Swayambara Buxi

Tragedy

4.2  

Swayambara Buxi

Tragedy

मिसिंग

मिसिंग

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"दादी माँ पानी दो"

"दादी माँ जूते खोल दो"

"दादी माँ हाथ धोना है"

ठुमकते-हुमकते-मचलते बच्चों की ‘दादी माँ’ हुलस-हुलस कर उनके काम करते जाती, जैसे कि उनके ही घरों के बच्चे हों, बीच-बीच में घुड़की भी देती -

"हुवाँ मत जाओ"

"गन्दा हाथ साफ करो"

"दौड़ो मत"

थोड़ी फुरसत मिलती तो मैडम और सर लोगों की पुकार होती

दादी माँ बड़बड़ाते-बड़बड़ाते भागी जाती

"एक ठो दादी माँ, कहाँ-कहाँ जाए"

ऐसा नहीं कि दादी माँ हमेशा व्यस्त ही रहती। थोड़ी सी फुरसत मिली नहीं कि दादी माँ गायब। अड़ोस-पड़ोस में साग टुंगते, बड़ी पारते, बच्चों की मालिश करते, गप्प हांकते, चाय पीते मिलती।

बदले में वो लोग जो कुछ भी बनाते, इन्हें खाने को देते।


जब टीचर हुड़कते -"स्कूल टाइम पर क्यों ग़ायब होती है? यहाँ काम होता है। बच्चों को पानी पिलाना होता है। "

तो तपाक से जवाब होता - "मैम से पूछ के गईल रहीं। "

मैम मतलब मैं। और मेरा नाम आने पर कोई क्या बोलता। मैं ही प्रिंसिपल। हालांकि सब जानते कि वो झूठ बोल रहीं हैं। मैम मतलब मैं भी जानती कि वो झूठ बोल रहीं।


लोग कहते -"आप इन्हें कैसे झेलती हैं? इन्हें निकाल क्यों नहीं देतीं?"

और मैं....मुझे तो उनकी कही एक बात ही याद आती-" हमार दू गो ना तीन गो बेटी। रौवा के हम बेटी मानिला.. "


बात सिर्फ रिश्ते बनाने-बिगाड़ने की नहीं थी। पचहत्तर बरस के वैधव्य में जिजीविषा का जो तेज़ देखा था, उसने मुझे उनकी तरफ आकर्षित किया। यह रूप कम ही दिखता है।

एक दिन पूछ बैठी-

"दो बेटियां हैं, दोनों का ससुराल अच्छा। अब इस उम्र में काम करने की क्या जरुरत? वहीं क्यों नहीं चली जातीं? "

जवाब था-"अबही जाइला ओहिजा त मान-सम्मान होखेला। रहे लागब त बोझ बन जाइब। फेरु ई मान त नाहीए मिली। त जबले जांगर चलता, मेहनत मजूरी करब, बाकिर आपने घरे रहब। "


घर के नाम पर दो कमरा है पक्का का। अंगना भी है। एक आंच वाला गैस का चूल्हा भी है। नाते रिश्ते में आना-जाना भी रहता है।

एक दिन की बात है वो भरी बैठी थीं। बच्चों को भी डांटे जा रही थी। कुछेक 'सर-मैम' लोगों से लड़ भी चुकी थी। पास-पड़ोस से बोल-चाल बंद था।


मैंने बात करना शुरू किया तो बोलने लगीं-

"हई बगलवाली के बियाह हम ठीक करइनि। आ बियाह में हमरे ना बोलौलस। का त बिधवा बाड़ी। का त अपसगुन होखी। बताइ त आपन दूनो लईकिन के बियाह करवईनि की ना। अकेलेही नु। आयें ? बाकिर हर जगह इहे बात। सबके करीला, केहू हमरा खातिर नईखे। "


रोने लगी थीं वो। फिर घर-जवार, नाते-रिश्ते, सबको कोसने लगी। फिर कोसने लगी अपने पति को। शाप देने लगीं उन्हें।

मैंने धीरे से कहा-"जो गुज़र गए उनको क्या दोष देना। "


अब फट पड़ी वो।

वो रुदन ऐसा कि आसमान में न समा रहा था।

इतनी पीड़ा जैसे पूरी धरती ही कराह रही थी।

इतने आँसू जो किसी आँचल में समेटे नहीं जा सकते थे.. और क्रोध ऐसा कि महाकाल ही उतर आया हो

फिर सामने आया ऐसा सच जिसे सुनकर हैरान थी।

दादी माँ विधवा नहीं थी। ये जो सूनी मांग करके, सफ़ेद साड़ी पहन कर, विधवा का रूप धर लिया था, ये उनके आत्माभिमान का पर्याय था कि जो एक स्त्री को प्रतिष्ठा, मान, स्नेह न दे वो पति कहलाने लायक ही नहीं। ये न समझियेगा कि ये तलाक़ का मामला है, नहीं,कहानी कुछ और ही थी।


राधा नाम था उनका और संजोग ऐसा कि मोहन से ही विवाह हुआ, बाल विवाह, साथ रहते खेलते बड़े हुए तो प्रेम भी हो गया। बड़े ही खूबसूरत पल थे वे। । दिन पलाश सा खिला होता, रातें रातरानी की गंध से सराबोर होतीं। राधा-मोहन खोए रहते अपनी छोटी सी गृहस्थी में। पैसे की तंगी थी पर वे दोनों खुश थे।

दो बच्चियाँ हुई। इसी बीच मोहन की नौकरी फ़ौज़ में हो गयी। अब घर में पैसे भी आने लगे। सब अच्छा ही था, कि सन 71 का युद्ध हुआ, कई सैनिक शहीद हुए थे। राधा का मन भी रोज़ डरता। वह भागी-भागी जाती बुढ़िया माई के दरबार, अंचरा पसार मनौती मांगती।

फिर भागती बरहम बाबा के दुआर, गोहार लगाती। सारे देवी-देवताओं को मनाया था कि उसका मोहन सकुशल लौट कर आ जाए।

युद्ध ख़त्म हुआ, मोहन नहीं आया, न ही उसका कोई सन्देश ही आया। एक दिन बीता, दो दिन बीता, दो महिने हो गए। रोज़ इंतज़ार, रोज़ इंतज़ार।

ट्रंक कॉल किया हेड ऑफिस में, जवाब मिला मोहन का कुछ अता-पता नहीं है। वह ‘मिसिंग’ है।

'मिसिंग'

यह शब्द राहत देनेवाला था कि मोहन अब भी जिन्दा है, सही सलामत। यह शब्द इस बात का आश्वासन था कि एक दिन वह लौट आएगा।

यह शब्द इस का संकेत था कि राधा की मनौतियां व्यर्थ नहीं गयीं। राधा इतने से खुश थी कि मोहन आएगा ज़रूर। वह इंतज़ार करने लगी।

छह महीने बीत गए, फिर एक साल। अब उम्मीद की डोर टूटने लगी। आस-पड़ोस से उधार लेकर, बेटियों को पड़ोसी को सौंपकर राधा चल पड़ी अपने मोहन को ढूंढने। सैन्य मुख्यालय पहुंची। ज़िद थी कि मोहन की जानकारी लेकर ही रहेगी। न हो तो खुद उस जगह जाएगी जहाँ से वह मिसिंग है। वहां पहुँचकर महसूस हुआ कि यह इतना आसान नहीं है। काफी दौड़-भाग के बाद जानकारी मिली कि मोहन युद्ध के चौथे दिन से ग़ायब है। उसका मृत शरीर भी नहीं मिला। खोजबीन हुई पर अब तक कोई खबर नहीं मिली है। अब यह 'मिसिंग' शब्द उसे दम घोंटता सा महसूस हुआ। उसकी सारी उम्मीद ख़त्म हो रही थी। सारा साहस चूक गया। सारी हिम्मत जवाब दे गयी थी।


बाहर निकलकर वह फूट-फूट कर रोने लगी। अब चारों ओर अंधेरा था। समझ नहीं आ रहा था कहाँ जाएं। उस अजनबी शहर में कोई तो नहीं था अपना। निढाल मन ने शरीर को भी अवश कर दिया था। वह भटकने लगी थी। कुछ दिनों में तन-मन दोनों विक्षिप्त से हो गए। स्थानीय लोग भी उसे पागल ही समझने लगे। कभी दुत्कारते, कभी झिड़कते।

एक दिन ऐसे ही वहां के स्टेशन पर आ बैठी आते-जाते रेलगाड़ी को देख रही थी कि अचानक उसकी नज़र पड़ी -"ये तो उसका मोहन है!"

दूसरे प्लेटफॉर्म पर एक सुन्दर स्त्री और गोद में बच्चा लिया मोहन किसी बात पर जोर-जोर से हँस रहा था।

उसने ध्यान से देखा - "हाँ वह मोहन ही है। "

वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी - "मोहन मोहन। "

वह उस प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ी। पुकारती रही। इस बार उस स्त्री तक राधा की पुकार पहुँची, उसने मोहन को दिखाया। तब तक राधा वहां पहुँच चुकी थी। वह मोहन से लिपट गयी जैसे अब कभी अलग ही नहीं होना। वह स्त्री डर गयी। उसने लोगों को सहायता के लिए पुकारा। लोगों ने भी समझा वह पागल है। उन्होंने राधा को खिंचना शुरू किया। उसे अलग किया फिर मारने लगे। वह मोहन मोहन पुकारती रही। पर उससे छूट कर मोहन, उस स्त्री और बच्चे के साथ अगली ट्रेन में बैठ गया। इधर लोगों ने राधा को घसीटकर प्लेटफॉर्म से बाहर कर दिया। राधा हतप्रभ थी। अवाक् भी। जो देखा क्या वह सच था।

क्या वह मोहन ही था? नहीं वह मोहन नहीं हो सकता। पर बहुत दिनों बाद आज उसके दिमाग ने कहा-" हाँ वह मोहन ही था। "

"वह मोहन ही था जो लोगों के हाथों मुझे पिटता देखता रहा। "

"वह मोहन ही था जिसने मुझे अपने से अलग करने के लिए जी-जान लगा दी। "

"वह मोहन ही था जो मेरे बारे में सोचे बिना उस स्त्री बच्चे के साथ ट्रेन में बैठ गया। "

फिर अब क्या रह गया। और अचानक अब सब हल्का लगने लगा। ये जो मन पर टनों बोझ था ग़ायब हो गया। ये जो 'मिसिंग' शब्द उसके ऊपर सवार हो उसका गला दबा रहा था, अदृश्य हो गया। इस शब्द ने उसे पागल कर दिया था। इस शब्द में भरी उम्मीद ने जीवन दूभर कर दिया था। पर अब तो सब साफ़ था।

राधा ने 'मिसिंग' शब्द उच्चारण फिर कहा -"इसका मतलब मर गया। "

वह बड़बड़ाई -"मोहन मर गया। "

फिर जोर से बोली -"मोहन मर गया। "

अब वह आश्वस्त थी। अब वह शांत थी। अब उसे घर आना था।


टिकट के पैसे तो नहीं थे पर टी टी की चिरौरी करके वह अपने घर के स्टेशन पहुंची, वहाँ से अपने गाँव। इतना बताकर दादी माँ ने लंबी सांस भरी। जबकि मुझे लग रहा था कि मेरी सांस रुक सी गयी है।

दादी माँ ने फिर कहना शुरू किया-

गाँव आकर सबको बता दिया कि मोहन शहीद हो गया है। चूड़ियाँ फेंक दी। सिंदूरदान व दूसरे श्रृंगार का सामान गंगा जी को समर्पित किया। सारी रंगीन साड़ियाँ बाँट दी। मोहन की तस्वीर बनाकर माला पहना दिया। फिर उधार लेकर मोहन का श्राद्ध कर दिया।

अब सबसे बड़ा प्रश्न बेटियों के पालन-पोषण का था। इस डेढ़ साल में कर्ज भी चढ़ चुके थे। पर जब इतना झेल लिया तो बाकी जिंदगी आसान ही महसूस हुई। मेहनत मजूरी से धीरे-धीरे सब ठीक होने लगा। कुछ पूंजी जमा होने पर थोड़े से खेत ख़रीद लिए गए।  फिर आम का बगीचा ख़रीदा। घर तो था उसे पक्का कर दिया।

बड़ी बेटी की शादी थी। मड़वान हो रहा था कि एक अजनबी आया और राधा की बाबत पूछने लगा। राधा से मिलने पर कुछ कहा। देखते-देखते राधा घर से बाहर निकल गयी। उस अजनबी के साथ खेत-खेत होते हुए एक कुंए के पास पहुंची तो देखा एक कमजोर, बीमार इंसान वहां बैठा था। ध्यान से देखा तो वह मोहन था।


राधा को अजीब सा लगा। हाँ बड़ा अजीब सा ही लगा था कि यह जो इंसान मोहन सा चेहरा लिए बैठा है, सच में मोहन है? क्या यही मोहन है?

मन ने जवाब दिया-"मोहन मिसिंग है, मोहन मर गया है। "

अब दुःख -सुख की कोई भावना नहीं थी उसके मन में। उसने निर्विकार होकर कहा- "तुम मोहन हो न, पर तुम तो मर चुके हो। "

मोहन को लगा कि वह गुस्से में है।

वह रोने लगा, कहा-"हाँ सच में मैं मर जाने लायक ही हूँ। पर मुझे माफ़ कर दो। जानता हूँ कि ग़लती माफ़ी लायक नहीं पर माफ़ कर दो। "

राधा उसी भाव से बोली-"मरे हुए को कैसी माफ़ी। फिर भी तुम्हारे मन के लिए कह रही तुम्हें कब का माफ़ कर दिया। "

मोहन बोला -"हमारे घर चलने को नहीं कहोगी। "

राधा बोली-" वो मेरा घर है, तुम्हारा नहीं। तुम सबके लिए मर चुके हो। शहीद हो तो सम्मानित हो। घर चलोगे तो भगौड़ा घोषित कर दिए जाओगे। अच्छा हो कि मरे ही रहो सबके लिए। "

इतना कहकर दादी माँ एकदम से चुप हो गयी। अब तो मैं भी चुप थी। सुननेवाला सहजन का पेड़ और उसपर बैठी मैना भी एकदम चुप थी। तब तक दादी माँ ही कह बैठी-"जानतानि ई सहजन जब पकठा जाई नु, त एकर अचार लगावल जाला। खूब नीमन लागेला। एह बेर लगाईब नु त रौवा खियाईब"


इतने में लंच की घंटी बजी -"टन्नन्नन्न"

पुकार शुरू हुई-

"दादी माँ हाथ धुला दो"

"दादी माँ पानी दो"

और दादी माँ फिर से बड़बड़ा रही थी।



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