-चार सिपाही आकर बैठ गए थे। उसने एक
सिपाही से पूछा - '' हैड साब! थानेदार साब कब आएंगे? ''
'' अरे ससुरे, तो यहाँ एसी-तासी क्यों कर रही है, जा तू उनके बगंला पर चला जा अब रात को वे काहे को थाने लौटेंगे "सिपाही बोला था।
रतन रुआँसा हो आया था। एक निश्वास पुलकर अपनी पोटली उठाकर वह जाने को खड़ा ही हुआ था कि थाने के दरवाजे से थानेदार साब अंदर आ गए।] उसकी जान-में-जान आई उसे ऐसा लगा जैसे बोनस मिल गया हो। पर उसकी प्रसन्नता अगले क्षण ही समाप्त हो गई भी क्यों कि थानेदार साब के पीछे -पीछेलेन जैसा रेंडीपन पहलवान सिंह भी था।इसी के खिलाफ तो वह रपट लिखाने आया था। वह सहम गई।
उसे देख पहलवान बोला - '' कोतवाल साब, ये ई है वे ऊटपट्टी आदमी। ''
'' अच्छा, '' कोतवाल साब ने मूँछें मरोड़ी, फिर एक सिपाही को बुलाया और उसने दौड़ने की कोशिश की पर भीमेटिक शैतानसिंह ने उसे पकड़ा और भीतर की
ओर घसीटने लगा, जहाँ छत में लगे चार कुन्डे उसका इन्तजार कर रहे थे, हवार्इ जहाज बन गया
कर टोंगने के लिए।
ठीक तो कोतवाली के सन्नाटे को सायरन की आवाज ने स्पष्ट कर दिया।
सब चौंके। सहसा पुलिस कप्तान की गाड़ी आकर खड़ी हुई थी जिसे देखकर रतन की गहरी मुस्कान खिल उठी थी और पहलवान सिंह तो जैसे हवा में गायब हो गया था।
ठीक उसी समय जब अपने बयान दर्ज कराए जा रहे थे, जब वह पहलवान सिंह हवाई जहाज बना गाँव की ओर भागा जा रहा था।