मिशन - एन.पी.ए.

मिशन - एन.पी.ए.

16 mins
14.4K


तेज गति से दौड़ रही ट्रेन अचानक रूकी । एक झटका – सा लगा और मैं अपनी तन्द्रा से बाहर आया । शायद कोई स्टेशन आया था । मानसपटल पर बुलबुलों की तरह उठ रहे प्रश्नों को रोका । आंखो को पोंछते हुए मैं भारी कदमों से प्लेटफार्म पर उतरकर इधर-उधर झांकने लगा। ट्रेन देश के दक्षिणी क्षेत्र को पार करके उत्तरी क्षेत्र की सीमा में प्रवेश कर गई थी । ताप के दिन । जलती धरती । झुलसते सपने। प्लेटफार्म पर आते- जाते लोगों को मैं निहारने लगा। कुछ देर तक मौन होकर सबकुछ देखता रहा । सामने से चायवाला आ रहा था, उसे बुलाया और चाय की चुस्कियां लेते हुए अपनी सीट पर जाकर बैठ गया । सीटी बजी और लहराती हुई ट्रेन चल पड़ी।

मैं पुन: यादों के समंदर में गोते लगाने लगा । भीतर की सरगोशियां बाहर आ गई । मेरी आंखों के सामने वह दृश्य तैरने लगा जब मुझे बैंक द्वारा सम्मानित किया जा रहा था.............

बैंक के प्रधान कार्यालय की वह आलीशान गगनचुंबी इमारत। लिफ्ट से पच्चीसवीं मंजिल पर जाते हुए मेरी आंखे डबडबा गई थी । आज मुझे बैंक के प्रबंध निदेशक के हाथों सम्मानित किया जाना था । पच्चीसवी मंज़िल की साज़- सज्जा और रौनक देखकर मैं चौंधिया गया था । सब कुछ भव्य, सुंदर और आलीशान था, जैसे कोई पांच सितारा होटल हो । सामने वह तस्वीर थी जिसमें बैंक के चेअरमॅन महोदय भारी भरकम रकम वाला चेक मंत्री जी को सौंपते हुए मुस्कुरा रहे थे । तो देश के वित्त मंत्री बड़े ही गर्मजोशी से उसे स्वीकार कर रहे थे । हॉल में सजी यह तस्वीर लोगों को आकर्षित कर रही थी । बैंक जो मुनाफा कमाती है उसका एक हिस्सा सरकार को दिया जाता है, ताकि देश की आर्थिक व्यवस्था मजबूत हो सके । भले ही हमें बोनस न मिलता हो, जो निजी उपक्रमों में मिलता है, पर देश के विकास में हमारा योगदान है । देश की आर्थिक व्यवस्था में हमारा भी अहम योगदान है, इस बात का मुझे गर्व हो रहा था ।

यह तस्वीर जितनी साफ– सुथरी नज़र आ रही थी, हकीकत में वैसी होती नहीं, इस बात की गवाही मेरा अंतर्मन दे रहा था । चेक की रकम तय करती है कि अगली पोस्टिंग कहां और किस पद पर होगी। गर्मजोशी से हाथ मिलाने और मुस्कुराहट के पीछे एक लंबी राजनीति होती है । देश के विकास में हम श्रमजीवियों का कितना बड़ा योगदान होता है, इसका वज़ूद तो सिर्फ़ शब्दों तक ही सीमित होता है । खुश हो जाते हैं हम साहबों की वाह- वाही से । मगर इसमें भी एक अकड़न होती है । आखिर ये भी कहां आसनी से मिलती है !

खैर, तस्वीर में मुस्कुरा रहे चेअरमॅन की खुशी में मैंने अपनी खुशी मिला ली और आगे बढ़ गया। कदम कुछ आगे बढ़े ही थे कि सामने रिशेप्सन पोर्च में लगे टीवी पर आंखें गड़ गई । सामने मीडिया की वो सुर्खियां दौड़ रही थी जिसमें देश में फैले भ्रष्टाचार की रिपोर्ट पेश की जा रही थी । भ्रष्टाचार और दलाली में लिप्त नेताओं की खबरें मन में ग्लनि पैदा कर रही थीं । रिपोर्टर बता रहा था कि देशसेवा के नाम पर चुनकर आनेवाले नेता, संसद में आपसी भेद- भाव और रंजिश मिटाकर किस तरह एकजूट होकर अपने वेतन, भत्ते, पेंशन, आवास और तमाम सुविधायें मंजूर करा रहे थे । इसके लिए उन्हें हड़्ताल करके वेतन कटौती करवाने की जरूरत नहीं पड़ती ।

सभ्य समाज की ये असभ्य तस्वीरें । तल्ख हकीकतें । मेरे अंदर का एक ज़ज्बाती इंसान हिसाब लगा रहा था । एक ओर वेतन के अतिरिक्त लाखों में बोनस और भत्ते पानेवाले कर्मी हैं, तो दूसरी ओर इसका आधा भी नहीं पाते, ऐसे लोगों की भारी भीड़ है ! दोनो श्रेणी में सरकारी और बिन सरकारी लोगों का समावेश है । मुझे याद आ गया मेरा भतीजा जो आय.टी. सेक्टर में है, उसने टारगेट पूरा किया तो उसे वेतन के बराबर लाखों का बोनस दिया गया और पदोन्नति अलग से । महज तीस साल की उम्र में लाखों की तनख़्वाह पानेवाला आज वह कंपनी का एक्जीक्यूटीव है और मैं, खैर.......

स्वागत कक्ष में मेरा बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया गया । कुछ बहुत ही खूबसूरत, शोला और शबनम जैसी सुंदर, महिलाओं ने बड़े आदर से मेरा तिलक किया, फूल दिया और मुझे मंच तक ले गई । समारोह की औपचारिकता पूरी होने के बाद चेयरमॅन महोदय जी ने सुंदर सम्मान चिन्ह, प्रशस्ति पत्र और गोल्ड मेडल ( सोने की परत चढ़ा ) देकर मुझे सम्मानित किया । सम्मान का जवाब देते हुए मेरी आंखे नम हो गयी थी । मैंने इस तरह के सम्मान के बारे कभी सोचा भी नहीं था । सरहद पर शहीद होने वाले जवानों की ज़िंदगियां याद आ गई, और समचार पत्रों की वो सुर्ख खबरें भी ।

इस सम्मान से वास्तव में मुझे बेहद खुशी हो रही थी पर दिल में एक कसक भी थी । जीवन की पाठशाला ने बहुत कुछ सिखा दिया था । इस बात को मैं महसूस कर रहा था । मेरी दृष्टी से यह सम्मान तो उन ग्रामीणों का था, जिन्होने मेरी आवाज से आवाज मिलायी थी और कडप्पा शाखा का टारगेट पूरा किया था । आजकल टारगेट का ज़माना है । जो टारगेट के खेल में माहिर हैं, वही सिकंदर हैं, अन्यथा बरसों की मेहनत पर पानी फिर जाता है । टारगेट का झंडा मैं भी फहरा कर आया था जो पिछले दस वर्षो में कभी नहीं हुआ था ।

बहरहाल मंच पर बैठे– बैठे मुझे घर परिवार की याद आ गई कि यह सम्मान तो मेरी पत्नी का भी है, जिसने अकेले घर की जिम्मेदारियों को संभाला था । पांच वर्षों का अकेलापन भोगा था । जीवन के अज़ूबेपन को झेला था । बच्चे कच्ची उम्र पार करके जवानी की दहलीज़ पर दस्तक दे रहे थे । यही वह उम्र होती है बच्चों की, जहां उन्हे संभालने की और संभलने ज़रूरत अधिक होती है । उनकी ज़िंदगी जीवन के उस चौराहे पर खड़ी होती है, जहां से तमाम राहें बनने, बिगड़ने, बहकने और फिसलने की ओर निकलती हैं । एक ओर प्रमोशन के झंडे तो दूसरी ओर घर - परिवार की फिक्र..........।

मुझे याद है कि स्केल वन का प्रमोशन पच्चीस साल के बाद मिला था । ट्रांसफर के सदमे से सदैव परेशान रहा । 25 – 30 साल के बाद पहला प्रमोशन और वह भी गांव – खेड़े में....! सरकारी महकमों में इस ट्रांसफर नामक सोच से कितना नुकसान होता है लोगों का और देश की व्यवस्था का भी यह आज भी लोग ठीक से समझ नहीं रहे हैं इसका मन ही मन बड़ा इसका अफ़सोस हो रहा था ! खैर, चार साल बाद यह दूसरा प्रमोशन था । महीने भर भी मैं परिवार के साथ नहीं रह पाया था कि अचानक एक दिन पुन: ट्रांसफर ऑर्डर थमा दिया गया । शहर से सीधे गांव – खेडे़ में, उत्तर से सीधे दक्षिण प्रदेश में जाना पडा़, वह भी परिवार के बगैर । पत्नी की नौकरी और बच्चों की पढा़ई के चलते उन्हे साथ ले जाना संभव नहीं था । अत: खाने-पीने, उठने-बैठने, बोली- भाषा, रहने इत्यादि तमाम तरह की परेशानियों को झेलते हुए मुझे तो नानी याद आ गयी थी । मरता बेचारा क्या न करता ! सो जाना पडा़ । सोच रहा था कमबख्त़ ये भी कोई प्रमोशन है ! बसी- बसाई दुनिया छोड़कर गांव में जाओ । वेतन में इज़ाफा सिर्फ सैकड़ों का और सामाजिक सांस्कृतिक नुकसान लाखों का ! नई गृहस्थी बसाओ, वो खर्चा अलग से ! मगर क्या करें साहब , बैंकिग इंडस्ट्री में तबादला, नौकरी का एक अविभाज्य घटक होता है, जो वर्षों से चली आ रही एक लाईलाज बीमारी है । इस बीमारी के चलते महानगरों में रहनेवाले कर्मियों और महिलाओं का पिछ्ले तीन दशकों में काफी नुकसान उठाना पड़ा है । कंप्यूटर और तकनीकी के इस युग में अब तो इस बीमारी का इलाज होना ही चाहिए ! मन ही मन कोसते हुए मैंने अपने परिवार और शहर से बिदाई ली थी ।

कड्प्पा शाखा में मैंने अपनी नई पारी आरंभ की । एक ओर तमाम समस्यायें तो दूसरी ओर पदोन्नति की गरमी भी थी । भाषाई परेशानी, गंवई तौर– तरीके, ग्रामीण बैंकिंग, लोकल लोगों की दबंगई इत्यादि समस्याओं के चलते लोग मुझ पर हंसते और मैं दिन काटने के चक्कर में मुस्कुरा देता । खैर पांच वर्षों से तक आंध्रप्रदेश के इस कड्प्पा शाखा में बतौर प्रबंधक अपनी सेवाएं मैंने प्रदान की ।

मैं सोच रहा था कि आखिर इस सफलता के पीछे एक राज़ भी तो छिपा था कि, किसी तरह ग्रामीण सेवा के तीन वर्ष पूरे कर लूं और फिर अपने होमटाउन को लौट जाऊं, पर हुआ कुछ विपरीत । टारगेट पूरा न होने की वजह से मेरा कार्यकाल उसी शाखा में दो वर्षों के लिए और बढ़ा दिया गया । मुझे भय था कि यदि इस बार भी टारगेट पूरा नहीं हुआ तो.......! किसी भी तरह मुझे वापस अपने परिवार के बीच लौटना था । मगर हां, मैं बैंक की जिम्मेदारियों से भागना भी नहीं चाहता था । करो या मरो की स्थिति से मैं गुजर रहा था उन दिनों ।

कितना अबुझ होता है ना जीवन ! वह अपने को कभी पूरा व्यक्त नहीं करता । निराशा के ऐसे क्षणों में अक्सर अंदर से कोई कहता रहता है कि चिंता मत करो, सब कुछ अच्छा होगा । ऐसे स्पंदनो से उचाट मन कभी- कभी सुकून पाता है ।

सम्मान के पश्चात अपने भाषण में मैंने कहा था कि, मित्रों, मुझे जीवन में कवि शैलेंन्द्र की ये पंक्तियां प्राय: संबल प्रदान करती हैं -

‘’ तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यकीन कर

अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर ।‘’

इस मंत्र को मैंने अपना जीवन मंत्र बना लिया है और चुनौतियों के हर मोड़ पर इस मंत्र को जीवन गीत बनाने की कोशिश करता हूँ । मित्रों, आज के इस आयोजन के प्रति मैं कृतज्ञता व्यक्त करते हुए, यह सम्मान मैं सिध्द्प्पा को समर्पित कर रहा हूँ । लोग चकित हो गए कि यह सिध्दप्पा कौन है !

खैर, सम्मान समारोह समाप्त हुआ । कार्यक्रम के अगले ही दिन मैं अपने होमटाउन गाज़ियाबाद की ओर रवाना हो गया । ट्रेन अब पूरी रफ्तार से दौड़ने लगी थी । मन की मुंडेर पर खट्टी– मीठी यादों का सिलसिला पेंग ले रहा था ।

वर्षो लंबी ज़िंदगी में कुछ बातें ही याद रहती हैं । साहित्यकारों के शब्दों मे अज़ीब– सा करिश्मा होता है। वे सिर्फ लकीर के फ़कीर नहीं होते, बल्कि जीवन का मर्म उंडेलकर रख देते हैं। कमोबेश वह पुराना दोहा मेरे लिए पथ प्रदर्शक बना -

मीलों लंबी ज़िंदगी, बरसों दौडे़ दौड़ ,

बाकी सब विस्मृत हुआ,याद रहे कुछ मोड़ ।

दरअसल जिस जिले में मेरी शाखा थी उस जिले में एक नदी बहती थी । नदी बेछूट थी । एक ओर वरदान तो दूसरी ओर अभिशाप । जिस क्षेत्र से बहती वहां तो फसल अच्छी उगती, किंतु कभी-कभी तबाही मचाते हुए बाढ़ भी लाती थी । इस पर बांध बनाकर पानी को रोकना ज़रूरी था, ताकि सुचारू रूप से पानी खेतों तक पहुंचाया जा सके और बाढ़ को रोका जा सके ।

मेरे बैंक की शाखा जिस क्षेत्र में थी वहां पिछले कुछ वर्षों से सूखे का आलम था । सूखे की वजह से लोग बदहाली का जीवन जी रहे थे । कई प्रकार के कृषि लोन उस क्षेत्र में बांटे गये थे पर लोन की वसूली नहीं हो पा रही थी । स्थानीय नेतागण कर्ज़ माफ़ी की रट लगाए हुए थे । इससे लोगों में गलतफ़हमी पैदा हो गयी थी, पर कुछ लोग इमानदार भी थे । वे कर्ज़ चुकाना चाहते थे, किंतु परिस्थितियों के आगे मजबूर थे । उनके इस ज़ज़्बे को सलाम करने को दिल चाह रहा था ।

टारगेट पूरा करने के आसुरी ख्याल ने मुझे सख़्त बना दिया और साम-दाम-दंड- भेद की नीति अपनाते हुए मैंने ‘’मिशन एन.पी.ए.’’ ( नॉन परफॉर्मिंग असेट- ऐसे बैंक लोन जो वसूल न हो रहे हों ) के तहत येन-केन प्रकारेण लोन वसूली को अपना लक्ष्य बनाया । विकास की इस सरिता के रूप में मैं लोकतंत्र का सपना देख रहा था । इस पिछडे़ हुए इलाके के उपेक्षितों के लिए जागरुकता, भागीदारी, और अवसरों की सुलभता का विचार मेरे मन में गूंज रहा था । लोगों की शिकायतें सुन-सुनकर मेरे कान पक गये थे । शाखा में मुझे मिलाकर कुल पांच कर्मचारी थे, एक – दो तो रोज छुट्टी पर रहते । मुखिया होने के नाते तिजोरी की चाबी से लेकर साफ– सफाई और गेट खोलने बंद करने की सारी जिम्मेदारी मेरी थी, क्योंकि........खैर यह विषय लंबा हो जाएगा.... ।

कुछ ही दिनों बाद जिला स्तर पर सरकारी एजेंसियों की एक बैठक में मुझे निमंत्रित किया गया । क्षेत्र के विकास और समस्याओं पर चर्चा होनी थी । उनके लिए ये महज खानापूर्ति थी पर मेरे लिए मिशन था । सरकारी अधिकारियों के सामने मैंने नदी पर बांध बनाने और नहर निकालने की योजना रखी । वहां के जीवन के बारे में और खेतों की उपज के बारे में लोगों को समझाया । वह मोड़ मैंने बताया जहां बांध बनाना जरुरी था । इससे एक ओर हमारी शाखा के क्षेत्र के लोगों को बाढ़ से राहत मिलने वाली थी, तो दूसरी ओर अच्छी फसल । योजना पर लगनेवाली लागत के लिए आवश्यक बैंक लोन का प्रस्ताव बनाने का ज़िम्मा मैंने उठाया और इसे अपने बैंक के प्रधान कार्यालय से मंजूरी दिलवाने का भरोसा भी दिया । क्षेत्र के मुखिया ने इस योजना के बारे में मुझे पहले ही बता दिया था, अत: प्रधान कार्यालय से इस विषय पर मेरी चर्चा हो गयी थी ।

वैसे इसके पहले क्षेत्र के लोग बाढ़ की समस्या के समाधान के लिए जिलाधिकारियों से कई बार मिल चुके थे । हर साल एक बड़ी सभा आयोजित की जाती और उसमें चर्चा की जाती कि यदि बाढ़ आयी तो राहत कार्य किस प्रकार किया जायेगा ! मदद कैसे पहुंचायी जायेगी ! मुआवजे की राशि कैसे वितरित होगी ! राहत शिविर कहां लगेगा ! बीमारी में दवाइयां कैसे पहुंचायी जायेंगी, इत्यादि इत्यादि! पर इन सभाओं में बांध बनाकर चारों ओर सिंचाई के लिए नहर बनाने पर कभी कोई चर्चा नहीं उठती थी । इसके कई कारण रहे होंगे, शायद स्वार्थ या कुछ और.........।

आज तक आर्थिक मुद्दा ही उनके लिए सिरदर्द बना था । मैंने प्रस्ताव को प्रधान कार्यालय भेज दिया । साथ में जिला कलेक्टर और क्षेत्र के मंत्री जी का सिफारिश पत्र भी जोड़ दिया। यह प्रोजेक्ट लोन का एक बड़ा प्रस्ताव था, जो बेहद ही संवेदनशील था । बैंक को इस प्रस्ताव में रुचि थी । राज्य सरकार गारंटी देने को तैयार थी । लोन मंजूरी की प्रक्रिया आरंभ हुई और लगातार बैठकें होने लगी । लोगों में खुशी की लहर दौड़ गयी ।

मेरी कीर्ति अब क्षेत्र में चारों ओर फैल गयी थी । लोगों को लग रहा था कि नदी पर बांध मेरी वजह से बन रहा है । मैं लोन पास करवा रहा हूं, इसलिए विकास की नहर उनके घरों तक पहुंचने वाली है । वे ऐसा मान बैठे थे कि क्षेत्र में जो क्रांन्ति होने जा रही है उसका सुत्रधार मैं हूँ । इसका लाभ भी मुझे मिलने लगा ।

लोग दूर– दूर से मिलने आने लगे । अपने बैंकिग के करोबार को निपटाने लगे । धीरे – धीरे बैंक के काम – काज में गति आने लगी । व्यापार बढ़ने लगा । नये खाते खुलने लगे । पुराने लोन वसूल होने लगे । नए लोन दिए जाने लगे । शाखा का डिपॉजिट फिगर भी बढ़ गया, जिसकी मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी । इन्ही ग्राहकों की मदद से मैंने पुराने लोन वसूलने के लिए सख़्त कदम उठाए ।

एक दिन वह भी आया जब टारगेट पूरा हो गया । मैं बेहद खुश था । मेरा टर्म अब पूरा होने जा रहा था, इसलिए मैं अपने क्षेत्र में घूम- घूमकर लोगों से मिल रहा था । अचानक उस दरवाजे पर भी पहुंचा, जिसका कुछ लोन मैंने समझौता प्रस्ताव के तहत माफ़ करवाया था । वह सिध्द्प्पा का घर था । बेहद उदासी का आलम था वहां । यह घटना मेरे दिल में सदा के लिए यादगार बन गयी । जीवन में शायद ही कभी मैं इसे भुला पाऊंगा ।

मुझे देखकर सिध्द्प्पा मेरे पैरों पर गिर गया और फूट-फूटकर रोते हुए कहने लगा, ‘‘ सर्र ! मैं बहुत गरीब होना जी, पर अपना इज्ज़त बहुत प्यारा होना...... । किसी का कर्ज़ बाकी रखना हमको शर्म की बात होना। आप्प वसूली के लिए मेरे घर आना तो कर्जा़ चुकाने के लिए मैंने बेटी की शादी के लिए रखा पैसा आपके बैंक में जमा कर देना । पर बाद में अचानक मेरी पत्नी बीमार होना जी, मैंन्ने सोना (जेवर) बेचकर उसका इलाज करना । बाद में लड़के वाले शादी के वास्ते बार-बार मेरे घर को आना जी । मैं मजबूर होना, मेरे पास पैस्सा नहीं होना । कैस्सा शादी करेंगा ? फिर शादी टूट जाना । मेरी बेटी को बड़ा धक्का लगना । घर की लाज बचाने के लिए एक दिन गले में फंदा लगाकर वह झूल्ल गयी जी । मेरी पत्नी को इसका सदम्मा लगना , वह भी भगवान को प्यारी हो गई । मैं तो लूट गया सर्र । अब मेरे पास खाने को भी कुछ नहीं होना, किसके सहारे जीना ! शायद एक दिन हम्म भी फंदा लगा लेंगा सर्र.........’’

उसकी इस करुण गाथा ने मुझे झकझोर कर रख दिया । वह आंसुओं को रोक नहीं पा रहा था । मेरी ज़ुबान सन्न हो गयी थी । मैंने उसे धीरज दिया । उसके कंधो पर हाथ रखकर कुछ देर तक उसे सहलाते रहा और भारी कदमों से आगे बढ़ गया । मन ही मन मैं अपने आपको दोषी मानने लगा ।

मुझे याद है मिशन एन.पी.ए. के तहत लोन वसूलने के लिए जब मैं गांव- गांव घूम रहा था तब एक दिन अचानक इस किसान ‘’सिध्द्प्पा ‘’ के घर पहुँच गया और लोन चुकाने के लिए उस पर दबाव डाला । पहले तो वह अपनी गरीबी और अकाल का रोना रोने लगा। पर जब मैंने उसे समझौता प्रस्ताव के तहत लोन का कुछ हिस्सा माफ़ करने के बारे में बताया और कुछ दबाव बनाया तो वह राजी हो गया। अकाल के कारण खेती संभव नही थी, किंतु मेहनत मज़दूरी करके वह अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहा था । कुछ लोन माफ़ हो जायेगा इस लालच में उसने निश्चित समय में शेष लोन राशि बैंक में जमा कर दी । समझौता प्रस्ताव के तहत मैंने उसे ऋण मुक्त कर दिया । इस तरह कई खातों की वसूली उस दौरान मैंने की । मेरी इस बाज़ीगरी पर मेरे आलाकमान बड़े खुश थे, सभी लोग मेरी तारीफ कर रहे थे । मेरा उदाहरण पेश कर रहे थे । इसी का नतीजा था कि मुझे प्रधान कार्यालय बुलाकर सम्मानित किया गया था ।

सरपट भागती ट्रेन अचानक रुकी । एक झटका - सा लगा । मैं अपनी यादों को समेटते हुए बाहर आया और बाहर झांकने लगा, तेज हवा की मुक्केबाजी जारी थी । कुछ बुंदा- बांदी और फिर अचानक कड़ी धूप, जलती धरती, झुलसते सपने । सामने एक जाना पहचाना – सा आदमी दिखाई दिया ।

मुझे लगा जैसे सामने काला अधनंगा, लुंगी लपेटे सिध्द्प्पा फूट – फूटकर रो रहा था । यादों के टीले पर खडा़ मैं हाथ जोड़कर उससे कह रहा था –

‘ सिध्दप्पा हो सके तो मुझे माफ़ कर देना । मुझे तुम पर दबाव नहीं डालना चाहिए था । पर क्या करूं भाई ! मैं ड्यूटी निभा रहा था और तुम इज्ज़त की खातिर फर्ज़ अदा कर रहे थे । आगे जो कुछ हुआ वह तो नियति का खेल था । काश ! तुम जैसी इमानदारी उन घाघ पूंजीपतियों और नेताओं में भी होती जो करोड़ों रुपयों का लोन आपसी मिलीभगत के चलते डकारकर बैठ जाते हैं। उनके लिए यह लाज –लज्जा़ या शरमों हया की बात नहीं, बल्कि शान की बात होती है। इस डूबी हुई अनगिनत करोड़ों की पूंजी से देश के कई सिध्द्पाओं का जीवन आबाद हो सकता है। कई नदियों पर बांध बनाकर सिंचाई के लिए नहरें निकाली जा सकती हैं। शिक्षा, बिजली ,पानी, हाट-बाजार, पक्के मकानों का इंतजाम किया जा सकता है। अर्थी के बजाय बेटियों की डोलियां सजायी जा सकती हैं.........मुझे माफ़ कर देना मेरे भाई.....मुझे माफ़ कर देना....।’

शायद यह मेरा भ्रम था ! मैं अभी तक उस सदमें से बाहर नहीं निकल पाया था । दूर क्षितिज पर सूर्य पहाड़ियों के आंचल में दम तोड़ने की तैयारी कर रहा था । ट्रेन की सीटी बजी । नि:शब्द होकर मैं पुन: अपनी सीट पर आकर बैठ गया । काले शीशे से बाहर झांकने की कोशिश कर रह था । सफे़द लुंगी लपेटे, काला अधनंगा एक शख्स़ बेतहासा भागा चला जा रहा था । मै अपने भीतर पनपते दर्द के ज्वार को दबाने की कोशिश कर रहा था ।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama